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Editorial

हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती

ममता बनर्जी इन दिनों देश भर के विपक्षी दलों संग संवाद कर उन्हें भाजपा से लड़ने के लिए एकजुट होने का पाठ पढ़ा रही हैं। उनका घोषित उद्देश्य उन राज्यों में विपक्षी दलों को एक करना है जहां 2022 और 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। साथ ही उनका लक्ष्य अगले आम चुनाव में भाजपा के सामने ऐसी चुनौती पेश करना है जिससे एनडीए गठबंधन परास्त हो और देश को  विपक्षी गठबंधन वाली सरकार मिल सके। यह ममता बनर्जी का घोषित लक्ष्य है। उनका अघोषित लक्ष्य स्वयं को 2024 में प्रधानमंत्री मोदी के समक्ष विपक्षी दलों की तरफ से चेहरा बनाया जाना है। यानी वे चाहती हैं कि देश का प्रधानमंत्री वे बनें। अपनी इस निज् महत्वाकांक्षा के चलते वे भाजपा के सामने एक मजबूत विकल्प पैदा करने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बनती जा रही हैं। दस बरस तक केंद्र की सत्ता में काबिज रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को वे समाप्त करने पर तुली हुई हैं। यूपीए का नेतृत्व अपने गठनकाल से ही कांग्रेस के पास रहा है। 2004 के आम चुनाव का नतीजा तब सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन के खिलाफ गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चुनावी समर में उतरे एनडीए को इस चुनाव में मात्र 181 सीटें मिली थी। कांग्रेस इस चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी। उसे 141 सीटें मिली थी। ‘उदित भारत’ के नारे संग चुनाव मैदान में उतरी भाजपा को 130 सीटों पर ही जीत मिल पाई थी। चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस नेता सोनिया गांधी की पहल पर यूपीए गठबंधन अस्तित्व में आया। सोनिया इसकी पहली अध्यक्ष बनी। आज भी वे ही इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही हैं। इस गठबंधन को समय- समय पर कई विपक्षी दलों का साथ मिला तो बहुत से इससे अलग भी हुए। 2006 में तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के. चन्द्रशेखर राव ने मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से त्याग पत्र देते हुए यूपीए गठबंधन भी छोड़ दिया था। 2008 में बहुजन समाज पार्टी इस गठबंधन से छिटक गई। 2012 तक इसका हिस्सा रही तृणमूल कांग्रेस भी इससे अलग हो गई। पिछले दिनों बिहार में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के रिश्ते खराब होने के बाद एक तरह से राजद भी यूपीए गठबंधन से बाहर हो चुकी है। इसके बावजूद एनडीए के बरक्स आज भी यूपीए ही सबसे बड़ा विपक्षी दलों का गठबंधन बना हुआ है तो इसके पीछे कांग्रेस का खड़ा रहना है। बेशक कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार कमजोर हुई है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में नेतृत्व का संकट लंबे अर्से से बना हुआ है जिसके चलते पार्टी के भीतर ही असंतोष चरम् पर पहुंच चुका है। कई वरिष्ठ कांग्रेसी इस समय खुलकर बगावती राह पर चलते नजर आ रहे हैं। बहुतों ने अर्सा पहले ही पार्टी छोड़ केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा का दामन थाम लिया है तो कई अन्य इस राह पर जाने की राह तलाश रहे हैं। बहुत से ऐसे भी हैं जिन्हें अब कांग्रेस तो रास नहीं आ रही लेकिन वैचारिक तल पर भारी विरोधाभास उन्हें भाजपा का दामन थामने का साहस नहीं दे पा रहा है। ममता की नजर ऐसे ही नेताओं पर गड़ी हुई है। वे लगातार असंतुष्ट कांग्रेसियों को तृणमूल में शामिल करा अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्वरूप देने में जुटी हुई हैं। उनकी रणनीति कांग्रेस को कमजोर करने के साथ-साथ असंतुष्ट कांग्रेसियों के सहारे खुद का संगठन मजबूत करने की है। यहीं वे भारी गलती कर रही हैं। शायद उनके सामने भाजपा द्वारा अपनाई गई ऐसी ही रणनीति एक आदर्श और सफल उदाहरण हो। भाजपा ने पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ ऐसा ही किया, सफलतापूर्वक किया। असम के शक्तिशाली नेताओं में शुमार हेमंत बिस्वास शर्मा को भाजपा ने कांग्रेस से अलग कर अपने यहां शामिल किया। इसका भारी लाभ उसे असम के साथ-साथ अन्य पूर्वोत्तर के राज्यों में भी मिला। भाजपा ने ऐसा ही कई अन्य राज्यों में भी किया है। हरियाणा, उत्तराखण्ड, उड़ीसा, त्रिपुरा आदि कई प्रदेशों में कांग्रेस नेतृत्व से नाराज चल रहे नेताओं को भाजपा ने अपने यहां जगह दी है। ममता बनर्जी को शायद लगता है कि

