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Editorial

‘‘राष्ट्रपति जवाहरलाल की जय’’

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-54

 

प्रतीक्षा करती हुई भीड़ के बीच से तेजी से गुजरते हुए राष्ट्रपति ने सिर उठाकर देखा, उनके साथ उठे और नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए और उनका थकान भरा दृढ़ चेहरा एक मुस्कान से प्रदीप्त हो गया। यह मुस्कान उनकी अपनी भावुकता की परिचायक थी, और जिन लोगों ने उसे देखा, उन पर इसका तुरंत प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी प्रसन्न मुख होकर जय-ध्वनि की।

मुस्कान आई और चली गई और चेहरा फिर कठोर और  उदास हो गया, मानो उस भावना का, जिसे उसने उपस्थित जन-समूह में जागृत किया था, उस पर प्रभाव ही न हो। प्रायः ऐसा प्रतीत हुआ कि उस मुस्कान और उसके साथ की मुद्रा में सच्चाई नहीं है; ये सब जन-समूह की सदिच्छा प्राप्त करने का एक बनावटी ढंग मात्र था, जिसके मन में राष्ट्रपति के प्रति इतनी मुहब्बत थी। क्या वाकई ऐसा था?

जवाहरलाल को फिर से ध्यान से देखिए। एक लंबा जुलूस है और दसियों हजार आदमी उनकी मोटरगाड़ी घेरे हुए, बेसुध-से उनकी जयध्वनि कर रहे हैं वह अपनी मोटर की गद्दी पर, अपने को खूब संभालते हुए सीधे तनक खड़े हो जाते हैं; देखने में लम्बे लगते हैं और एक देवता की भांति शान्त और उस अपार जन-समूह से अविचलित। अचानक फिर वही मुस्कान, या एक उन्मुक्त हंसी दिखती है, तनाव टूटता है और भीड़ भी उन्हीं के साथ हंस पड़ती है- बिना यह जाने कि वह किस बात पर हंस रही है। अब वह देवता-स्वरूप नहीं रह जाते, बल्कि इंसान बन जाते हैं, और जिन हजारों व्यक्तियों के बीच वह घिरे हुए हैं उनसे अपनाते और संग-साथ का रिश्ता कायम करते हैं, और जन-समूह गद्गद हो जाता है और मैत्रीभाव से उन्हें अपने हृदय में स्थान देता है। लेकिन मुस्कान लुप्त हो गई और फिर वही थका-सा लेकिन दृढ़ चेहरा दिखाई पड़ रहा है। यह सब कुछ स्वाभाविक है या एक जननेता का स्वांग मात्र? शायद दोनों ही बातें हैं और लंबे अभ्यास से स्वभाव का रूप ग्रहण कर लिया है। सबसे प्रभावशाली मुद्रा वह है जिसमें मुद्रा का आभास न मिले और जवाहरलाल ने बिना रंग और बुकनी लगाए हुए अभिनय करने की कला खूब सीख ली है। लापरवाही और बेलौसी के दिखावे के साथ वह सार्वजनिक नाट्यमंच पर बड़ा कुशल और कलापूर्ण अभिनय करते हैं। ये सब उन्हें और उनके देश को कहां ले जाएगा? इस अन्यमनस्कता के दिखावे की तह में आखिर उनका उद्देश्य क्या है? इस छद्म मुद्रा के पीछे उनकी क्या इच्छाएं, कैसी शक्ति-लालसा और क्या अतृप्त आकांक्षाएं हैं?

