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धींगरा को फांसी पर चढ़ाए जाने से ठीक एक दिन पहले 16 अगस्त, 1909 को ‘डेली न्यूज’ में उनका अंतिम वक्तव्य प्रकाशित प्रकाशित हुआ था। यह अद्भुत साहसी और रोमांचकारी बयान है जिसे पढ़कर यह समझा जा सकता है कि गुलाम भारत की संतानें किस कदर ब्रिटिश हुकूमत से त्रस्त थीं और किस हद तक जाकर अपने देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा शक्ति उनमें पैदा हो चुकी थी। धीगरा ने लिखा-‘मैं स्वीकार करता हूं कि मैंने भारतीयों को फांसी चढ़ाए जाने और भारतीय युवाओं को जबरन इग्लैंड से वापस भारत भेजे जाने का बदला लेने के लिए अंग्रेजी खून बहाया है। इस कृत्य को अंजाम देने के लिए मैंने किसी से सलाह-मशवरा नहीं किया, बस केवल अपनी अंतरात्मा की सुनी है। मेरा मानना है कि बंदूक के साए में किसी देश को गुलाम बनाए रखने से युद्ध की स्थिति पैदा हो जाती है। क्योंकि निहत्थे लोग युद्ध नहीं लड़ सकते, इसलिए मैंने खुद अपनी पिस्तौल का इस्तेमाल कर इस कृत्य को अंजाम दिया। एक हिंदू होने के नाते मेरा मानना है कि मेरे देश के साथ अन्याय होना ईश्वर का अपमान करना  है। एक गरीब संतान होने के नाते मैं अपनी मां को अपने खून के सिवा कुछ और अर्पित नहीं कर सकता, इसलिए मैंने अपनी मां (मातृभूमि) को अपने प्राण न्यौछावर कर दिए हैं। उसका उद्धार श्रीराम के लिए किया गया कर्म है। उसकी सेवा श्री कृष्ण की सेवा समान है। भारत और इग्लैंड के मध्य आजादी की लड़ाई रहेगी तब तक जब तक हिंदू और अंग्रेज कौम जिंदा हैं। भारतीयों को समझ लेना होगा कि आजादी पाने के लिए उन्हें प्राणों का बलिदान करना होगा। मैं वही कर रहा हूं।
 
मेरी ईश्वर से केवल एक ही प्रार्थना है कि मुझे दोबारा इसी मां की कोख से जन्म देना ताकि मैं फिर से अपने प्राणों को अर्पित कर सकूं, तब तक जब तक हमारा लक्ष्य हमें न मिल जाए और हमारी मातृभूमि आजाद न हो जाए। वंदे मातरम्।’
 
शहीद मदन लाल धीगरा 17 अगस्त 1909 को फांसी पर लटका दिए गए। उनका पार्थिव शरीर परिजनों को सौंपने के बजाए ब्रिटिश सरकार ने लंदन की पेंटोनविला जेल में ही दफन कर दिया था जिसे 13 दिसंबर, 1976 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अथक प्रयासों बाद भारत लाया गया था और उनका अंतिम संस्कार ससम्मान अमृतसर में किया गया था।
 
4 जुलाई, 1909 को ब्रिटिश सरकार के आदेश के बाद ‘इंडिया हाउस’ पर ताला डाल दिया गया। सरकार का मानना था कि सर कर्जन वायसी की हत्या के साथ-साथ ब्रिटेन में रहकर भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गतिविधियों का संचालन केंद्र ‘इंडिया हाउस’ ही है इसलिए उसे बंद करने का फैसला लिया गया था। नवंबर 1909 में एक बार फिर से ‘अभिनव भारत’ ने ब्रिटिश सत्ता को सकते में डालने का काम कर दिया। वायसराय लॉर्ड मिंटो गुजरात के दौरे पर थे जब उन पर कड़ी सुरक्षा होने के बावजूद बम से हमला किया गया, हालांकि वायसराय इस हमले से बच गए लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने बम फेंकने के आरोपी मोहनलाल पंण्ड्या और सावरकर के सबसे छोटे भाई नारायण राव सावरकर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। यद्यपि कुछ दिनों बाद नारायण राव सावरकर को रिहा कर दिया गया था लेकिन सावरकर के भाई पर ब्रिटिश पुलिस की निगहबानी बनी रही।
 
