देश में चौतरफा पसरे और गहरे पसरते जा रहे नफरत के माहौल का सीधा नाता हमारे तंत्रिका विज्ञान (Neurological Science) से है। घृणा, नफरत, हिंसा और ‘हम’ की श्रेष्ठता और ‘उन’ की हीनता स्वाभाविक मानवीय कमजोरी है जिसको संचालित करता है हमारे मष्तिस्क का एक हिस्सा जिसे ‘एमिग्डाला’ (Amygdala) कहा जाता है। यह हमारे दिमाग के बीचों- बीच स्थित कोशिकाओं का एक जटिल नेटवर्क है जो मुख्य रूप से डर से जुड़ी हमारी भावनाओं को संचातिल करता है। हमारा मस्तिष्क इन जटिल कोशिकाओं (Cells) की संरचना ‘एमिग्डाला’ से प्रभावित होकर नाना प्रकार के विभेद अपने भीतर पैदा कर देता है जिसका नतीजा है हमारा डर, हमारी घृणा, हिंसा और अमानवीय आचरण। अपने यहां इस तंत्र कोशिका को प्रभावित करने का जबरदस्त काम पिछले लंबे अर्से से सूचना तंत्र के सहारे संचालित किया जा रहा है। इस्लामोफोबिया का विस्तार दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते हम सभी देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। ‘हम’ से ‘मेरा’ तात्पर्य धर्म के नाम पर फैलाई जा रही नफरत को समझने वालों के उस समूह से है जिनका संख्या बल तेजी से कम हो रहा है। जो कुछ इन दिनों देश को दिखाया, सुनाया और पढ़ाया जा रहा है, वे सब कुछ प्रायोजित है, उन ताकतों के द्वारा जिनकी सत्ता इससे ताकत पाती है। हमारे समाज में धर्म और जाति आधारित विभाजक रेखाएं सदियों से रही हैं। धर्म आधारित 1947 का विभाजन तो देश का हो गया लेकिन ये रेखाएं कमजोर नहीं हुईं, इनका लगातार विस्तार आजाद भारत की 75 बरस की यात्रा के दौरान होता चला गया है। इतिहास के ईमानदार अध्ययन से एक बात बहुत स्पष्ट होकर उभरती है कि हम भले ही लाख दावा अपनी ‘गंगा-जमुनी’ संस्कृति का क्यों न करे, सच अपनी जगह अटल है कि यह एकता जब कभी भी नजर आई, केवल सतही थी। गहरे भीतर हम भारतीय होकर कभी सोचने वाला समाज बन ही नहीं पाए। ऊपरी तल पर हिंदू-मुस्लिम एकता के लाख नारे महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान लगाए हों, लगवाएं हों, जमीनी स्तर पर जनता हमेशा हिंदू और मुसलमान के रूप में ही आचरण करती रही थी और कर रही है। 1920 में महात्मा ने ‘अस्पृयश्यता एक अपराध है’ का नारा दिया। दलितों को हरिजन कह पुकारना शुरू किया। लेकिन क्या इससे हमारे समाज में जाति आधारित भेदभाव कम हुआ? कतई नहीं। वर्तमान समय में यह चारों तरफ अपनी जड़े गहरी करता साफ-साफ नजर आ रहा है। हम पहले अपनी जाति के हैं, फिर धर्म के और अंत में राष्ट्र के। यह कटु सत्य है, चाहे कोई स्वीकारे या शुतुरमुर्ग की भांति मुंह छिपाकर सच्चाई का सामना करने से परहेज करे, सत्य अटल है, अटल ही रहेगा। इक्कीसवीं सदी में हमें एक मजबूत और आत्मनिर्भर लोकतंत्र होना चाहिए था, क्या ऐसा हासिल कर पाने में हम सफल हो पाए हैं? यह कोई गणित का जटिल प्रश्न नहीं है, इसका उत्तर बहुत आसानी से दिया जा सकता है, बशर्ते हम सच को स्वीकारने की कूवत रखते हों तो।
बहरहाल मैं नफरत को संचालित करने वाली हमारी दिमागी कोशिकाओं की संरचना ‘एमिग्डाला’ की बात कर रहा था तो वापस उसी पर लौटता हूं। आधुनिक राजनीति समाजशास्त्री थॉमस होब्स (Thomas hobbes) का मानना है कि मनुष्य स्वभावग्रस्त दुष्ट और अनैतिक प्रवृत्ति का होता है जिसे केवल सामाजिक व्यवस्था के जरिए काबू में रखा जा सकता है। इस धारणा के ठीक विपरीत दार्शनिक जीन-जैक्स रूसो (Jean-Jacques Rousseau) के मतानुसार मनुष्य की मूल प्रवृत्ति भलाई की है, शांतिपूर्वक सहअस्तित्व की है, जिसे हिंसक बनाने का काम समाज करता है। ऑस्ट्रेलियाई तंत्रिका विज्ञानी और मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड (Sigmund freud, Austraian