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Editorial

जश्न मनाने जैसा कुछ खास नहीं

मेरी बात

 

कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार जीत और भाजपा की शर्मनाक हार के बाद कहा जा रहा है कि इस जीत ने कांग्रेस और विपक्ष को नया जीवन देने का काम कर दिखाया है। यह भी दावा किया जाने लगा है कि अब भाजपा के लिए 2024 का आम चुनाव जीत पाना बेहद कठिन होने जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी का जादू अब उतार की तरफ है और केवल उनके नाम और चेहरे भरोसे अब भाजपा को वोट मिलने का दौर समाप्ति की तरफ है। निश्चित ही कर्नाटक के चुनाव नतीजे खास महत्व रखते है। दक्षिण भारत में केवल कर्नाटक ही ऐसा प्रदेश है जहां भाजपा अपनी पकड़ बना पाई है। जिस प्रकार की राजनीति भाजपा करती है, आगे भी करेगी ही करेगी, उसके दृष्टिगत मेरी समझ से कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों के लिए 2024 में भाजपा को हरा पाना टेढ़ी खीर समान है। कर्नाटक की जीत ने निश्चित ही हताश विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस भीतर नई ऊर्जा का संचार किया है, अभी मंजिल लेकिन बहुत दूर है और रास्ते में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम, तेलंगाना और संभवत जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव हैं। दूसरी तरफ भाजपा के सामने इन चुनाव नतीजों बाद यक्ष प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ है कि क्या केवल मोदी का चेहरा और उग्र हिन्दुत्व उसे 2024 में सत्ता वापसी करा पाने में सफल रहेगा? स्मरण रहे 2014 के बाद से लगातार भाजपा मोदी के चेहरे को आगे कर चुनावी रणनीति बनाती रही है और उसे इसका फायदा भी अधिकांश चुनावों में मिला है। कर्नाटक में प्रधानमंत्री के चेहरे और बजरंगबली के सहारे चुनाव लड़ने की रणनीति असफल रही है तो इसका सीधा असर आने वाले कुछ महीनों में होने जा रहे कई राज्यों के चुनाव में भी पड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित ही 2024 का आम चुनाव भाजपा के लिए जीत पाना बेहद कठिन हो जाएगा। लेकिन क्या मात्र कर्नाटक की जीत के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है? जो ऐसा मान रहे हैं वे मेरी समझ से भारी मुगालते में हैं। भाजपा कर्नाटक ही नहीं बल्कि हर राज्य में अपनी ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ खोलकर बैठी है। इस प्रयोगशाला के जरिए वह बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के प्रति गहरे द्वेष का बीज अंकुरित कर पाने में सफल हो चुकी है। इस अल्पसंख्यक विरोध को मजबूती देने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ नाम के हथियार को भी जमकर उपयोग में लाया जा रहा है। आने वाले समय में इन दोनों हथियारों का खुलकर इस्तेमाल किया जाएगा जो पहले से ही विषाक्त सामाजिक सौहार्द को और जहरीला करने का काम करेगा। कर्नाटक चुनाव के दौरान ‘हिजाब’ प्रकरण का उछाला जाना, टीपू सुल्तान को खलनायक साबित करना और बजरंग दल पर कांग्रेस द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने को बजरंग बली से जोड़ धु्रवीकरण करने की पुरजोर कोशिश भले ही अपना कमाल न दिखा पाई हो, उत्तर भारत के राज्यों में ऐसा होने की प्रबल संभावना है क्योंकि इन राज्यों में कर्नाटक की बनिस्पत धार्मिक धु्रवीकरण पहले से खासी पैठ बना चुका है। ऐसे में हालांकि कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस को मजबूती देने का काम किया है। यदि इस जीत को वह अन्य राज्यों में दोहरा पाने में सफल नहीं होती है तो 2024 के आम चुनाव में भाजपा का पलड़ा भारी रहना तय है। कांग्रेस के लिए इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत हासिल करना। इनमें से दो राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थिति राजस्थान की बनिस्पत बेहतर है।