हर हालत में यह प्रश्न मनोरंजन है, क्योंकि जवाहरलाल का व्यक्तित्व ऐसा है कि वह बरबस अपनी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। लेकिन हमारे लिए इन प्रश्नों का गहरा महत्त्व भी है, क्योंकि जवाहरलाल का वर्तमान हिन्दुस्तान और सम्भवतः आने वाले हिंदुस्तान से एक अटूट नाता है और उनमें यह शक्ति है कि वह हिंदुस्तान का बहुत भला भी कर सकते हैं और उतना ही बुरा भी। इसलिए इन प्रश्नों के उत्तर हमें ढूंढने हैं।

करीब दो साल से वह कांग्रेस के सभापति हैं और कुछ लोगों का खयाल है कि वह कांग्रेस की कार्यकारिणी-समिति के पिछलग्गू मात्र हैं और दूसरों के रोक-दबाव में चलने वाले हैं। फिर भी वह अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और जनता के सभी तरह के लोगों पर अपना प्रभाव बराबर दृढ़तापूर्वक बढ़ाते ही जा रहे हैं। वह किसान और कामगार, व्यापारी और फेरीवाले, ब्राह्मण और अछूत, मुस्लिम, सिख, पारसी, ईसाई, यहूदी, इन सब तक पहुंचते हैं, जो कि भारतीय जीवन की विविधता के अंग हैं। जिस भाषा में वह इन सबसे बोलते हैं वह औरों की भाषा से कुछ अलग है और वह सदा इन सबको अपने पक्ष में लाने के प्रत्यन में लगे रहते हैं। इस उम्र में भी वह बड़ी स्फूर्ति के साथ हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में सर्वत्र पहुंचते हैं और सभी जगह अद्भुत लोकप्रियता से उनका स्वागत हुआ है। उत्तर से लेकर कन्याकुमारी तक, विजयी सीजर की भांति उन्होंने यात्रा की है, और जहां-जहां वह गए हैं, उन्होंने अपने यश की कथाएं छोड़ी हैं। क्या यह सब केवल उनका शौक और दिल बहलाव है या इसमें कोई गहरी चाल है, या वह केवल किसी ऐसी शक्ति का खेल है जिसे आप नहीं समझ पाते हैं? अथवा क्या यह उनकी शक्ति-लालसा है, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी ‘आत्मकथा’ में किया है और जो कि उन्हें एक जनसमूह से दूसरे जनसमूह की ओर प्रेरित करती है और उनसे अपने आप चुपके से कहलाती है कि-

‘‘मैंने इन जनधाराओं को अपने हाथों में समेटकर अपनी इच्छा-शक्ति को नक्षत्रों से लिखा है आकाश के आर-पार है।’’

अगर उनकी धुन बदल जाए तो क्या हो? जवाहरलाल जैसे लोगों पर-उनमें बड़े और अच्छे कामों को करने की चाह जैसी शक्ति हो-लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा नहीं किया जा सकता है वह अपने को लोकतांत्रिक और समाजवादी कहते हैं, और इसमें संदेह नहीं कि सच्चे उत्साह से वह ऐसा कहते हैं, फिर भी वह एक मनोवैज्ञानिक जानता है कि मस्तिष्क अंत में हृदय का गुलाम होता है और तर्क को तो सदा घुमाकर मनुष्य की अदम्य प्रेरणाओं से इच्छाओं के अनुकूल बनाया जा सकता है।
तनिक-सी उमेठ काफी है और जवाहरलाल एक तानाशाह बन सकते हैं और धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विधि-विधानों को भुला सकते हैं। लोकतंत्र और समाजवाद की भाषा और नारों को वह भले ही अपनाए रहें, लेकिन हम सभी जानते हैं कि इसी प्रकार की भाषा पर फासिस्टवाद भी पला और पुष्ट हुआ है, और बाद में उसने इसे व्यर्थ के कचरे की भांति अलग फेंक दिया है।