Neurologist and Phycoanalyst) इन दोनों से अलग एक तीसरी थ्यौरी देते हैं जिसके अनुसार मनुष्य के भीतर जीवन वृत्ति (Life Instinct) और मृत्यु वृत्ति (Death Insctinct) बराबर रूप से होता है जो समय और परिस्थिति अनुसार सामने आता है। इन तीनों धाराओं के साथ क्रमविकास सिद्धांत के प्रतिपादक चार्ल्स डार्विन (Founder of Theory of Evolution) के सिद्धांत ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ को जोड़ कर यदि मनुष्य के मूल स्वभाव को सामने का प्रयास किया जाए और उसे वैज्ञानिक दृष्टि से मस्तिष्क की जटिल कोशिका संरचना ‘एमिग्डला’ (Complex cluster of cells-Amygdala) के जरिए परखा जाए तो माजरा ज्यादा सरलता से समझ में आता है। एमिग्डाला हमारी धारणाओं और प्रतिक्रियाओं, आक्रमकता और भय को कंट्रोल करता है। इन तंत्र कोशिकाओं के जरिए ही हम डर का अनुभव करते हैं और उन स्थितियों को भी समझ पाते हैं जिनसे हम भयभीत हो सकते हैं। एमिग्डाला पॉजिटिव परिणामों, स्थितियों में भी सक्रिय होता है, साथ ही नकारात्मक परिणामों अथवा स्थितियों में भी इसकी सक्रियता तीव्र हो जाती है। यह हमें उन घटनाओं और परिस्थितियों को याद दिलाता रहता है जिनके कारण या जिनके द्वारा हम डरे हों या जिनके चलते हमारा नुकसान हुआ हो। बुरी यादों का स्मरण होते रहना हमें अधिक आक्रमकता की ओर से ले जाता है। देश और समाज के वर्तमान हालात को समझिए तो इन तंत्र कोशिकाओं का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। इसे ही ‘नफरत का तंत्रिका विज्ञान’ (Neuroscience of Hate) कहा जाता है। इन दिनों इसी विज्ञान का सहारा लेकर नफरत का माहौल पूरे देश में बनाया जा रहा है। चूंकि देश का पूरा सूचना तंत्र जिसमें कथित तौर पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाया जाना वाला मीडिया तंत्र भी हिस्सेदार बन चुका है इसलिए हालात दिनों दिन खराब होते जा रहे हैं। बुनियादी सवालों से आम जन का ध्यान भटकाने की इससे बेहतर तरकीब और भला क्या हो सकती है? अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन देश का बड़ा मीडिया जीडीपी की प्रगति का दावा करने में बगैर किसी शर्म, सबसे आगे है। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है ताकि जनता की आस वर्तमान सत्ता और व्यवस्था पर बनी रहे। बेरोजगारी अपने चरम पर है तो उससे ध्यान भटकाने के लिए ज्ञानव्यापी मस्जिद, शाही ईदगाह, शहरों का, जिलों का नया नामकरण, बुलडोजर इत्यादि का जलवा दिखाया-परोसा जा रहा है। धर्म और जाति के नाम पर सामाजिक विभेद शताब्दियों से हमारे समाज का अभिन्न अंग रहा है। इस विभेद को पाटने-मिटाने के बजाए इसे ज्यादा भड़काया जा रहा है ताकि बुनियादी सवालों को उठने से रोका जा सके। बीते कुछ वर्षों के दौरान सूचना परिस्थितिकी तंत्र (Information Ecosystem) में भारी बदलाव होते हम सभी ने देखा। ऐसा बदलाव आपातकाल के दौर में भी नहीं किया जा सका था। तब सरकारी दमन के जरिए प्रेस की आवाज को दबाने का प्रयास इंदिरा गांधी ने किया था। अब बगैर घोषित आपातकाल के ऐसा किया जा रहा है लेकिन उससे कहीं ज्यादा घातक है नई तकनीकों के सहारे जनता के मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण पाने की कवायद जो पिछले कुछ बरसों में तेज होती और अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब होती स्पष्ट नजर आ रही है। मुख्यधारा की प्रेस अथवा आज की भाषा में मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया के जरिए इस प्रयास को इस हद तक कामयाबी मिल चुकी है कि आम जनमानस का अपने ही बुनियादी सवालों से फोकस पूरी तरह हट चुका है। यदि ऐसा न हुआ होता तो आज सत्ता के समक्ष