मेरी बात
बाईस अगस्त, 2022 के दिन मुस्लिम समाज के पांच महत्वपूर्ण लोग संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने दिल्ली स्थित संघ के दफ्तर गए। ये पांच व्यक्ति थे भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पत्रकार शाहिद सिद्दीकी, व्यवसाई शहीद शेरवानी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ले.जनरल (से.नि.) जमीरउद्दीन शाह। इन पांच की मोहन भागवत संग मुलाकात ने नाना प्रकार की अटकलों को जन्म देने का काम कर डाला। इसके ठीक एक माह बाद 22 सितंबर को भागवत कस्तुरबा गांधी मार्ग, नई दिल्ली स्थित एक मस्जिद जा पहुंचे जहां उन्होंने अखिल भारतीय इमाम संगठन के मुखिया उमर अहमद इल्यासी संग मुलाकात की। यह मुलाकात ऐसे समय में हुई जब केंद्रीय एजेंसियां कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के दफ्तरों में लगातार छापेमारी में कर रही हैं और उसके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर चुकी हैं। इन एजेंसियों के अनुसार यह संगठन देश-विरोधी आतंकी गतिविधियों में शामिल है। बहरहाल संघ प्रमुख की अल्पसंख्यक समाज के बीच जाना इन दिनों बढ़ी चर्चा का विषय है तो कुछ चर्चा इस पर।
एस.वाई. कुरैशी ने इस मुलाकात का पूरा विवरण देते हुए अंग्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में एक आलेख लिखा है- ‘Why we met the RSS chief’ (हम संघ प्रमुख से क्यों मिले)। बकौल कुरैशी अनुसार इस मुलाकात का उद्देश्य मुस्लिम समाज में व्याप्त असुरक्षा की भावनाओं से जुड़ा है, जिसका समाधान केवल बातचीत के जरिए ही संभव है। कुरैशी लिखते हैं कि जिस दिशा में समाज आगे बढ़ रहा है, मॉब लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं और उग्र हिंदुवादी नरसंहार की बात करने लगे हैं, हमने उससे मुस्लिम समाज में फैले भय और असुरक्षा की भावनाओं का जिक्र संघ प्रमुख से किया। संघ प्रमुख ने भी अपनी बात इन पांच बुद्धिजीवियों के सम्मुख रखी। भागवत का कहना था कि हिंदुत्व सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखता है। देश तभी तरक्की कर सकता है जब सभी समाज एकजुट हों। एक महत्वपूर्ण बात भागवत ने संविधान के विषय में कही। उन्होंने संविधान को ‘सबसे पवित्र’ करार देते हुए इन पांच मुस्लिमों से कहा कि सभी को संविधान अनुसार आचरण करना होगा। संघ द्वारा संविधान को दरकिनार करने की सभी आशंकाओं को उन्होंने निराधार करार दिया। भागवत ने कहा कि हिंदुओं के लिए गाय का दर्जा मां का है जिसे अन्य धर्मों के अनुयायियों को समझना चाहिए। पांचों मुस्लिम बुद्धिजीवी भागवत के कथन से सहमत हैं कि मुसलमानों को स्वयं आगे बढ़कर गौमांस छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। भागवत ने यह भी कहा कि हिंदुओं को ‘काफिर’ कहा जाना आपत्तिजनक है। अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है नास्तिक। कुरैशी लिखते हैं ऐसा बड़ी आसानी से मुसलमान कर सकते हैं क्योंकि कुरान में भी यह नहीं कहा गया है। कुरान में यह भी स्पष्ट कहा गया है कि तुम अपने धर्म अनुसार आचरण करो, दूसरे को उसके धर्म अनुसार आचरण करने दो। इन पांचों ने अपनी बात संघ प्रमुख के सामने रखते हुए कहा कि मुसलमानों को ‘जेहादी’ और ‘पाकिस्तानी’ कह पुकारा जाना गलत है जिस पर भागवत का उत्तर था ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए और इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। इस प्रकार के संवाद की निरंतरता बनाए रखने पर दोनों पक्षों के मध्य सहमति भी बनी। इस मुलाकात ने मीडिया में जमकर सुर्खिंयां बटोरी। राजनीतिक विश्लेषकों और टीवी चैनल के एंकरों ने अपनी समझ और विचारधारा अनुसार इस मुलाकात का पोस्टमार्टम किया। अभी यह सब चल ही रहा था कि भागवत 22 सितंबर को दिल्ली की एक मस्जिद अपने वरिष्ठ साथियों कृष्ण गोपाल, रामलाल एवं इंद्रेश कुमार के साथ जा पहुंचे। आधिकारिक तौर पर इसे इल्यासी के पिता की बरसी पर आयोजित कार्यक्रम बताया गया। अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख उमर अहमद इल्यासी भागवत के आगमन से इस कदर गद्गद और भावुक हो गए कि उन्होंने संघ प्रमुख को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा दे डाला। हालांकि भागवत ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए स्पष्ट कर दिया कि इस देश में केवल एक ही राष्ट्रपिता हुए हैं और वह हैं महात्मा गांधी, बाकी सभी देश के संतानें हैं।
मुस्लिम समाज से जुड़ने की यह कवायद क्या वाकई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच में बदलाव का संकेत हैं? या फिर इसके कुछ अलग ही निहितार्थ हैं? मैं समझता हूं यह सब तात्कालिक परिस्थितिजनक ऐसी कवायद मात्र है जिससे कुछ विशेष हासिल नहीं होने वाला। संघ के दूसरे प्रमुख एवं सबसे महत्वपूर्ण मार्गदर्शक गोलवरकर आज भी संघ की दिशा और सोच को प्रभावित करते हैं। गोलवरकर भारत को केवल हिंदुओं का देश मानते थे। उनके कहे को संघ भीतर अक्षरशः मानने की परंपरा रही है। गोलवरकर के विचारों का संकलन ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’ पुस्तकाकार संघ द्वारा प्रकाशित है। 1938 में संघ के स्वयं सेवकों को संबोधित करते हुए गोलवरकर ने कहा था ‘भारत वर्ष में हिंदू समाज हजारों वर्षों से रह रहा है। यहां कुछ विधर्मी समाज भी आ बसे हैं। लेकिन यहां के मूल समाज के साथ आत्मसात न होते हुए वे अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए हैं। इसके पीछे उनका उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। जबकि यहां के मूल रहवासी हिंदू अपना लाभ तो दूर, देश में उनकी जो स्थिति है, उसे भूलकर दूसरों के फायदे के लिए अधिक सोचते हैं। इन अन्य विधर्मी समाजों ने हिंदू समाज को नष्ट करने के लिए कई प्रयत्न किए, परंतु उसकी जड़ें गहराई तक होने के कारण वह अब तक बचा हुआ है। .. ़राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई होती है। जब किसी जनसमूह की ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परंपराएं एक हों, तब वह राष्ट्र कहलाता है। राष्ट्र के लोगों में जो समान भाव-भावनाएं, इच्छा-आकांक्षाएं होती हैं, वे बाहर से आए लोगों में नहीं हो सकती, क्योंकि उनके संस्कार भिन्न होते हैं। एक देश में रहने वाले ऐसे लोग ही उसकी विचारधारा को समझ सकते हैं और उसके अनुसार व्यवहार कर सकते हैं। इसलिए हिंदुस्तान में हजारों वर्षों से रहते आए लोग, जिन्होंने इस देश का इतिहास बनाया है, इस राष्ट्र के पुत्र या स्वामी हो सकते हैं, परंतु आक्रमक के रूप में बाहर से आए अन्य लोग नहीं। अंग्रेजों के द्वारा शासित राज्य में रहने वाले लोग एक राजनीतिक इकाई के अंतर्गत माने जा सकते हैं, लेकिन उनको लेकर एक राष्ट्रजीवन बन सकेगा क्या?..़बाहरी आक्रमकों और हिंदुओं में समानता कैसे हो सकती है?’