विश्वास और स्वभाव से जवाहरलाल निश्चय ही फासिस्ट नहीं हैं, उनमें भद्रलोक की सहज बुद्धि इतनी पर्याप्त है कि फासिस्टवाद के भोंडेपन और गंवारूपन को वह सहन न करेंगे। उनकी मुखाकृति और स्वर बताते हैं कि ‘‘सार्वजनिक स्थानों पर निजी चेहरे ज्यादा सुंदर दिखते हैं, लेकिन निजी जगहों पर सार्वजनिक चेहरे नहीं।’’ फासिस्ट मुखाकृति एक बनावटी मुखाकृति है और वह घर-बाहर कहीं भी अच्छी नहीं लगती। जवाहरलाल के चेहरे और स्वर में निश्चय ही घरेलूपन है। इस बात में कोई धोखा नहीं हो सकता कि जन-समूह में और सार्वजनिक सभाओं में भी उनके बोलने का ढंग एक आत्मीयता लिए हुए होता हैं ऐसा जान पड़ता है कि वह अलग-अलग व्यक्तियों से निजी और घरेलू ढंग से बातें कर रहे हैं। उनकी बातों को सुनकर और उनके संवेदनशील चेहरे को देखकर मन में कौतूल होता है यह जानने का कि इन सबके पीछे कौन-से विचार और इच्छाएं हैं जो काम कर रही हैं, कैसी जटिल और दबी हुई मनोवृत्तियां, कैसे दमन किए हुए और शक्ति में परिवर्तित आवेग, क्या आकांक्षाएं हैं, जिन्हें कि वह अपने से भी स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकते।

सार्वजनिक भाषण देते समय विचारों का क्रम उन्हें बांधे रहता है, लेकिन दूसरे अवसरों पर उनकी आकृति उनका भेद खोल देती है; क्योंकि उनका मन भटक कर नये क्षेत्रों, नई कल्पनाओं में पहुंच जाता है और एक क्षण के लिए अपने साथ व्यक्ति को भूलकर अपने मस्तिष्क द्वारा कल्पित पात्रों से मानो चुपके-चुपके बातें करने लगते हैं। क्या वह उन मानवी सम्पर्कों के विषय में सोचते हैं जिन्हें कि अपनी जीवन यात्रा में जो कि कठिन और तूफान रही है- उन्होंने खो दिया है, लेकिन जिनकी यादें बनी हुई हैं। या वह एक स्वनिर्मित भविष्य और उसके संघर्ष तथा उसमें प्राप्त विजय का स्वप्न देखते हैं? इतना तो उन्हें जानना चाहिए कि जो रास्ता उन्होंने चुना है, उसमें विश्राम नहीं है, किनारे बैठकर दम लेने का अवसर नहीं है जिसमें विजय-प्राप्ति और अधिक भार डाल देती है; जैसा कि लारेंस ने अरब लोगों से कहा था- ‘विद्रोह का कोई विश्रांति-स्थल नहीं होता, आनन्द की कोई हिस्सेदारी नहीं होती।’ जवाहरलाल के भाग्य में आनन्द शायद न हो, लेकिन यदि भाग्य ने साथ दिया तो जीवनोद्देश्य की प्राप्ति शायद उन्हें हो जाए।

जवाहरलाल फासिस्ट नहीं बन सकते। फिर भी वे सभी संयोग उपस्थिति हैं जिनसे तानाशाह बना करते हैं-महान लोकप्रियता, एक सुनिश्चित उद्देश्य के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, स्फूर्ति, गर्व, संगठन शक्ति योग्यता, कड़ाई और जनता के प्रति उनका चाहे जितना प्रेम हो, उनमें दूसरों के प्रति एक असहिष्णुता है और कमजोरों और अयोग्यों के प्रति तिरस्कार का एक भाव है। उनके क्रोध के आवेगों से लोग भली-भांति परिचित हैं; वह उस पर काबू भले ही पा लें, उनके होंठों की फड़क उनका भेद खोल देती है। काम को पूरा कराने की, जो कुछ नापसंद हो उसे मिटाकर नया निर्माण करने की उनकी प्रगल्भ इच्छा अधिक समय तक लोकतंत्र के धीमी गति से चलने वाले व्यापारों से मेल नहीं खा सकती। बाहरी रूप-रेखा को कायम रखते हुए वह अवश्य अपनी इच्छाशक्ति से उसे झुकाना चाहेंगे। साधारण वातावरण में वह एक सुयोग्य और सफल कार्य-संचालक होने की क्षमता रखते हैं, लेकिन इस क्रांति के युग में तानाशाही आगे खड़ी रहती है और क्या यह संभव नहीं कि जवाहरलाल अपने को एक तानाशाह समझने लगें?

