पुरानी कहावत है – ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। शायद आचार्य चाणक्य का यह कथन है। चाणक्य कहते हैं – अति रूपेण वै सीता, अतिगर्वेण रावणः, अतिदानाद् बलिर्बद्धो, ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्। सीता अति सुंदर थी जो उनके रावण द्वारा हरण का कारण बना। रावण अति अहंकारी था इसलिए उसका सर्वनाश हुआ। राजा बाली अति दानशील थे जिसके चलते वे बंधक बने इसलिए अति को त्यागना जरूरी है। पिछले सात बरसों के दौरान हमने यानी भारतवर्ष ने, हिंदुस्तान ने, इंडिया ने इस ‘अति’ को देखा-भोगा है, देख-भोग रहे हैं। सात बरस, ठीक सात बरस पूर्व, 26 मई, 2021 को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी बैठे थे। पहाड़ों से, हिमालय से कहीं ऊंची जनअपेक्षाओं के साथ। अन्ना आंदोलन, यूपीए शासन की विफलताएं, चैतरफा भ्रष्टाचार और मीडिया का बेहतरीन मैनेजमेंट नरेंद्र मोदी को इस कुर्सी तक पहुंचाने, राष्ट्रीय स्तर पर एक ‘परफाॅरमिंग एवं प्रोमिसिंग’ नेता के बतौर स्थापित करने वाले महत्वपूर्ण कारक बने। नरेंद्र मोदी ‘परसेप्शन’ यानी ‘अनुभूति’ की महिमा को इस सफलता और इससे पहले गुजरात का 12 साल तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान भलीभांति समझ चुके थे। वे जान चुके थे कि ‘भीड़तंत्र’ वाले लोकतंत्र में परफाॅरमेंस से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है ‘परसेप्शन’। घर-घर अनाज पहुंचे या न पहुंचे, कानून-व्यवस्था सुधरे या बिगड़े, आत्मनिर्भरता बढ़े या रसातल में पहुंचे, अर्थव्यवस्था बढ़े या घटे, रोजगार बढ़े या बेरोजगारी बढ़े, विकास हो या न हो, भीड़तंत्र में भीड़ को सपनों की अफीम परसी जानी चाहिए ‘परसेप्शन’ बनाया जाना चाहिए कि ‘आॅल इज वेल’। यह परसेप्शन यानी अनुभूति भीड़ को साधे रखने का सबसे बड़ा, सबसे सार्थक हथियार है। मोदी ने इस ‘परसेप्शन’ को बनाने के लिए मीडिया का, सोशल मीडिया का सहारा लिया। देश का बनिया समाज उनके साथ खड़ा था। बनिया समाज माने धन-कुबेर। इन धनकुबेरों ने प्रचार तंत्र को अपने कब्जे में पूरी तरह ले लिया। देश के कई बड़े मीडिया संस्थानों में सीधे हिस्सेदारी खरीदी गई या फिर विज्ञापनरूपी ताले जड़ दिए गए ताकि ‘अनुभूति’ का अहसास कराने में कोई दिक्कत पेश न आए। इसका भारी लाभ 2014 के आम चुनावों में तो मिला ही, 2014 से 2019 तक के पहले पांच बरस का मोदी काल भी इस ‘अनुभूति’ सहारे अपनी खामियों, अपनी असफलताओं और वादाखिलाफी को छिपाने में सफल रहा। नरेंद्र मोदी सरकार के नाम पहले पांच बरस कोई भी बड़ी उपलब्धि नहीं रही। अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट 2016 की नोटबंदी ने पैदा की। नोटबंदी हर दृष्टि से ‘सुपरफेल’ मोदी एक्शन रहा। कालेधन पर कथित तौर पर चोट करने के लिए उठाया गया यह कदम हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर किया गया भारी प्रहार साबित हुआ। रही-सही कसर जीएसटी ने पूरी कर डाली। इन पांच बरसों के दौरान बेरोजगारी ने नई ऊंचाइयों को प्राप्त किया। सरकार के पास राजस्व में वृद्धि के लिए कोई कार्य योजना न होने के चलते सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी कंपनियों को बेचा जाना ही एक