इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवां वर्ष आधा बीत चुका है। सात बरस पहले, 2014 में मई माह बाद देश का माहौल उत्साह से, उम्मीदों से लबरेज था। देश की सत्ता तबके हर दिल अजीज नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी के हाथों में आ चुकी थी। जनता जनार्दन को पूरा भरोसा था कि अब रामराज्य की नींव पड़ चुकी है, रामराज्य का सपना अब साकार हो जाएगा। सात बरस बाद राम मंदिर का निर्माण तो अवश्य अयोध्या में शुरू हो चला है, मगर रामराज्य के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं नजर आ रहे हैं। सारा उत्साह, सभी उम्मीदें जो 2014 में नरेंद्र भाई की ताजपोशी के चलते पैदा हुई थी, अकाल मृत्यु का शिकार हो चली हैं। हम भारतीय बड़े फक्र से कहते थे कि आजादी बाद अपने यहां निरंतर लोकतंत्र मजबूत होता गया तो साथ जन्मे पाकिस्तान में तबाही तंत्र पनपा। गर्व से पाकिस्तान को ‘असफल राष्ट्र’ (Failed state) कह पुकारते थे। आज देखिए हम कहां खड़े हैं? देश की शीर्ष न्यापालिका यह कहने को विवश हो गई कि ‘लोकतंत्र खतरे में हैं।’ सारे सपने ध्वस्त होते हम अपने सामने, अपनी आंखों से देख रहे हैं, यह दीगर बात है कि सब कुछ देखते-भोगते भी बहुतों की आंख अभी खुली नहीं है, उनका नरेंद्र भाई पर भरोसा और इस भरोसे के चलते रामराज्य पाने का सपना, कमजोर भले ही हुआ है, टूटा नहीं है। इस विश्वास का कोई आधार नहीं। अंधभक्ति के अपने फायदे लेकिन बहुत हैं। सबसे बड़ा फायदा झूठी आस के सहारे दिन काट लेने का है। सब कुछ देखते, भोगते हुए भी यह आस अंधभक्ति के चलते जीने का माद्दा बनाए रखती है कि आज नहीं तो कल ‘आॅल इज वेल’ हो ही जाना है। संकट उनका ज्यादा गंभीर है जो अंधभक्त न तो 2014 में थे न ही कभी हो सकते हैं। उनके लिए अंधा तमाशबीन बन पाना संभव ही नहीं। इसलिए वे हमेशा बेचैन रहते हैं, उनकी छटपटाहट उन्हें सुकून नहीं लेने देती। ऐसे ‘नालायकों’ में मेरी भी गिनती है। मोदी जी का गुजरात का सीएम काल समझने वाले ऐसे ‘नालायक’ तभी चैकन्ना हो उठे थे जब 2013 में भाजपा ने मोदी जी को राष्ट्रीय राजनीति में लाने का अंतिम निर्णय लिया। तब से लेकर आज तक ऐसे ‘नालायकों’ ने मोदी जी के हर निर्णय को शक की नजरों से देखा। ऐसा नहीं इनको कभी अपनी ‘नालायकियत’ पर शंका न उभरी हो। कई बार ये ‘नालायक’ प्रयास करते नजर आए कि कुछ तो ऐसा लिख-बोल सकें जो अंधभक्तों के समान भले ही स्तुति गान न हो, मोदी जी के अच्छे प्रयासों का ईमानदार विश्लेषण जरूर हो। लेकिन जब-जब ऐसा कुछ करने का प्रयास किया तो कलम मानो हथौड़ा हो गई, जुबान में ताला जड़ गया। सार्थक कुछ हो तो कलम चले, जुबान हिले। कुछ भी, दोहराता हूं, कुछ भी, ऐसा नजर नहीं आता। चैतरफा मचा हाहाकार, सच को सच, झूठ को झूठ के रहने का संकल्प ऐसे हर प्रयास को धता बता देते हैं और ‘नालायकों’ की ‘नालायकित’ ज्यादा उफान मारने लगती है। उदाहरण के लिए चैतरफा मोदी जी का गुणगान इन दिनों बड़े पैमाने पर मुक्त कोरोना वैक्सीनेशन को लेकर हो