यह बात जवाहरलाल के लिए और हिंदुस्तान के लिए भयावह होगी, क्योंकि तानाशाही के जरिए हिंदुस्तान स्वतंत्रता नहीं प्राप्त कर सकता। एक सुयोग्य और उदार तानाशाही के अधीन वह चाहे थोड़ा-बहुत पनप ले, लेकिन वास्तव में वह दबा रहेगा और उसके निवासियों को गुलामी से उद्धार पाने में विलम्ब हो जाएगा। एक साथ दो बरस तक जवाहरलाल कांग्रेस के राष्ट्रपति रहे हैं और कई प्रकार से उन्होंने अपने को कांग्रेस के लिए इतना जरूरी बना लिया है कि बहुत से लोगों का सुझाव है कि यह तीसरी बार फिर राष्ट्रपति चुने जाएं। लेकिन हिंदुस्तान और खुद जवाहरलाल के हक में इससे बड़ी असेवा न होगी।

उन्हें तीसरी बार चुनकर हम यह दिखाएंगे कि व्यक्ति विशेष को हम कांग्रेस से बड़ा मानते हैं और इस प्रकार हम जनता के विचारों को सीजरशाही के पथ पर प्रवृत्त करेंगे। स्वयं जवाहरलाल में हम गलत प्रवृत्तियों को उभारेंगे और उनकी अहंमन्यता और गर्व को बढ़ावेंगे। उन्हें विश्वास हो जाएगा कि एकमात्र वही इस भार को संभाल सकते हैं या हिंदुस्तान की समस्याओं को सुलझा सकते हैं।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पदों के प्रति जाहिरा तौर पर अपनी बेरुखी दिखाने के बावजूद पिछले सत्रह वर्षों से वह कांग्रेस में एक-न-एक महत्त्वपूर्ण पद थामे रहे हैं। वह सोचने लगेंगे कि उनके बिना लोगों का काम न चलेगा और किसी को भी यह सोचने देना, चाहे वह जितना बड़ा व्यक्ति हो, ठीक नहीं। उनके लगातार तीसरी बार कांग्रेस का राष्ट्रपति बनने में हिंदुस्तान का हित नहीं है।

इस तरह के विचार के लिए एक व्यक्तिगत कारण भी हो सकता है। यद्यपि वह बहादुरी से काम में लगे हैं फिर भी यह स्पष्ट है कि जवाहरलाल थक गए हैं और बासी पड़ गए हैं। और अगर वह राष्ट्रपति बने रहे तो और भी ढल जाएंगे। उन्हें दम मारने का अवसर यों भी नहीं मिल सकता, क्योंकि शेर की सवारी करने वाले को उतरने का मौका कहां मिलती है। फिर भी हम उन्हें गर्व से, बहकने से और बहुत भार तथा जिम्मेदारी में पड़कर मानसिक शक्ति-क्षय से रोक सकते हैं। भविष्य में उनसे अच्छे कामों की आशा रखने का हमें हक है। हमें कोई काम ऐसा न करना चाहिए जिससे इस आशा पर संकट आवे। न हमें उनको ही अति प्रशंसा द्वारा बिगाड़ना चाहिए। उनमें जो भी अहंमन्यता है, बहुत है। उसे रोकना चाहिए। हमें सीजरों (तानाशाहों) की आवश्यकता नहीं है।

क्रमश :
(यह लेख स्वयं नेहरू ने छद्म नाम से अपनी ही बाबत लिखा था जो 1937 में ‘मॉडर्न रिव्यू’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।)

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