मात्र विकल्प था। उसने यही किया। एक के बाद एक सरकारी कंपनियां बेची गईं। इन पांच बरसों के दौरान लेकिन अनुभूति के तल पर सब कुछ शानदार रहा। जनता जनार्दन को राम मंदिर मिल गया। वह मदमस्त हो अपने दुख दर्द भूल भजन गाने में व्यस्त हो गई। मीडिया पूरी तरह भाजपा का भोंपू बन उभरा। देश में बदहाली बढ़ी तो मोदीजी को अंतरराष्ट्रीय हीरो के बतौर स्थापित करने में मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा माहौल रचा गया कि भीड़ का एक बड़ा हिस्सा मुदित हो उठा। उसका माथा गर्व से चैड़ा हो गया। छाती भी छप्पन इंची हो उठी। नतीजा 2019 के आम चुनाव में देखने को मिला। पहाड़ सरीखी जन अपेक्षाओं को धरातल में उतारने में पूरी तरह विफल रहे मोदी दमदार बहुमत के साथ सत्ता में वापसी कर गए। ‘अनुभूति’ का दांव फिर से चल गया। कोरोना की पहली लहर में भी यह दांव अपना करतब दिखा पाने में सफल रहा। पीएम ने इस प्राणघातक वायरस को ‘ताली-थाली’ बजवा परास्त करने वाले दूरदर्शी नेता की छवि स्थापित कर डाली। लेकिन दूसरी लहर आते ही अब ‘अनुभूति’ का मायाजल दरकने लगा है। चाणक्य का कथन इसलिए मुझे याद हो आया। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्। इस बार मैनेजमेंट के तमाम दांव-पेंच पीएम की छवि ध्वस्त होने से बचा नहीं पा रहे हैं। ‘अनुभूति’ पर ‘सच’ भारी पड़ता नजर आने लगा है। इसकी शुरुआत अंतरराष्ट्रीय स्तर से हुई। विदेशी मीडिया ने ‘ब्रांड मोदी’ पर जमकर प्रहार करने शुरू किए। ‘बीबीसी’, ‘न्यूयार्क टाइम्स’, ‘ग्राजियन’, ‘टाइम’, ‘डेलीमेल’, ‘जापान टाइम्स’ आदि प्रतिष्ठित और स्थापित समाचार पत्रों ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस महामारी को सही तरीके से नहीं निपटने के आरोप लगाने शुरू किए जो अब तक जारी हैं। इन अखबारों के संपादकीय खासतौर पर भारतीय प्रधानमंत्री के खिलाफ बेहद आक्रामक तेवर अपना चुके हैं। उदाहरण के लिए वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है ‘This colossal failure of policy making has many forebears, crass electroral considerations and sheer ineptitude.’ एक अन्य आलेख में अखबार ने प्रकाशित किया ‘…there have been many media reports on how the BJP led indian government ordered FB, Instagram and Twitter to censer dosens of post criticizing the government.’ ‘ग्राजियन’ ने कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर डाला ‘The system has collapsed: India’s descent in to covid hell’ । हमारा गोदी-चारणी मीडिया इतने पर भी नहीं जागा। गहरा सन्नाटा पसरा रहा। पूरा मुल्क कराहता रहा लेकिन मीडिया परसेप्शन मैनेजमेंट में जुटा रहा। देशभर से चित्कारें आने लगी लेकिन मीडिया शुतुरमुर्ग की भांति आचरण करता दिखा। चैतरफा हाहाकार, गांव-गांव पहुंचा मौत का तांडव, तब जाकर भारतीय मीडिया थोड़ा-सा शर्मिंदा होता नजर आ रहा है। हालांकि अभी भी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सच्चाई को छिपाने और मोदी ब्रांड की ‘अनुभूति’ बनाए रखने में जुटा हुआ है, प्रिंट मीडिया में कुछ हलचल होती नजर आने लगी है। राष्ट्रीय हिंदी दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ ने इस ‘अनुभूति’ के खेल से बाहर आने का साहस-प्रयास, दोनों किया है। ‘दैनिक भास्कर’ ने अपने तीस पत्रकारों को उत्तर प्रदेश और बिहार में इस सच को समझने के लिए झोंका कि आखिर गंगा नदी में यकायक ही शवों की बाढ़ क्यों आ रही है। नतीजा चैंकाने वाला सामने आया। इन पत्रकारों के सामूहिक प्रयास से ऐसा नंगा सच उभरा जो गंगा को मां कह, गर्व करने वालों की असलियत सामने ले आया। 