लंदन में अब सावरकर का रहना मुश्किल होता जा रहा था। ‘इंडिया हाउस’ बंद होने के चलते ‘अभिनव भारत’ की गतिविधियां भी सावरकर अपनी मनमाफिक नहीं संचालित कर पा रहे थे। उनके बड़े भाई गणेश सावरकर आजन्म कारावास की सजा अंडमान निकोबार जेल में काट रहे थे और उनसे किसी भी प्रकार का संपर्क उनके परिवार जनों का हो पाना असंभव था। नारायण राव सावरकर भी ब्रिटिश पुलिस की नजरों में चढ़ चुके थे। इन घटनाओं ने सावरकर को कमजोर करने का काम किया। वे अब लंदन छोड़ने का मन बनाने लगे थे। इस बीच एक और बड़ी घटना को ‘अभिनव भारत’ ने अंजाम दे डाला। गणेश सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उन्हें अपमानित करने और भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत का डर पैदा करने की नीयत से नासिक के जिला कलेक्टर आर्थर मैसन जैक्सन ने उन्हें हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ कर शहर की सड़कों में पैदल घुमाया था। इस अपमान का बदला ‘अभिनव भारत’ से जुड़े एक युवा क्रांतिकारी अनंत राव लक्ष्मण कनहरे ने कलेक्टर जैक्सन की नासिक में चार गोलियां दाग दिन दहाड़े हत्या कर ले लिया। 21 दिसंबर, 1909 को कनहरे ने इस कांड को अंजाम दिया। ब्रिटिश पुलिस ने इस हत्याकांड के आरोप में ‘अभिनव भारत’ के जिन सदस्यों को गिरफ्तार किया उनमें एक नारायण राव सावरकर भी थे। इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी कनहरे और उनके दो साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई। नारायण सावरकर को 6 माह सश्रम कारावास मिला। इस घटना से सकते में आई ब्रिटिश सरकार के जासूस अब चौबिसों घंटे सावरकर के पीछे लगा दिए गए। इस चलते 1910 की शुरुआत में सावरकर लंदन छोड़ पेरिस चले आए। इस दौर में विनायक सावरकर का मनोबल कई कारणों के चलते कमजोर होने लगा था।
 
 
दामोदर के साथियों के मध्य भी उनकी कार्यशैली को लेकर सवाल उठने लगे थे। ‘अभिनव भारत’ के कई सदस्यों ने  मदन लाल धीगड़ा को फांसी मिलने के बाद यह कहना शुरू कर दिया कि सावरकर अपने साथियों को आगे कर इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन खुद कभी सामने नहीं आते हैं।
 
सावरकर ने अपनी निष्ठा और मातृभूमि के प्रति अपने समर्पण भाव को लेकर उठ रहे सवालों से असहज हो पेरिस छोड़ लंदन वापस जाने का निर्णय ले लिया। श्यामजी कृष्ण वर्मा और मैडम भीकाजी कामा ने उन्हें लंदन वापस न जाने की सलाह दी क्योंकि उन्हें आशंका थी कि ब्रिटिश पुलिस कभी भी सावरकर को गिरफ्तार कर सकती है।
 
