‘सुधार मांगती आपराधिक न्याय प्रणाली’ शीर्षक से एक आलेख ‘दैनिक जागरण’ समाचार पत्र में पढ़ने को मिला। इस आलेख के लेखक आईआईटी रुड़की से मैकेनिकल इंजीनियरिंग के स्नातक रह चुके हैं और भारतीय पुलिस सेवा के 2010 बैच के अधिकारी हैं। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के उस गौतमबुद्ध नगर जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैं जहां नोएडा-ग्रेटर नोएडा जैसे हाईटेक क्राइम वाले शहर हैं। वैभव कृष्ण का आलेख और उस पर व्यापक चर्चा समसामयिक है। ऐसा इसलिए क्योंकि तेलंगाना पुलिस द्वारा इन्काउंटर कह ढेर किए गए चार कथित बलात्कार के अपराधियों से लेकर दिल्ली के प्रतिष्ठित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में पुलिस के कैंपस में प्रवेश कर नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे विद्यार्थियों की पिटाई ने देश को साफ-साफ दो कैटेगरी में ला खड़ा किया है। एक वे हैं जो तेलंगाना पुलिस की कार्यवाही से बेहद प्रसन्न हैं, त्वरित न्याय की इस शैली का वे खुलेमन से स्वागत कर रहे हैं, इनमें से अधिकांश नागरिकता संशोधन विधेयक के समर्थन में भी हैं, तो दूसरी तरफ उनकी जमात है जिन्हें तेलंगाना पुलिस का इन्काउंटर फर्जी लगता है और जो इस कथित ‘त्वरित न्याय’ को लोकतंत्र के लिए, लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद चिंताजनक मानते हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जो नागरिकता संशोधन कानून को धर्म विशेष के आधार पर मुल्क को बांटने की साजिश मानते हैं। इन दोनों कैटेगरी में ऐसे भी बहुतायत में हैं जो तेलंगाना से जामिया और जामिया से जेएनयू, आईआईएम, आईआईटी, असम, बंगाल समेत पूरे देश में बढ़ रही बेचैनी को राष्ट्रद्रोह के पैमाने पर रख रहे हैं। ऐसे में एक आईपीएस अधिकारी का पुलिस सुधारों के बरक्स पूरे सिस्टम पर कुछ कहना, बगैर सरकारी अनुशासन की परिधि लांघ, बहुत कुछ ऐसा कह देना जो एक तरफ भारतीय पुलिस बल की कमियों को चिन्हित करता है। तो दूसरी तरफ क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधारों की वकालत करता आलेख हो। तब यह एक गंभीर चिंतन की मांग करता है। तो चलिए कुछ बातें भारतीय पुलिस पर।
आमतौर पर मीडिया के लिए, सिविल सोसायटी के लिए, यहां तक कि न्यायपालिका के लिए भी पुलिस एक ‘स्कैप गोट’ समान है। यानी समाज में यदि अपराध बढ़ रहे हैं, अपराध की सही विवेचना नहीं हो रही, शक्तिशाली, बाहुबली, धनवान आदि के हाथ यदि कानून से लंबे हो चले हैं तो इसके लिए पुलिस को भ्रष्ट, निकम्मी और असंवेदनशील कहना एक दस्तूर बन चुका है। कोई शक नहीं कि पूरे मुल्क का पुलिस बल चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा पर जा पहुंचा है। कोई शक नहीं कि अधिकांश मामलों में, जहां कथित अपराधी, रसूख वाला, धनवान, राजनीतिक रूप से ताकतवर होता है, हमारी पुलिस उसी के साथ खड़ी दिखाई देती है। एक नहीं, दस नहीं, सैकड़ों उदाहरण पुलिस की काहिली, आपराधिक मिलीभगत के मैं दे सकता हूं। जेसिका लाल मर्डर केस, शिवानी शर्मा मर्डर केस, (कु)ख्याति प्राप्त सोहेल इलयासी की पत्नी का मर्डर केस, उड़ीसा का लिलि मर्डर केस, 2003 का हरेन पाण्डया मर्डर केस, 2008 का आरुषि मर्डर केस, 2009 को नोएडा गैंगरेप केस, 2012 का शीना बोरा मर्डर केस, 2016 का बुलंदशहर रेप केस, 2017 का कोठकाही (हिमाचल) रेप व मर्डर केस, 2017 का रयान स्कूल प्रद्युमन ठाकुर मर्डर केस, जस्टिस लोया मर्डर केस, सोहराबुद्दीन शेख इन्काउंटर केस, तुलसी प्रजापति इन्काउंटर केस आदि कुछ मामले जो जेहन में आए, आपके सामने हैं। इन सभी में पुलिस की तहकीकात प्रश्नचिन्हों में कैद रही है। इसमें भी कोई शक-शुबहा नहीं कि हमारे पुलिस बल का चेहरा मानवीय नहीं बल्कि क्रूर है। थाने जाने के नाम पर इस लोकतांत्रिक मुल्क का आम नागरिक सिहर उठता है। अपराध की जांच करने की पहली आवश्यकता, जिसकी बात वैभव कृष्ण ने अपने आलेख में की है, यानी एफआईआर को दर्ज कराना अपने आप में एवरेस्ट फतह करने समान है। अपने दो दशक के पत्रकारीय जीवन में मैंने एक नहीं दसियों दफे आम आदमी संग पुलिस के बर्बर बर्ताव को देखा है। 