राजस्थान में लेकिन वह गहरे आंतरिक कलह की शिकार है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के मध्य तनाव एक बार फिर से गहराने लगा है जिसका प्रतिकूल असर राज्य विधानसभा चुनाव में पड़ना तय माना जा रहा है। कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व यदि मजबूत होता है और राजस्थान संकट का हल निकालने में सफल हो पाता है, तब भी वहां सत्ता में वापसी के आसार कम नजर आते हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लेकिन यदि पार्टी एकजुटता के साथ लड़ती है तो उसे सफलता मिल सकती है। तेलंगाना में भारतीय राष्ट्र समिति की सत्ता में वापसी की संभावना है। हालांकि भाजपा पूरे दमखम के साथ यहां चुनाव में उतरेगी। दक्षिण में उसे कम से कम एक राज्य में अपनी सत्ता चाहिए ही चाहिए। कर्नाटक की जीत बाद बहुत सारे राजनीतिक पंडित कहने लगे हैं कि इस जीत ने सकारात्मक राजनीति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है और यह साबित हो गया है कि मतदाताओं को हिजाब, अजान और ‘बजरंग बली की जय’ के नाम पर अब बरगलाया नहीं जा सकता है। यह भी दावे किए जाने लगे हैं कि अब आने वाले सभी चुनावों में आम जनजीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दे ही काम करेंगे, धर्म और जाति के नाम पर अब धु्रवीकरण की राजनीति नहीं चलेगी। यह मेरी समझ से पूरी तरह गलत निष्कर्ष है कर्नाटक की जीत का। यह सही है कि इस जीत का फायदा कांग्रेस को मिलता नजर आ रहा है। अब तक ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल सरीखे नेता कांग्रेस से दूरी बनाए हुए हैं। अब संभावना है कि इनके तेवर ढीले पड़ेंगे और विपक्षी एकता के प्रयासों में तेजी आएगी। ममता बनर्जी ने ऐलान भी कर दिया है कि यदि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस तृणमूल विरोध की राजनीति छोड़ती है तो तृणमूल भी कांग्रेस के प्रभाव वाले राज्यों में उसका साथ देने को तैयार है। राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता वाले मुद्दे पर केजरीवाल ने भी अपना प्रतिरोध दर्ज करा भविष्य में कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा बनने की तरह कदम बढ़ा ही दिया है। उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन बाद संभवत अखिलेश यादव भी समय की नजाकत को पहचान कांग्रेस द्रोह भाव को कम कर सकते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2024 में भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठबंधन तैयार करने की पुरजोर कोशिश करने में पहले से ही जुटे हुए हैं। शरद पवार की बाबत हालांकि निश्चित तौर पर कुछ भी कह पाना लगभग असंभव है, हाल-फिलहाल वह भी भाजपा विरोधी ताकतों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। दक्षिण के दो बड़े क्षत्रप के ़ चन्द्रशेखर राव और एम ़के स्टालिन पहले से ही विपक्षी गठबंधन के साथ मजबूती से खड़े हैं। प्रश्न लेकिन मेरी समझानुसार विपक्षी कुनबे की एकजुटता से कहीं अधिक भाजपा की उस रणनीति का ज्यादा महत्वपूर्ण है जो आने वाले दिनों में हमें देखने को मिल सकती है। यह रणनीति प्रचंडतम रूप से हिंदुत्व के नाम पर धु्रवीकरण करने की रहेगी। कर्नाटक में भले ही यह हथियार कारगर न रहा हो, उत्तर भारत में इसका भारी असर होने की पूरी संभावना है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, काशी- मथुरा का मुद्दा और इतिहास के कबाड़खाने से निकाल कुछ अन्य कूड़े को बिखराने की यह रणनीति भले ही सांप्रदायिक सुनामी को जन्म दे भारी तनाव और हिंसा का कारण क्यों न बन जाए, ऐसा होता मुझे नजर आने लगा है। 1980 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर में भारी कौमी दंगे हुए जिनमें 300-400 की मौत और सैकड़ों घायल हो गए थे। उत्तर प्रदेश पुलिस पर इन दंगों के दौरान मुसलमानों पर भारी अत्याचार के आरोप लगाए गए। कांग्रेस तब उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ थी। एक जांच आयोग इन दंगों की जांच के लिए नियुक्त किया गया था। इस आयोग ने दंगों के लिए मुस्लिम नेताओं को जिम्मेवार ठहराते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस को दोषमुक्त करार दिया था। आयोग की रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया था। अब 43 बरस बाद यकायक ही योगी आदित्यनाथ सरकार इस रिपोर्ट को इतिहास के कूड़ेदान से निकाल राज्य विधानसभा में रखने जा रही है। 43 बरस बाद ऐसा करने को औचित्य स्पष्ट है। इस आयोग ने दंगों के लिए मुस्लिम धर्मगुरुओं और नेताओं को जिम्मेवार माना था। उत्तर प्रदेश अनेकों कौमी दंगों को बीते पिचहत्तर बरसों में झेल चुका है। इनमें से कई दंगों को लेकर बने जांच आयोगों ने राज्य के पुलिस बलों को उनके अल्पसंख्यक विरोधी रुख चलते दोषी करार दिया था। ज्यादातर जांच आयोगों की रिपोर्ट पर कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में अकेले 1980 दंगों की रिपोर्ट को 43 बरस बाद सामने पाने का निर्णय इशारा करता है कि भाजपा और भाजपा शासित राज्यों की सरकारें, विशेषकर उत्तर प्रदेश सरकार का उद्देश्य क्या है। इसलिए मेरा मानना है कि कर्नाटक के चुनाव नतीजों को लेकर 2024 के आम चुनावों की बाबत जो निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं, वे कयासबाजियां मात्र हैं। विपक्षी दलों के सामने एक बेहद मजबूत, अनुशासित और व्यापक जनाधार वाला राजनीतिक दल है जिसकी ताकत को मात्र एक राज्य में मिली जीत के बरअक्स कमजोर आंकना नितांत बेवकूफी समान है। जरूरत है भाजपा को परास्त करने के लिए ऐसी रणनीति बनाने की जो ध्रुवीकरण की काट भी कर सके और जनता को यह विश्वास भी दिला सके कि विपक्षी एकता सत्ता पाने के लिए एकजुट हुए अति महत्वाकांक्षी नेताओं का गठबंधन मात्र नहीं है, बल्कि सही में देश के लिए कुछ सार्थक कर पाने की मंशा रखने वालों का गठबंधन है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव नतीजे बाद ही तय हो पाएगा कि कर्नाटक की सफलता का असर 2024 के चुनाव तक रहता है या नहीं।

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