रहा है। हम सरीखों की ‘नालायकियत’ हमें दूसरी ही तस्वीर दिखा देती है। कोरोना की दूसरी लहर का तांड़व रोक पाने में केंद्र सरकार पूरी तरह, बुरी तरह, नाकामयाब रही। इतनी अस्त-व्यस्त सरकार पहले कभी देखने को नहीं मिली। पहली कोरोना लहर के बाद जो समय दूसरी लहर से निपटने के लिए मिला था उसे सरकार बहादुर ने पांच राज्यों की विधानसभा येन-केन-प्रकारेण हासिल करने में गंवा दिया। इससे बड़ा प्रमाण इस सरकार की अदूरदर्शिता का, अमानुषी प्रवृति का भला और क्या हो सकता है? हजारों जानें कोरोना वायरस संक्रमण के चलते नहीं बल्कि सरकार की काहिली के चलते चली गईं। घर के घर तबाह हो गए। विश्व गुरु बनने की राह पर चल पड़ने की हकीकत आॅक्सीजन सरीखी बुनियादी जरूरत तक न मुहैया करा पाने के सच ने सामने ला दी। तीन अरब वैक्सीन अकेले भारत की जरूरत है। ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ कर विश्व गुरु बनने का प्रयास कितना अदूरदर्शी था इसे अपने देश में वैक्सीन की भारी किल्लत ने स्पष्ट कर दिया है। इससे बड़ा क्रूर मजाक भला और क्या हो सकता है कि इस वैक्सीनेशन को भी उत्सव और उपलब्धि कह प्रचारित किया जा रहा है। सरकारी दावों की हकीकत इस टीकाकरण अभियान के सच ने सामने ला दी है। पहले कोविड से हुई मौतों का आंकड़ा सरकारी तंत्र ने छिपाया, अब फर्जी टीकाकरण के टारगेट जनता को परोसे जा रहे हैं। जनता जनार्दन इससे मुदित हो उठेगी ऐसा शायद सिस्टम के रणनीतिकार मान रहे हों। अंधभक्ति के चलते ऐसा संभव भी है। एक तरफ अद्भुत टीकाकरण तो दूसरी तरफ कश्मीर का मुद्दा उठा असम संकट से ध्यान भटकाने का खेल हम ‘नालायकों’ को लेकिन स्पष्ट नजर आ रहा है। यकायक ही प्रधानमंत्री ने कश्मीर पर बैठक बुलाने का निर्णय ले लिया। उनके इस निर्णय से दो बातें हुईं। गोदी-चारणी मीडिया ने उनके इस प्रयास को सुर्खियां बना कोरोना के चलते मचे हाहाकार से देश का ध्यान हटाना शुरू कर डाला है तो दूसरी तरफ कश्मीर में आतंकी सक्रियता भी तेजी पकड़ने लगी है। आतंकवाद हमारे लिए एक ऐसा नासूर है जो तमाम विकराल परिस्थितियों, आमजन की सारी तकलीफों को दफन कर, राष्ट्रवाद का नशा हावी करने की ताकत रखता है। इधर पीएम ने कश्मीर में अमन बहाली की तरफ कदम उठाया तो उधर घाटी में ड्रोन उड़ने लगे हैं। यह ड्रोन घाटी तक सीमित नहीं रहने वाले। कहीं भी, कभी भी स्ट्राइक कर सकते हैं। तो अब कोविड संक्रमण, उससे मची तबाही मुद्दा न होकर सारा फोकस ‘ड्रोन महामारी’ पर केंद्रित होने के असार हैं। एक बार फिर से गरीब-गुरबा का खून खौलने लगेगा। इस खौलते खून में अगले बरस होने जा रहे उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनावों को तले जाने की पूरी संभावना है। सोचिएगा जरूर, ठंडे मन से, सक्रिय दिमागी तंत्र से, इसका लाभ किसे मिलेगा? यदि समझ पाए तो बहुत कुछ जो अभी तक नासमझी के चलते समझ नहीं पाए हैं, वह सब कुछ समझ में आ जाएगा। जो कुछ इन दिनों मुल्क में चल रहा है, बजरिए मीडिया और सरकारी तंत्र हमें समझाया जा रहा है। हमारे