मेरी बात
उर्दू का एक शब्द है- फ़साना जिसका हिंदी में अर्थ होता है मनगढ़त किस्सा या कहानी या ब्योरा इत्यादि। 1970 में प्रदर्शित राजकपूर निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का एक गाना खासा मशहूर हुआ था- ‘कहता है जोकर सारा ज़माना/आधी हकीकत आधा फ़साना।’ वर्तमान दौर में हकीकत आधी भी नहीं रह गई है, इस देश में सब कुछ फ़साना बन रह गया है। बीते 9 वर्षों के दौरान इस फ़सानागिरी को अपने चरम तक पहुंचते हर उस शख्स ने देखा, भोगा और महसूसा है जो सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों को समझता है। इस फ़सानागिरी की नींव 70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को बुलंद कर रखी थी जो आज भारत के ‘विश्व गुरु’ बनने के ख्याली पुलाव के दौर में अपने चरम पर पहुंच चुकी है। इंदिरा जी ने 1975 में आपातकाल का एलान करते हुए जिन कारणों का हवाला दिया था उनमें कुछ भी सच नहीं था, सब कुछ फ़साना था। वर्तमान में चाहे वह ‘सबका साथ-सबका विकास’ हो या फिर ‘65 इंच का सीना’, ‘हर खाते में 15 लाख’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘बहुत हुआ भ्रष्टाचार, अबकी बार मोदी सरकार’ इत्यादि, सभी हकीकत से कोसों दूर हैं लेकिन फिर भी बीते 9 वर्षों से जनता जनार्दन के मन -मस्तिष्क में कब्जा किए हुए हैं। धारणाओं का मकड़जाल इतना जबरदस्त बुना गया है जिसे पार कर पाने में सच के पसीने छूट रहे हैं। इस मकड़जाल के पीछे है सत्तातंत्र का अद्भूत मैनेजमेंट। ऐसा मैनेजमेंट जिसने मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर हर उस लोकतांत्रिक संस्था को मैनेज कर लिया है, जिसके सहारे सच बेचारा अपनी मुक्ति की राह तलाश सकता है। अब चूंकि सच भी बाहर आने को अकुलाता है और किसी न किसी जरिए बाहर आने का मार्ग ढूंढ रहा है इसलिए हर ऐसे मार्ग को सच से दूर रखने की कवायद सत्ता प्रतिष्ठान करता रहता है। कुछ ऐसी ही कवायद इन दिनों ‘यूट्यूब’ के जरिए किए जाने की शुरू हो चुकी है। ‘यूट्यूब’ वर्तमान में कह सकते हैं कि एक मात्र ऐसा जरिया सच को ऑक्सीजन पहुंचाने का बना हुआ है जिसे पूरी तरह से रोक पाने में सरकार को सफलता नहीं मिल पा रही है। बहुत से ऐसे पत्रकार जो ‘बेचारे’ अपने जमीर को बेच पाने, गिरवी रखने के लिए राजी नहीं हुए, उन्हें उनके प्रतिष्ठानों ने बाहर का रास्ता दिखाते देर नहीं लगाई। जिन्होंने समझौता कर लिया, खामोश हो बैठ गए या फिर पूरी तरह चोला बदल लिए, उनकी तादात ज्यादा है। लेकिन कुछ ऐसे भी ‘हठी’ हैं जिन्हें सच का साथ देने की ‘बीमारी’ है। ऐसों ने यूट्यूब का सहारा लिया। सच को सुनने वालों की संख्या इन हठीजनों के चलते धीरे-धीरे बढ़ने लगी है। रवीश कुमार हों या फिर अजीत अंजुम, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा, संजय शर्मा इत्यादि सभी अपने-अपने स्तर से सच को जिंदा रखने का काम कर रहे हैं। मैंने मात्र चंद नाम बतौर उदाहरण दिए हैं। हरेक प्रदेश, शहर, गांव, मोहल्ले में ऐसे ‘हठी’ विराजमान हैं। इनको मैनेज कर पाना आसान नहीं है। इसलिए ‘धारणाओं’ के खेल को विस्तार देने के लिए सत्ताधीशों ने नया तरीका ईजाद किया है। केंद्र सरकार के मंत्री अब ऐसे ‘यूट्यूबर्स’ से मिल रहे हैं जिनको बड़े स्तर पर सुना जाता है। ऐसे यूट्यूबर्स के लाखों फाॅलोअर्स हैं। जाहिर है इतनी बड़ी संख्या में जिस किसी को सुना-देखा जाता है, उसके कहे का कुछ न कुछ असर तो उसके फाॅलोअर्स पर पड़ेगा ही। यही सरकार की रणनीति और मंशा भी है। 24 जून को केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल जो बकौल अजीत अंजुम सरकार के कुशल मैनेजर भी हैं, ने 50 ख्याति प्राप्त यू- ट्यूबर्स संग बातचीत की। इस बातचीत से पहले यू-ट्यूबर्स ने देशभर में ऐसे यूट्यूबर्स की बाबत बकायदा विज्ञापन भी प्रकाशित किए। इन विज्ञापनों में लिखा गया है: ‘To stay safe online, hit pause’ (ऑनलाइन सुरक्षित रहने के लिए, रोकें, बटन दबाएं) तथा ‘Trust only the real experts’ (केवल वास्तविक विशेषज्ञों पर भरोसा करें)। वाणिज्य मंत्री के साथ जिन ‘वास्तविक विशेषज्ञों’ ने मुलाकात-चर्चा की उनमें विवेक बिंद्रा, गौरव चक्रवर्ती सरीखे तकनीकी मुद्दों पर बोलने वाले विशेषज्ञ विराज सेठ, गणेश प्रसाद, श्लोक श्रीवास्तव और प्रफुल्ल बिसौरे आदि कई विषयों के ‘वास्तविक विशेषज्ञ’ शामिल थे। ये सभी गैर राजनीतिक विषयों पर अपने विचार रखने के लिए, जानकारियां देने के लिए जाने जाते हैं। इनके साथ सरकार के मंत्री की बातचीत का घोषित उद्देश्य जनकल्याण की दिशा में उठाए जा रहे सरकारी प्रयासों, योजनाओं का प्रसार करना है। बकौल प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया (पीटीआई) पीयूष गोयल के साथ हुई चर्चा के दौरान ऐसे यूट्यूबर्स ने सरकारी योजनाओं की बाबत जानकारी अपने यूट्यूब चैनल के जरिए किए जाने के लिए सहमति दी है। ऐसा किए जाने की शुरुआत भी हो चुकी है। कई यूट्यूबर्स इन दिनों केंद्र सरकार के मंत्रियों संग बातचीत कर उसे अपने यूट्यूब चैनल पर प्रमुखता से दिखा रहे हैं। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन नामक संस्था के संस्थापक अपार गुप्ता इससे चिंतित रहते हैं कि ‘Even if these are not paid engagements, there is a need to be critical of such interviews given that quite often there is little to no incentive or training provided to these influencers to question public officials or be more critical of their claims or to even scrutinise’
(‘द वायर’ पत्रिका की रिपोर्ट)