2000 शव गंगा किनारे बहते या दफन किए मिले। ये शव गंगा नदी के उन स्थानों पर मिले हैं जहां उत्तर प्रदेश का निजाम है। सुशांत सिंह राजपूत नामक एक फिल्म कलाकार की आत्महत्या से पर्दाफाश करने का प्रयास करने वाले मुख्यधारा के चैनल्स, उनके लिपे-पुते न्यूज एंकर्स सब इस महामारी के चरमकाल में सच को छिपाने की सरकारी मुहिम संग गठजोड़ कर चुके शातिर ठग समान हैं जो टीआरपी का खेल चमकाने के लिए एक मामूली आत्महत्या को राष्ट्रीय शर्म बनाते नहीं कभी शर्माएं, असल राष्ट्रीय आपदाकाल में सब सत्ता के चरणों में शीष नवाए बैठे हैं। अति से बचना जरूरी है। अति करोगे तो कभी न कभी उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा ही। ‘आजतक’ चैनल के खासे जाने-माने न्यूज एंकर रोहित सरदाना की कोविड चलते हुई दुखद मृत्यु के बाद जो कुछ गंद सोशल मीडिया में मची, उसकी जिम्मेदारी किसकी है? उन्हीं की जो लिपे-पुते हर दिन इन न्यूज चैनलों में सच को छिपाने और सत्ता की महानता की ‘अनुभूति’ कराने का खेल पिछले सात बरसों से रच रहे हैं।
गुजरात के एक दैनिक समाचार पत्र ‘ दिव्य भास्कर’ ने इस परसेप्शन मैनेजमेंट का सच सामने ला खड़ा किया है। अखबार ने पूरी जांच-पड़ताल कर एक खबर प्रकाशित की है कि मई के मध्य तक गुजरात राज्य में 1,24,000 मृत्यु प्रमाण पत्र बनाए गए हैं जो गत् वर्ष इसी दौरान यानी मार्च, अप्रैल और मई के मध्य तक हुई मौतों से 66,000 अधिक हैं। सरकारी आंकड़ों में इन मौतों से केवल 4,218 मौतें कोविड के चलते दर्शाई गई हैं। कहने का मतलब यह कि देर से ही सही अब सच सामने आने लगा है। यह सच सामने लाने का काम लंबे अर्से से छोटे-मझोले अखबार और पत्रिकाएं करती आ रही थी, अब प्रिंट मीडिया के बड़े नाम भी साहस कर सच प्रकाशित करने लगे हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया अभी भी सरकार के लिए ‘ऑल इज वेल’ का ‘परसेप्शन’ बनाने में जुटा हुआ है। इसके पीछे एक बड़ा कारण ज्यादातर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के मालिकानों चलते है। मुकेश अंबानी सरीखे बड़े बिजनेसमैन इस दौर में ज्यादातर मीडिया संस्थानों के मालिक है, हिस्सेदार हैं। जाहिर है ये राजव्यवस्था उन्हें खासी सुहाती है इसलिए इसका ‘परसेप्शन’ बनाना उनके व्यवसाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन तय मानिए ये ज्यादा दिन चलने वाला नहीं। जनता अब ऐसे चैनलों से बिदकने लगी है, यहां तक कि घृणा भी करने लगी है। आज नहीं तो कल इन चारण-भाटों को भी अपने सुर सही करने पड़ेंगे अन्यथा जैसा चाणक्य कह गए ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’ इनकी अति इन पर भारी पड़ेगी। रोहित सरदाना की मृत्यु बाद सोशल मीडिया में जो कुछ हुआ वह सड़कों पर भी इन चैनलों के पत्रकारों संग होने लगेगा।