इन अराजक तत्वों ने लालकिला में ‘निशान साहिब’ का झंडा क्या फहराया गोदी मीडिया ने पूरे आंदोलन को देशद्रोही करार दे डाला। भला हो राकेश टिकैत का कि 27 जनवरी को लगभग खत्म हो चुके आंदोलन में उन्होंने जान फूँद दी। टिकैत के रोने ने पूरे देश की अंतरआत्मा को झकझोर दिया। 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दगों बाद इस क्षेत्र का किसान हिंदू और मुसलमान में बंट चुका था। अब लेकिन टिकैत के आंसुओं ने किसानों के मट्टय पनपी इस खाई को पाट डाला है। किसान महापंचायतों में उमड़ रही भीड़ धर्म और जाति में बंटी नजर नहीं आ रही है। वह केवल और केवल किसान हैं
‘उत्तराखण्ड राज्य गठन के ठीक एक बरस बाद ‘दि संडे पोस्ट’ का जन्म हुआ था। उत्तराखण्ड अपने गठन के 21वें वर्ष में तो ‘दि संडे पोस्ट’ 20वें बरस में प्रवेश कर चुका है। इन दो दशकों में ऐसा पहली बार हुआ कि कोरोना के चलते कई अन्य समाचार पत्रों की तरह इस अखबार का प्रकाशन भी प्रभावित हुआ। पूरे 11 महीने अखबार की निरंतरता बाधित रही। कोरोना संकट के दौरान जब रेल, बस सेवाएं बंद कर दी गई और पूरे देश में लाॅकडाउन लग गया तब अखबार का प्रसारण न्यूनतम करने के सिवाय हमारे पास और कोई रास्ता था नहीं। ऐसे में काम आया हमारा न्यूज पोर्टल www.thesundaypost.in जिसके जरिए हम पूरे संक्रमणकाल में अपने पत्रकारीय दायित्यों का निर्वहन करते रहे। चूंकि सारा फोकस इस पोर्टल पर रहा तो इसका फायदा भी हमें मिला। अब इसकी पहुंच न केवल उत्तराखण्ड बल्कि पूरे देश में ज्यादा हो चली है। हमारे ई-पाठकों की सख्या 26 लाख के करीब है। और अब एक बार फिर से प्रिंट संस्करण आपके हाथों में है। मुझ सरीखों के लिए प्रिंट का खासा महत्व है। भले ही आज दुनिया तेजी से बदल चुकी है, नई पीढ़ी समाचार पत्रों से दूर इलेक्ट्राॅनिक माध्यम के ज्यादा करीब है, मेरे जैसों की दिनचर्या में तो अखबार का महत्व कभी समाप्त हो नहीं सकता।
मुझे पूरा विश्वास है ऐसे सभी पाठक ‘दि संडे पोस्ट’ का प्रिंट संस्करण पा अवश्य प्रसन्नचित होंगे। बहरहाल इन 11 महिनों में देश-विदेश में बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों पर, सार्वजनिक जीवन की शुचिता पर, और सबसे बढ़कर मानवीय सरोकारों पर जमकर आघात कर डाला है। अपने मुल्क में इस पूरे काल में सत्ता का अंहकार अपने चरम पर पहुंचता हम सबने देखा। कोरोना संक्रमण के चरम् काल में आहूत संसद सत्र में केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को दोनों सदनों से पारित करा डाला। विपक्षी दलों ने अपनी सीमित संख्या बल के आधर पर जितना विरोध कर सकते थे, उससे कहीं अधिक विरोध उन्होंने लोकसभा और राज्यसभा में किया लेकिन बहुमत के मद से इतराई केंद्र सरकार ने एक न सुनी। सितंबर-2020में तीन कृषि कानूनों में संशोधन किया गया था। 28 सितंबर को राष्ट्रपति ने इन तीनों संशोधनों पर हस्ताक्षर कर इन्हें कानूनी जामा पहना डाला।