सामने जो कुछ भी परोसा जा रहा है। उस पर कुछ चिंतन तो करिए। सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगेगा। सोचिए एक मजबूत शिक्षा मंत्रालय नामक तंत्र होते हुए भी, एक पूर्णकालिक शिक्षा मंत्री होते हुए भी भला क्योंकर हमारे प्रधान सेवक अपनी ऊर्जा, अपने ‘मन की बात’ स्कूली परीक्षा कराएं या न कराएं पर जाया करते दिख रहे हैं? मोदी जी तो प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को सख्त नापसंद करते हैं। पूरा भाजपा-संघ का तंत्र देश की हर समस्या का मूल नेहरू को साबित करने में जुटा रहता है तो क्या मोदी जी नेहरू से बच्चों के चाचा नेहरू होने का खिताब भी छीनना चाहते हैं? बहुत संभव है मोदी जी सच्चे मन से बच्चों को प्यार करते हों। लेकिन यह समय कोरोना से जंग जीतने की तैयारियों का है। इस महामारी से जंग जीत पाए तभी बच्चों का भविष्य रहेगा, हम रहेंगे, देश रहेगा। और सोचिए कोविड से लड़ाई भी लड़नी है, साथ ही गंभीर आर्थिक संकट से भी दो-चार हाथ करने हैं। चैतरफा अंधकार बढ़ता जा रहा है। 2014 में कोविड नहीं था फिर भी हमारी अर्थव्यवस्था लगातार गिरती चली गई। कहां तो वायदा हर घर को रोजगार देने का था, रोजगार जिनके पास था वह भी हाथ से निकल गया। देश की सीमाएं कभी इतनी असुरक्षित नहीं थी जितनी आज हैं। चीन पूरे एग्रेशन के साथ आगे बढ़ रहा है। गलवान घाटी पर वह डटा हुआ है तो लद्दाख में लगातार सीमा पार उसकी फौजों का जमावड़ा बढ़ रहा है। त्रासदी देखिए हमारा बरसों का भरोसेमंद साथी नेपाल भी हमें आंखें दिखाने लगा है। देश भीतर भी हालात बेहद तनावपूर्ण हैं। जो कोई सरकार की मंशा पर सवाल उठाता है उसे देशद्रोही बताने का चलन बढ़ता जा रहा है। किसान लंबे अर्से में आंदोलनरत् हैं लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही। उद्योग धंधे चैपट हैं। किसी भी सेक्टर को देखिए वहां आपको त्राहिमाम्- त्राहिमाम् सुनाई देगा। अजब यह कि इस गंभीर आर्थिक संकट के समय में भी सेंसेक्स यानी शेयर बाजार लगातार बढ़ोतरी दर्ज कर रहा है। यह अनहोनी है, लेकिन हो रही है। केंद्र और राज्यों के संबंध अपने न्यूनतम पर पहुंच चुके हैं। तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं, चाहे न्यायपालिका हो या फिर चुनाव आयोग, सभी के क्षरण का यह समय है। इसलिए तमाम कोशिश के बाद भी मुझ सरीखे ‘नालायक’ कुछ भी पाॅजिटिव नहीं देख पा रहे हैं। मुझे तो बस याद आ रहा है किशोर दा का एक गीत जो 1972 में रिलीज हुई फिल्म ‘दुश्मन’ का सुपरहिट गीत था। इस गीत को वर्तमान परिदृश्य के साथ तालमेल करके गुनगुनाइएं। शायद अंधभक्ति के मकड़जाल से कुछ निजात मिल जाए-हां… , सच्चाई छुप नहीं सकती/बनावट के उसूलों से कि खुशबू आ नहीं सकती/ कभी कागज के फूलों से !/मैं इंतजार करूं/ ये दिल निसार करूं/मैं तुझसे प्यार करूं/ओ मगर कैसे ऐतबार करूं?/झूठा है तेरा वादा/वादा तेरा वादा/ वादा तेरा वादा/वादे पे तेरे मारा गया/ बन्दा मैं सीधा साधा/वादा तेरा वादा/ वादा तेरा वादा…
वादा तेरा वादा
