पिछले कुछ अर्से से मानो देश की, या यूं कहा जाए कि लोकतंत्र की बुनियाद को संभाले रखने वाली संस्थाओं पर किसी का बुरा साया, नापाक नजर लग गई है। पहले न्यायपालकि भीतर बवंडर उठा जिसे चार जनवरी, 2018 के दिन पूरे देश ने देखा, फिर शीर्ष जांच एजेंसी सीबीआई के भीतर की गंदगी लोदी रोड स्थित उसके भव्य मुख्यालय से निकल मुल्क के कोने-कोने तक जा पहुंची। ऐसी दुर्गंध उठी कि आमजन मानस से लेकर खास तक के फेफड़े विषाक्त हो गए। यूं हम भारतीयों के भीतर राजनेताओं, नौकरशाहों और सरकारी तंत्र से उठने वाली दुर्गंध समा चुकी है। हम उसे पूरी तरह आत्मसात कर उसके साथ जीवन जीने के अभ्यस्त हो चले हैं।
न्यायपालिका से लेकिन हमारी आस बरकरार है। इसलिए जब आस की साख पर सवाल उठने लगते हैं तो हर जागरूक का चिंतनशील मन स्वाभाविक रूप से त्रस्त हो उठता है। देश की सर्वोच्च अदालत को लेकर इन दिनों कुछ ऐसा ही माहौल सा बन रहा है। शुरुआत गत् वर्ष के पहले माह चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की उस प्रेस वार्ता से होती है जिसमें वे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली को लेकर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं। यह एक असंभव सा प्रतीत होने वाला घटनाक्रम था जिसने शीर्ष अदालत को कठघरे में ला खड़ा किया था। हालांकि देश की नदियों में तब से लेकर आज तक बहुत पानी बह चुका है, लेकिन इस अदालत की साख पर उठने वाले सवालों में कमी आने का नाम नहीं ले रही। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की जिस कार्यशैली को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते हुए चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता की थी उनमें से एक वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भी शामिल थे। तब इन चार न्यायाधीशों ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर स्थापित प्रोटोकॉल तोड़ काम करने का आरोप लगाया था। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने तो महाराष्ट्र के न्यायाधीश लोया की संदेहास्पद मृत्यु से संबंधित सुप्रीम कोर्ट में दर्ज याचिका को एक विशेष न्यायाधीश को आवंटित किए जाने की बात भी कह डाली थी। न्यायमूर्ति गोगोई अब देश के मुख्य न्यायाधीश हैं। जाहिर है उनसे ना केवल सुप्रीम कोर्ट के उनके सहयोगी न्यायाधीशों बल्कि पूरे देश को बड़ी आस है। विश्वास है कि उन सभी कथित गड़बड़ियों को वे दूर करेंगे जिनको लेकर उन्होंने अपने तीन अन्य साथियों संग प्रेस वार्ता की थी। जिन मुद्दों को इन चार विद्वान न्यायाधीशों ने सार्वजनिक तौर पर उठाए थे उन पर जस्ट्सि गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश बनने पश्चात कितना सुधार किया है, यह न्यायपालिका प्रणाली का आंतरिक हिस्सा होने चलते स्पष्ट नहीं, किंतु शीर्ष न्यायपालिका की सख को प्रभावित करने वाले प्रश्न जस्ट्सि गोगोई के कार्यकाल में भी यथावत नजर आ रहे हैं। न्यायमूर्ति गोगोई की खंडपीठ द्वारा 14 दिसंबर, 2018 को एक सिरे से राफेल रक्षा सौदे में कथित भ्रष्टाचार को लेकर दायर जनहित याचिकाएं खारिज किए जाने के बाद उठे सवाल अब एक बार फिर से इस सर्वोच्च न्याय मंदिर की साख पर संदेह पैदा करने का काम कर रहे हैं। राफेल रक्षा सौदे में सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं मानी। उनके निर्णय से असंतुष्ट जनहित याचिका दायर करने वालों में से एक वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने खुलकर अदालत के निर्णय की आलोचना की है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यूं तो सीधे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर टिप्पणी नहीं की, ‘देश का चौकीदार चोर हैं’ के अपने जुमले को उन्होंने दोहराते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ कह डाला कि वे प्रमाणित कर देंगे कि पीएम ने इस सौदे के जरिए अपने मित्र अनिल अंबानी को अनुचित लाभ पहुंचाया है। साफ है कि राहुल गांधी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। इसके बाद देश की निगाहें एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पर जा टिकी। इस बार इंतजार सीबीआई विवाद पर कोर्ट के फैसले का था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रथम दृष्टया सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा के पक्ष में प्रतीत होता है। कोर्ट ने स्पष्ट निर्णय दिया कि सरकार अथवा केंद्रीय सत्तकर्ता आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं जिसकी बिना पर वे सीबीआई निदेशक के कार्यकाल को कम कर सकते हों या फिर उन्हें जबरन छुट्टी पर भेज सकते हों। कोर्ट ने इस अधिकार प्राप्त कमेटी की बैठक एक सप्ताह के भीतर बुला आलोक वर्मा के भविष्य को तय करने की बात भी अपने आदेश में कही। केंद्र