किसान इन कानूनों के विरोध पर सड़क पर उत्तर आये। 25 सितंबर को भारत बंद का आह्वाहन किसान संगठनों ने किया जिसका व्यापक असर, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिला। केंद्र सरकार लेकिन इससे कत्तई प्रभावित जब नहीं हुई तो किसान संगठनों ने 25 नवंबर को ‘दिल्ली चलो’ अभियान की शुरुआत कर डाली। किसानों की इस जिद्द से नाराज केंद्र सरकार ने पुलिस बल का प्रयोग किया। किसानों पर लाठी, आंसू गैस, वाटर कैनन का इस्तेमाल हुआ जिसमें तीन किसानों की मौत हो गई। किसान दिल्ली की सीमा पर ही जम गए। केंद्र सरकार ने उन्हें दिल्ली के बुराड़ी मैदान में धरना-प्रर्दशन करने को कहा लेकिन वे राजधानी के केंद्र जंतर-मंतर पर बैठने को लेकर अड़ गए। तब से लगातार वे धरने पर, दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं। केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच एक दर्जन बार वार्ता हो चुकी है लेकिन नतीजा सिफर यानि जीरो रहा है। किसान तीनों कानूनों की पूरी वापसी पर अड़ चुके हैं जिसके लिए केंद्र सरकार राजी नहीं हो रही है। 26 जनवरी के दिन जो कुछ हुआ उसे पूरे देश ने देखा। किसानों ने इस दिन टैªक्टर रैली निकाली। इस रैली में कुछ अराजक तत्व घुस आये जिनका मकसद इस आंदोलन की छवि खराब करना मात्र था। इन अराजक तत्वों ने लालकिला में ‘निशान साहिब’ का झंडा क्या फहराया गोदी मीडिया ने पूरे आंदोलन को देशद्रोही करार कर डाला। भला हो राकेश टिकैत का कि 27 जनवरी को लगभग खत्म हो चुके आंदोलन में उन्होंने जान फंूक दी। टिकैत के रोने ने पूरे देश की अंतरआत्मा को झकझोर दिया। 2013 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दगों बाद इस क्षेत्र का किसान हिंदू और मुसलमान में बंट चुका था। इन दगों में 42 मुसलमान और 20 हिंदू मारे गए थे। तत्कालीन सपा सरकार ने इन दंगों का मुख्य आरोपी भाजपा विधायक संगीत सोम को बताया था। इन दगों ने किसान को, किसानी को, इस क्षेत्र की सामाजिक सरंचना को गहरे प्रभावित करने का काम किया। 2017 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में इसका बड़ा असर देखने को मिला था। पहली बार इस क्षेत्र के बहुसंख्यक जाट समुदाय ने अपने नेता चैधरी चरण सिंह को त्याग एक मुश्त भाजपा को वोट दिए जिसका नतीजा चैधरी के बेटे अजीत सिंह की राजनीति पर पड़ा। इस इलाके में कभी एकछत्र राज करने वाली उनकी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। अब लेकिन टिकैत के आंसुओं ने किसानों के मध्य पनपी इस खाई को पाट डाला है। किसान महापंचायतों में उमड़ रही भीड़ धर्म और जाति में बंटी नजर नहीं आ रही है। वह केवल और केवल किसान हैं । बहरहाल प्रधनमंत्री मोदी और उनकी सरकार का हठ कायम है। पीएम बजट सत्र के दौरान राज्यसभा में कह चुके हैं कि कानून बने रहेंगे किसान को उन्होंने सलाह भी दे डाली है कि व्यर्थ का आंदोलन छोड़ वापस खेतों में लौट जाओ क्योंकि कानून उनके हित के लिए ही बने हैं।
दूसरा बड़ा संकट इस कोरोना काल में सरकारों का लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति पूरी तरह असहिष्णु होना रहा है। पत्रकारों की कलम, पत्रकारों के कीबोर्ड जरा से सरकार के खिलाफ क्या उठे तत्काल मुकदमे, वह भी राजद्रोह के दर्ज किये जाने लगे हैं। गिरफ्तारियां हो रही हैं। सरकारें चाहे केंद्र की हों या राज्यों की, स्पष्ट इशारा कर रही हैं कि उन्हें अपने विरोध में उठ रहे शब्द और स्वर कत्तई बर्दास्त नहीं हैं। अंतराष्ट्रीय फलक पर इस दौरान हमने विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र को सहमा हुआ देखा। अमेरिकी इतिहास में पहली बार संसद बंधक होने का नजारा पूरे विश्व ने देखा। अफ्रीकी देशों में नरसंहार, हांगकांग में चीनी अत्याचार, रूस में पुतिन का कहर, चीन में मुस्लिम नरसंहार, क्या- क्या गिनाया जाए। संक्षेप में पूरा विश्व तानाशाही ताकतों की जकड़, तानाशाहों की पकड़ में नजर आता है। ऐसे काले समय में एक बार फिर से अपने जनसरोकारी तेवरों के साथ आपका प्रिय अखबार आपके हाथों में है। इस संकल्प के साथ कि अब हमारे तेवर ज्यादा तेज, ज्यादा धारदार होंगे। हम लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के प्रति अपने मूल्यों में रंचमात्र भी क्षरण आने नहीं देंगे।