स्पष्ट है कि गोलवरकर के आर्दशों पर चलने वाले संघ की दृष्टि में मुसलमानों का दर्जा आक्रमक का था। क्या अब यह दर्जा बदल गया है? और क्या अब संघ मुसलमानों को बाहरी नहीं मानता है? इन प्रश्नों का उत्तर यदि संघ प्रमुख साफ-साफ दें तो बात कुछ समझ में आती है, अन्यथा ऐसी मुलाकातों से कुछ ठोस हासिल होने के आसार बेहद कम हैं। स्मरण रहे संघ इस प्रकार की मुलाकातें और मुस्लिम समाज में अपनी पैठ बनाने का कार्य लंबे अर्से से करता आया है। संघ के भीतर एक संगठन तक ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ के नाम से है जिसका जिम्मा हाल-फिलहाल वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार के हवाले है। ज्ञानव्यापी मस्जिद विवाद पर भागवत जी का बयान भी काबिल-ए-गौर है जिसमें उन्होंने हिंदुओं से हर मस्जिद में शिवलिंग पाए जाने की प्रवृत्ति से बचने को कहा था। प्रश्न उठता है कि संघ प्रमुख के बयान और उनकी मुस्लिम समाज से जुड़ने के प्रयासों का संघ के गर्भ से निकली भाजपा द्वारा शासित राज्यों में कितना असर देखने को मिलता है? मेरी दृष्टि में ऐसा होता नजर नहीं आता है। भाजपा शासित राज्यों में जिस प्रकार से सी.ए .ए और एन.आर.सी. को लेकर शुरू हुए आंदोलनों को दबाया गया, जिस प्रकार दिल्ली में 2021 के दंगों के दौरान एकतरफा कार्यवाही केंद्र सरकार की अधीनस्थ दिल्ली पुलिस ने की, उससे न केवल भाजपा की मुस्लिमों के प्रति भावना का सही परिचय मिलता है बल्कि जिस संविधान को संघ प्रमुख ‘सबसे पवित्र’ करार देते है, उसके प्रति भी इन राज्यों की सरकारों का रवैया दुराग्रह पूर्ण स्पष्ट झलकता है। गोलवरकर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘बाहर से आए समाजों ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखा है।’ संघ को इसी अलग अस्तित्व से परहेज है। वह चाहता है कि मुसलमान अपनी इस अलग पहचान को हिंदुत्व संग मिला ले ताकि संघ की दृष्टि में जो भारतीय होने की सही कसौटी है, उस पर खरा उतर जाएं। तब प्रश्न उठता है कि भागवत क्योंकर अचानक ही मुसलमान बुद्धिजीवियों से वार्त्ता करने लगे हैं, मस्जिद तक जाने से उन्हें कोई गुरेज नहीं रह गया है? शायद ऐसा इसलिए क्योंकि 2014 के बाद से ही भारत में अल्पसंख्यकों की दयनीय होती स्थिति पर अब विश्वभर में बेचैनी बढ़ने लगी है। पैंगबर मोहम्मद पर एक भाजपा नेता के अनावश्यक और आपत्तिजनक बयानों बाद खाड़ी के देशों की नाराजगी भारतीय हितों के लिए घातक हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसको लेकर भारत सरकार और भाजपा की खासी लानत-मलानत हुई है। मुख्यधारा के भारतीय मीडिया को अब अंतरराष्ट्रीय फलक पर भी गोदी मीडिया कह पुकारा जाने लगा है। प्रधानमंत्री मोदी की छवि भी इससे खासी धूमिल हुई है। शायद संघ प्रमुख का ‘मुस्लिम प्रेम’ इसी चलते समाने आ रहा है। आगे भी इस प्रकार के संवाद दोनों समुदायों में होने की पूरी संभावना है जिसमें संघ की प्रमुख भूमिका रहनी तय लगती है। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज और देश में ऐसा होना भी चाहिए, होना ही चाहिए। स्वस्थ संवाद के जरिए बड़े से बड़ा मुद्दा हल किया जा सकता है। शर्त सिर्फ इतनी कि ऐसे संवाद बगैर किसी पूर्वाग्रह के आयोजित हों जिसमें दोनों ही पक्ष अपनी बात एक-दूसरे को समझाने का ईमानदार प्रयास कर, कुछ समझौते कर, एक निष्कर्ष तक पहुंचे। कुरैशी ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखे अपने आलेख में इसी तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि ‘काफिर’ जैसी शब्दावली और गाय के मुद्दे पर मुसलमानों को हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करना ही चाहिए। क्या कट्टरपंथी मुसलमान अपने इन बुद्धिजीवियों की बात समझेगा? और क्या कट्टरपंथी हिंदू संघ प्रमुख के कहे की बात रखेगा कि हरेक मुसलमान को ‘जेहादी’ और ‘पाकिस्तानी’ कहने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी? ऐसा संभव है लेकिन तभी जब संघ भी ईमानदारी से प्रयास करे, मुसलमानों को ‘आक्रमक समाज’ मानने की प्रवृत्ति त्यागे और मुसलमानों के रहनुमा भी अपनी कट्टरपंथी राजनीति से बाज आएं और मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के समाधान की दिशा में अपनी ऊर्जा का प्रयोग करें। दोनों ही संभावनाएं लेकिन ऐसी संभावनाएं हैं जिनका हकीकत में तब्दील होना लगभग असंभव-सा नजर आ रहा है। जो काम गांधी नहीं कर पाए, वह काम कैसे और कौन करेगा? आज के राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य में तो दूर-दूर तक ऐसा कोई नजर आता नहीं, शायद भविष्य में कोई ऐसा सामने आए जो इस असंभव को संभव कर दिखाए। शायद!