सरकार ने तत्काल ही इस हाई पॉवर कमेटी की बैठक बुला डाली। बैठक में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने वर्मा के कार्यकाल को जारी रखने तो प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सिकरी ने उन्हें हटाने की बात कही। बहुमत का निर्णय पाते ही सरकार ने वर्मा को तत्काल हटा डाला। इस निर्णय पश्चात राज खुला कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे प्रकरण की जांच के लिए नियुक्त पूर्व न्यायाधीश एके पटनायक की रिपोर्ट सरकार ने इस हाई पावर कमेटी के सामने रखी ही नहीं। इस निर्णय के बाद मीडिया में न्यायमूर्ति सिकरी के बाबत कुछ बातें प्रकाशित हुई। यह कहा गया कि जल्द होने जा रही सेवानिवृत्ति के पश्चात एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्था के पद पर केंद्र सरकार ने उन्हें नियुक्त किया है जिसका कहीं ना कहीं असर आलोक वर्मा को हटाए जाने संबंधी उनकी सहमति से जुड़ा है। न्यायमूर्ति सिकरी ने इन आरोपों से व्यथित हो केंद्र सरकार को सूचित कर डाला कि वे इस पद को नहीं स्वीकार रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने न्यायमूर्ति सिकरी का बचाव करते हुए मीडिया पर कठोर टिप्पणी की है। निःसंदेह किसी भी प्रकार के आरोप निराधार नहीं लगाए जाने चाहिए। प्रश्न लेकिन यह भी विचार योग्य है कि क्योंकर ऐसी स्थिति बन आई कि हमें अपनी अदालतों के फैसलों पर भी शक होने लगा है। सिकरी विवाद अभी थमा भी नहीं कि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा यकायक ही केंद्र सरकार को न्यायालय में नियुक्ति संबंधी भेजी अपनी सिफारिश को बदलने की खबर आ गई। अंग्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित खबर अनुसार उच्चतम न्यायालय के कुछ न्यायाधीश इससे खासे बेचैन हैं। दरअसल, इस कॉलेजियम ने अपनी पिछली बैठक के दौरान राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंद्राजोग और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट में किए जाने की सिफारिश की थी। इस निर्णय की सूचना सार्वजनिक नहीं की गई थी। दस जनवरी को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की दोबारा बैठक में इन सिफारिशों को वापस लेते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी एवं दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश संजीव खन्ना को प्रोन्नत करने का फैसला ले लिया गया। न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की बाबत न्यायमूर्ति चलमेश्वर ने पद पर रहते हुए प्रतिकूल टिप्पणी की थी। इस विवाद के चलते न्यायपालिका की शीर्ष संस्था में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की सेवानिवृत्ति बाद बदलाव आने की आस अब धूमिल होने लगी है। दिल्ली उच्च न्यायालय के जज रह चुके न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर ने तो राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को कॉलेजियम द्वारा दो जजों के नाम रोकने और दो अन्य जजों के नाम सुप्रीम कोर्ट के जज बतौर प्रस्तावित किए जाने पर अपना कड़ा प्रतिरोध जताते हुए पत्र ही लिख दिया है। उनका कहना है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के जज संजीव खन्ना को प्रोन्नत करने के चलते बत्तीस जजों की वरिष्ठता प्रभावित होती है। बकौल न्यायमूर्ति गंभीर ‘Elevating justice Sanjeev Khanna is appalling and outrageous. Such an earth shattering decision has been taken to supersede as many as 32 judges which include many chief justices, casting aspersions on their intellect, merit and integrity’ देश की शीर्ष जांच एजेंसी सीबीआई भी लंबे अर्से से ऐसे विवादों के घेरे में है जिसने ‘पिंजरे में बंद तोते’ की कुख्याति पाए इस संगठन की साख को पूरी तरह समाप्त करने का काम किया है। इस संगठन के इतिहास में भी ऐसा पहली बार हुआ है कि संस्था के दो शीर्ष अधिकारियों की लड़ाई सार्वजनिक तो हुई ही, साथ ही इसके चलते केंद्र सरकार और केंद्रीय सतकर्ता आयोग की विश्वसनीयता भी बुरी तरह प्रभावित हो गई। भ्रष्टाचार निवारण के लिए बनी संस्था केंद्रीय सत्तकर्ता आयोग के मुखिया की निष्ठा ही जब संदिग्ध हो चले और केंद्र सरकार अपनी ही जांच एजेंसी के प्रमुख से डरती नजर आने लगे तब सरकार के कर्ताधर्ताओं की नियत पर प्रश्न उठने लाजमी हो जाते हैं। ऐसे माहौल में धूमिल की कविता का मुझे स्मरण हो रहा है। कवि कहता है- हर तरफ धुंआ है/हर तरफ कुहासा है/जो दांतों और दलदलों का दलाल है/वह देश भक्त है अंधकार कायरता के चेहरे पर सबसे ज्यादा रक्त है/ जिसके पास थाली है। हर भूखा आदमी उसके लिए सबसे बड़ी गाली है/हर तरफ कुआं है, हर तरफ खाई है/यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है/जो या तो मूर्ख है या फिर गरीब है