2005 में नोएडा के ही कासना थाने से तीन गरीब बच्चे गायब हो गए। तीनों कबाड़ बीनने का काम करते थे। बच्चों के मां-बाप गुहार लगा-लगाकर थक गए, लेकिन कोई सुनवाई करने को तैयार नहीं था। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मीडियाकर्मियों तक ने इनकी सुध लेने की जहमत नहीं उठाई। जब हमने पूरे मामले की पड़ताल की तो सामने आया ऐसा वीभत्स कांड जिसने पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा डाला। तीनों बच्चों को नशे में चूर एसएचओ आलोक शर्मा ने मार डाला था। लंबी कहानी है। हो-हल्ला मचा तब जाकर समाजवादी मुलायम सिंह जागे। मुख्यमंत्री थे तब वे उत्तर प्रदेश के। थाना बर्खास्त हुआ। पीड़ित परिवारों को मुआवजा मिला आदि-आदि। यह केवल एक उदाहरण मात्र है। रोजाना देशभर से ऐसी ही खबरें सुनने को मिलती हैं। प्रश्न महत्वपूर्ण यह कि क्या इस सबके लिए पुलिस अकेली दोषी है? मेरी समझ से इस समस्या के मूल में है हमारा, हमारे पूरे समाज का पथभ्रष्ट हो जाना। खुदगर्जी में डूबे रहना। पुलिस को टारगेट करना इसी खुदगर्जी का नतीजा है। क्यों नहीं सिविल सोसायटी, राजनीतिक सत्ता को दबाव में ले पुलिस सुधारों की बात करती? हमारा पुलिस एक्ट 1861 का बना है। अंग्रेजी हुकूमत ने गुलामों पर राज करने की नीयत से जिस एक्ट को बनाया, हम आजादी के बाद भी उसे ही ढो रहे हैं। एक नहीं अनेक बार पुलिस सिस्टम में बदलाव की बात उठ चुकी है। कई आयोग, कई कमेटियां इस मुद्दे पर केंद्र की सरकारें बना चुकी हैं। इन सभी ने पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की सिफारिशें की। सभी ठंडे बस्ते में डाल दी गई। 1977 में बने नेशनल पुलिस कमीशन, 1988 में गठित रेबोरो कमेटी, 2000 में गठित पद्मनाभन कमेटी, 2002 में बनी मासीमथ कमेटी, सुप्रीम कोर्ट के प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार प्रकरण में आदेश आदि सभी की देश की हुकूमतों ने, जिनमें कांग्रेस, भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों की सरकारें शामिल हैं, इन सुधारों को लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई। कारण भी स्पष्ट हैं। यदि इस प्रकार के सुधार लागू कर दिए गए तो पुलिस पर हावी राजनेताशाही कमजोर पड़ जाएगी। इसे कुछ यूं समझिए, यदि 2006 में जारी सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस का राज्यों और केंद्र की सरकार पूरी तरह पालन करने लगे तो पुलिस अफसरों को अपने दबाव में रखने का सबसे मजबूत हथियार हाथ से निकल जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने ‘पुलिस इस्टेबलिशमेंट बोर्ड’, हर राज्य में बनाकर, बोर्ड के जरिए अफसरों की पोस्टिंग करने का, ‘स्टेट सिक्योरिटी कमीशन’ बनाकर ऐसे दिशा-निर्देश तैयार करने की बात कही जिससे पुलिस बल निष्पक्ष हो, बगैर राज्य सरकारों के दबाव में काम कर सके। यह भी अपेक्षा की कि दो वर्ष का फिक्स समय जिले के पुलिस अधीक्षक और थानों के स्टेशन हाउस ऑफिसरों को मिले। इन्वेस्टिगेशन और कानून व्यवस्था के लिए पुलिस बल अलग-अलग हों। केंद्र सरकार ‘नेशनल सिक्योरिटी कमीशन’ बनाकर उसके जरिए केंद्र सरकार के पुलिस बलों में नियुक्तियां करे आदि। सुप्रीम कोर्ट ने जांच-पड़ताल के लिए अलग पुलिस और कानून व्यवस्था के लिए अलग पुलिस बल का महत्वपूर्ण सुझाव दिया। अपने आलेख में वैभव कृष्ण भी इसकी वकालत कर रहे हैं। जाहिर है हमेशा कानून व्यवस्था में उलझे रहने वाले पुलिसकर्मी भला कैसे शांत चित्त से किसी साइबर क्राइम या मर्डर, रेप आदि की जांच कर सकते हैं। पुलिसकर्मियों के वर्किंग आवर्स पर भी ध्यान देने की जरूरत है। आप कैसे अठारह-अठारह घंटे थानों में रहने वाले पुलिसकर्मियों से संवेदनशीलता