अजब इत्तेफाक है, वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान के बेहद करीबी कहे-समझे जाने वाले दो बड़े उद्योगपतियों को मानो खबर थी कि कøषि कानूनों में बदलाव होगा। इन दोनों उद्योगपतियों मुकेश अंबानी और गौतम अडानी ने 2017 से ही बड़े स्तर पर कøषि क्षेत्र में इन्वेस्टमेंट करने की शुरुआत कर दी थी। मुकेश अंबानी ने अंग्रेजी समाचार पत्र ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के एक कार्यक्रम में यह बात कही थी तो गौतम अडानी ने भी फूड काॅरपोरेशन आॅफ इंडिया के साथ मिलकर अनाज भंडारण के गोदाम खोलने शुरू कर दिए हैं। अडानी-अंबानी की निकटता प्रधानमंत्री मोदी संग जग जाहिर है। यह भी सर्वविदित है कि इन दोनों की आधिपत्य नीति लगातार विस्तार पा रही है। यही कारण है कि किसान इन कøषि कानूनों को काला कानून कह रहा है। ऊपरी तौर पर भले ही यह किसानों के पक्ष में बनाए गए, किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य दिलाने के लिए बनाए गए कानून नजर आते हों, इस आशंका को इग्नौर नहीं किया जा सकता है कि धीरे-धीरे सरकारी मंडियां समाप्त हो जाएंगी और किसान पूरी तरह से व्यापारियों की कठपुतली बन जाएगा। सरकार, यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री संसद में कह रहे हैं कि न्यूनतम मूल्य प्रणाली (एमएसपी) की व्यवस्था बनी रहेगी। लेकिन इसे कानून का हिस्सा बनाए जाने पर उनकी खामोशी किसान को डरा रही है। वह समझ चुका है कि मौखिक आश्वासन, भले ही स्वयं पीएम क्यों न दे रहे हों, कोई मायने आज के परिदृश्य में नहीं रखते हैं। ऐसा परिदृश्य जिसमें राजनेताओं की नैतिकता और विश्वसनीयता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। यह निश्चित ही बेहद खेदजनक और चिंताजनक बात है लेकिन इसके लिए जिम्मेदार राजनेता ही हैं जो दशकों से आम जनता को अपनी लोक-लुभावनी बातों से ठगते आ रहे हैं।
चलते-चलते किसान आंदोलन से एक आस जो अन्ना आंदोलन की विफलता के चलते पूरी तरह समाप्त हो चली थी, फिर से सिर उठा चुकी है। भले ही प्रधानमंत्री आंदोलन को, आंदोलनकारियों को हिकारतभरी नजरों से देखें, उनके लिए नया जुमला ‘आंदोलनजीवी’ इजाद करें, इस देश से लोकतंत्र को जितना मिटाने का प्रयास होगा, उतना ही जोरदार उसका प्रतिरोध भी होगा। यह किसान आंदोलन के चलते जगी आस है। कवि दुष्यंत कुमार ने लिखा:
…जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुल्लंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैंने वहां भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किए
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊंगा?
तुम मुझको दोषी ठहराओ
मैंने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊंगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझ पर गोलियां चलाओ
मैं मर जाऊंगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूंगा
कल फिर आऊंगा।