सावरकर लेकिन नहीं माने। पेरिस में मात्र दो माह और कुछ दिन बिताने के बाद वे 13 मार्च, 1910 को वापस लंदन लौट गए। उन्हें तब तक यही ज्ञात नहीं था कि ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ने संबंधी मुकदमा उनके खिलाफ लंदन में दर्ज हो चुका है और स्काटलैंड यार्ड (लंदन पुलिस) उनकी गिरफ्तारी का वारंट हासिल कर चुकी है। लंदन के प्रसिद्ध विक्टोरिया रेलवे स्टेशन में कदम रखते ही सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। विनायक की गिरफ्तारी के बाद ‘इंडिया हाउस’ के उनके कई सहयोगी उनके खिलाफ सरकारी गवाह बन गए। कइयों ने ब्रिटिश पुलिस के समक्ष स्वीकारा कि सावरकर ने उन्हें बम बनाने की तकनीक सीखने को कहा था। लंदन की एक अदालत में विनायक दामोदर सावरकर पर राजद्रोह के आरोपों को लेकर मुकदमा शुरू हुआ। 12 मई, 1910 को जज ने अपना फैसला सुनाते हुए सावरकर को भारत सरकार के हवाले करने का आदेश दिया जिसे 4 जून, 2010 को लंदन हाईकोर्ट ने बहाल रखते हुए सावरकर की भारत वापसी को फाइनल कर डाला और अंततः 1 जुलाई, 2010 के दिन सावरकर बतौर कैदी एक समुद्री जहाज से भारत के लिए रवाना कर दिए गए।
 
सितंबर, 1910 में बॉम्बे (अब मुंबई) की एक विशेष अदालत में सावरकर पर मुकदमा शुरू हुआ। मुख्य रूप से दो मुकदमें इस अदालत में विनायक दामोदर सावरकर के खिलाफ सुने गए। पहला मुकदमा जिसे ‘नासिक षड्यंत्र’ केस कहा गया, अनंत राव लक्ष्मण कनहरे द्वारा 21 दिसंबर, 1909 के दिन नासिक के कलेक्टर जैकसन की हत्या में विनायक सावरकर की भूमिका को लेकर था तो दूसरा मुकदमा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह का था। इन दोनों मुकदमों में सावरकर को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। उन दिनों अंडमान निकोबार जेल भेजे जाने वाले कैदियों को आजीवन कारावास की सजा 25 बरस की होती थी। सावरकर को दो मुकदमों की मिली सजा अलग-अलग चलाए जाने का आदेश अदालत ने दिया। उन्हें अंडमान भेजे जाने से पहले बॉम्बे की तीन जेलों में कुछ समय के लिए रखा गया था। जब वे डोंगरी जेल (बॉम्बे की एक जेल) में रखे गए तो उन्हें गले में पहनने के लिए एक बैज दिया गया था जिसमें लिखा था ‘1960’। यह उनकी जेल से रिहाई की तारीख थी। 27 जून, 1911 को उन्हें बॉम्बे जेल से कालापानी की सजा काटने के लिए अंडमान भेज दिया गया। अंडमान की जेल कैदियों के साथ बेहद अमानवीय व्यवहार के लिए कुख्यात थी। अंग्रेज जेलर डेविड  बैरी की तुलना यमलोक के जल्लाद से की जाती थी। राजनीतिक कैदी होने के बावजूद डेविड बैरी ने सावरकर के साथ बर्बरतापूर्वक व्यवहार पहले ही दिन से करना शुरू कर दिया था।
 
 
कालापानी की जेल में सावरकर को नया नाम मिला ‘बड़ा बाबू नंबर 7’। बड़ा बाबू जेल के उन कैदियों द्वारा दिया संबोधन था जिन्हें सावरकर ने जेल के नियम और कैदियों के अधिकारों की बाबत जागृत करना शुरू किया था। सात नंबर उनका जेल प्रशासन द्वारा दिया गया नंबर था। कैदियों के साथ जेलर डेविड बैरी जल्लाद की तरह पेश आता था। विनायक सावरकर पर उसकी विशेष ‘कृपा दृष्टि’ रहती थी। सावरकर संग उसने जेल में भीषण अत्याचार किए। उन्हें महीनों तक एकांत कारावास में रखा गया।

क्रमशः

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