की उम्मीद कर सकते हैं? न रहने को ढंग के आवास हैं, न ही थानों में आराम करने के लिए कोई व्यवस्था। ऊपर से तुर्रा यह कि कभी कोई पुलिस अफसर या पुलिसकर्मी ऊंधता मिल जाए तो उसकी तस्वीर मीडिया में, सोशल मीडिया में, उसके पूरे चरित्र का चीरहरण करती वायरल हो जाती है। साइबर क्राइम के बढ़ते दौर में पुलिस ट्रेनिंग का हाल बदहाल है। नब्बे प्रतिशत पुलिस फोर्स आज भी इस मामले में अनपढ़ समान है। हर जिले में फोर्स का एक बड़ा हिस्सा कथित माननीयों की सुरक्षा व्यवस्था में लगा रहता है। पुलिस संरक्षण आवश्यकता नहीं स्टेट्स सिंबल बन चुका है। वरिष्ठ पुलिस अफसरों के यहां खाना बनाने से लेकर, सब्जी- दूध लाने का काम करते कॉन्स्टेबल से भला आप किस प्रकार की कर्तव्य निष्ठा की उम्मीद रख सकते हैं? सत्तारुढ़ दल के छुटभैय्ये नेता एसएसपी, डीएम को जब आदेशात्मक शैली में बात करने के लिए स्वतंत्र हों तब भला कैसे पुलिस निष्पक्ष काम कर सकती है? हालात इतने खराब हैं कि एक समय में जो घोषित अपराधी होते हैं, राजनीतिक संरक्षण पा माननीय हो जाते हैं। कल्पना कीजिए जब ऐसों की सुरक्षा में, प्रोटोकॉल में पुलिस अफसरों को जाना पड़ता है, तब उनके मनोबल पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा? उत्तर प्रदेश के कुख्यात बाहुबली डीपी यादव इसके जीते जागते उदाहरण हैं। नब्बे के दशक में यूपी पुलिस के वे वॉन्टेड अपराधी थे। समाजवादी कहलाए जाने वाले मुलायम सिंह ने उन्हें न केवल संरक्षण दिया, बल्कि विधायक-मंत्री तक बना डाला। नोएडा में तैनात एक पुलिस अधीक्षक ने एक दिन मुझे अपनी व्यथा सुनाई कि कैसे कभी उन्होंने डीपी यादव से उठक-बैठक लगवाई थी और फिर कैसे उसी डीपी यादव को बनारस में तैनाती के दौरान उन्हें सैल्यूट करना पड़ा था, क्योंकि मुलायम सिंह की कृपा के चलते तब डीपी मंत्री बन चुके थे। ऐसे एक नहीं असंख्य मामले हैं जहां दुर्दांत अपराधी खादी पहन संसद और विधानसभा पहुंच गए हैं। अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग को ही ले लीजिए। सत्ता के दलाल हर समय अपने पसंदीदा अफसरों की लिस्ट लिये मुख्यमंत्री कार्यालय में, पार्टी मुख्यालयों में फिरते आप पा सकते हैं। अफसरों के ये लाडले होते हैं, क्योंकि मनचाही पोस्टिंग पाने के लिए इनका सहारा वे लेते हैं, बदले में नाना प्रकार से उन्हें उपकृत करते हैं, उपकृत होते हैं। कैसी त्रासदी है जिनसे निष्पक्ष होकर काम करने की अपेक्षा देश का संविधान करता है, देश का निजाम उन्हें भ्रष्टाचार के दलदल में धकेल देता है। कुछ समय तक देशभक्ति के भाव हिलोरे लेते हैं, बाद में ऐसे ही इसी भ्रष्ट व्यवस्था का मजबूत अंग बन जाते हैं। यदि कलक्टर और कप्तान को हर प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त हो कम से कम दो बरस तक काम करने का मौका मिल जाए तो देखिए कितने अशोक खेमका और संजीव चतुर्वेदी बन उभरते हैं।
बहरहाल, इस सबसे इतर देशभर में मच रहे बवाल और तेलंगाना पुलिस के कथित इन्काउंटर पर अपने स्टैंड को रखना बेहद जरूरी है ताकि सनद रहे कि जब देश जल रहा था तब हम मूकदर्शक रह, हुकुमत के चारण भाट नहीं बने रहे थे। तेलंगाना पुलिस के इन्काउंटर पर सुप्रीम कोर्ट एक कमेटी गठित कर चुका है इसलिए उसकी रिपोर्ट का इंतजार रहेगा ताकि सच सामने आ सके। ‘त्वरित न्याय’ पर जश्न मनाने वालों पर बस इतना ही कि इस प्रकार के न्याय से लोकतंत्र की नींव खोखली होती है। यदि ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जाएगा तो आने वाले समय में ये भष्मासुर हो उठेंगी। रही बात नागरिकता कानून में संशोधन का तो यह संविधान अनुसार कतई नहीं है। यह धर्म के आधार पर एक पूरी कौम को संदेह के घेरे में रखने का, धर्म के आधार पर देश में बगैर भौगोलिक बंटवारा किए बंटवारे की रेखा खींचने की तरफ उठा ऐसा कदम है जिसके परिणाम कतई भी समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष की अवधारणा विरुद्ध है।