भाजपा का एक बड़ी ताकत बनने के पीछे यही तोड़-फोड़ और अन्य दलों में सेंधमारी की रणनीति का होना है। यदि वे ऐसा सोचती हैं तो यह उनकी भारी भूल है। भाजपा एक मजबूत कैडर आधारित दल है। उसकी असल ताकत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है जो पिछले सात दशकों से हिन्दुत्व के एजेंडे पर काम करते-करते आज अपनी जड़े पूरे देश में फैला चुका है। भाजपा संघ की राजनीतिक शाखा है। संघ का समर्पित प्रचारक भाजपा के लिए भी काम करता आया है। यदि अटल जी की लोकप्रियता, आडवाणी जी की संगठन क्षमता और मुरली मनोहर जोशी का बौद्धिक कौशल भाजपा की मजबूत इमारत है तो संघ का अपने एजेंडे के प्रति शत- प्रतिशत समर्पण इसकी नींव है। यदि वह नींव में संघ न होता तो भाजपा कभी भी इतनी विशाल, इतना मजबूत संगठन नहीं बन पाती। ममता बनर्जी इस तथ्य से भलीभांति वाकिफ हैं। वे लेकिन पश्चिम बंगाल में लगातार मिली सफलता के मद में इसे भूलने की भूल कर रही हैं। ममता की पार्टी का आधार केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है। उन्होंने तीन दशकों तक वहां राज कर रही कम्युनिस्ट पार्टी से लोहा लिया और लगभग असंभव को संभव कर दिखाया। आज कम्युनिस्ट पार्टियों को बंगाल में अपना अस्तित्व बनाए रखने का संकट आन खड़ा हुआ है तो इसका क्रेडिट पूरी तरह से ममता की एग्रेसिव पॉलिटिक्स को जाता है। उन्होंने अपने दम पर तृणमूल को बंगाल में खड़ा किया। एक योद्धा की तरह लेफ्ट पार्टियों के सामने डट कर लड़ी। 1998 में वे कांग्रेस से अलग हुईं थी। 26 बरस तक वे कांग्रेस का हिस्सा रहीं। 1970 में कांग्रेस में शामिल हुई ममता 1975 में पहली बार तब सुर्खियों में आईं थी जब उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन कर रहे समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण की कार के बोनट में खड़े होकर नृत्य कर डाला था। इसके बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा। 1984 में वे सांसद बन गईं। पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में राज्य मंत्री बनी। 1997 में उन्होंने कांग्रेस से अलग हो अपनी पार्टी के गठन का एलान कर डाला। केंद्र की राजनीति में दक्षिण पंथी ताकतों के उदयकाल में ममता बगैर किसी हिचकिचाहट उनकी बगलगीर हो गईं। उन्हें 1999 में अटल सरकार में रेल मंत्री बनाया गया। वर्ष 2000 में बगैर किसी विशेष कारण उन्होंने एनडीए सरकार और गठबंधन से रिश्ता तोड़ डाला। इसके बाद वे मौकापरस्त राजनीति की नई गाथा लिखने में जुट गई। 2001 में कांग्रेस के साथ नजर आईं तो 2003 में फिर से एनडीए का हिस्सा बन केंद्र में मंत्री बन बैठीं। 2004 के आम चुनाव में वे एनडीए का हिस्सा थीं। उनकी पार्टी की पश्चिम बंगाल में करारी हार हुई। वे अपने दल की एक मात्र सांसद बनी। 2005 में तृणमूल कांग्रेस कोलकाता नगर निगम के चुनाव में भी पराजित हो गई। 2006 के राज्य विधानसभा चुनाव में तृणमूल को करारी हार का सामना करना पड़ा। फिर आया सिंगूर और नंदीग्राम का मुद्दा जिसने ममता के राजनीतिक भविष्य को चमका दिया। 2009 आते-आते वे फिर से यूपीए में शामिल हो गईं। उन्हें मनमोहन मंत्रिमंडल में रेल मंत्री बनाया गया। 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता ने असंभव को संभव कर पश्चिम बंगाल से कम्युनिस्ट शासन का सफाया कर डाला। तब से वे लगातार वहां की सत्ता में काबिज हैं। ममता का अपनी सुविधानुसार कभी यूपीए तो कभी एनडीए का दामन थामना उनकी कथित धर्मनिरपेक्षता पर तो बड़ा प्रश्न चिन्ह है ही, भविष्य के राजनीतिक परिदृश्य में उनका क्या स्टैंड होगा, यह कह पाना कठिन है। रही कांग्रेस में तोड़फोड़ कर तृणमूल कांग्रेस को भाजपा के सामने एक मजबूत विकल्प बनाने की बात तो यह ममता की भारी भूल है। वे बड़े मुगालते में हैं कि कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को तृणमूल में लाने से उनकी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती मिल जाएगी। ऐसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि न तो संघ समान कोई मजबूत संगठन पीछे खड़ा है, न ही वे कांग्रेसी विचार धारा के वोटर को चंद असंतुष्टों के सहारे साध सकती हैं। उनकी निज महत्त्वाकांक्षा कांग्रेस को जरूर कमजोर कर रही है, इसका भारी प्रतिकूल प्रभाव 2024 के आम चुनाव में पड़ेगा। विपक्ष एक बार फिर भाजपा और संघ की सामूहिक संगठन क्षमता के हाथों धराशाई हो जाएगा। अभी 2024 बहुत दूर है। राजनीति में उलटफेर होते देर नहीं लगती। बहुत संभव है कि 2022 और 2023 में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन दमदार रहे। ऐसे में ममता विपक्षी दलों का चेहरा बनना तो दूर, स्वयं पश्चिम बंगाल में अपना आधार खो सकती हैं। लेकिन यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा है। न तो अभी इसे ममता समझ पाएगी, न ही उनकी हालिया चमक से प्रभावित हो रहे नेता और अन्य क्षेत्रीय दल। अंग्रेजी में एक कहावत है। ‘All that glitters is not gold’ मतलब हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती। मैं शर्तिया कह सकता हूं ममता चमक भले ही रही हों लेकिन वे सोना कतई नहीं हैं। बाकी भविष्य तय करेगा।

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