भूख, बेरोजगारी, गिरती अर्थव्यवस्था आदि सवालों के आगे टिकना असंभव हो चला होता। कृषि प्रधान देश में किसानों को अलगावादी कह पुकारा जाना संभव ही नहीं होता लेकिन ऐसा संभव ‘इन्फॉरमेशन इकोसिस्टम’ में भारी बदलाव के जरिए सफलतापूर्वक किया गया। हमारे दिमाग पर काबू पाने के लिए उन चीजों का सहारा लिया जा रहा है जो ‘एमिग्डाला’ को सीधे एक्टिवेट करती हैं। इसका एक उदाहरण इतिहास के पुनर्लेखन का प्रयास है। न केवल पाठ्यक्रम की पुस्तकों में भारी बदलाव किया जा रहा है बल्कि अन्य सूचना तंत्रों का इस्तेमाल भी इस काम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जोर शोर से हो रहा है।
बॉलीवुड की फिल्मों के जरिए, नाना प्रकार की वेब सीरीजों के जरिए और फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप के सहारे उन मुद्दों को जनता के दिमाग में बैठाया जा रहा है जिनका सीधा वास्ता राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिंदुत्व की अवधारणा से है। 2019 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘मणिकार्निका-झांसी की रानी’, ‘उरी-दि सर्जिकल स्ट्राइक’ से लेकर हालिया रिलीज ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस नए ‘इंफारमेशन इकोसिस्टम’ का हिस्सा हैं। ‘मणिकार्निका’ में रानी लक्ष्मीबाई का किरदार निभाने वाली बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रणावत असल जीवन में हिंदुत्व की रानी बन चुकी हैं। उनके मानसिक स्तर और समझ को उनके उन ट्वीट्स के द्वारा समझा जा सकता है जिनके चलते ट्वीटर ने उन्हें सदैव के लिए अपने प्लेटफॉर्म से बाहर निकाल फेंका है, भारत की सरकार लेकिन उन्हें देश के चौथे बड़े सरकारी नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से सम्मानित कर स्पष्ट संदेश दे देती है कि उसकी दृष्टि में इन नागरिक सम्मानों के हकदार नए दौर के भारत में कौन और किस समझ के लोग हैं।
दशकों पहले दुष्यंत कुमार ने एक गजल कही थी- ‘कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए/कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए/यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है/चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए/न हो कमीज तो पांओं से पेट ढंक लेंगे/ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए/खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही/कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए/वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता/मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए/तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की/ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए/जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले/मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।’
जब दुष्यंत यह लिख रहे थे तब हालात इतने गरीब नहीं थे, आजादी बाद के सपने पूरी तरह मरे नहीं थे। फिर भी दुष्यंत ने वह लिख दिया जो भविष्य के भारत की तरफ संकेत करता था। आज देखिए मात्र पिचहत्तर बरस की यात्रा के बाद हालात ठीक वैसे ही बन चुके हैं जिनकी तरह दुष्यंत कुमार साठ के दशक में इशारा कर रहे थे। ‘अच्छे दिन’ भले ही आते दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हों, ईश्वर और खुदा के बीच की जंग एक हसीन ख्वाब की तरफ बहुसंख्यक आबादी के जेहन में काबिज हो चुकी है। नतीजा सामने हम सबके है। असल मुद्दों पर चर्चा, असल मुद्दों को लेकर जन आंदोलन, असल मुद्दों को लेकर सत्ता से सवाल-जवाब, सब इस ईश्वर बनाम खुदा की जंग में गौण किए जा चुके हैं। शायद ऐसे समय की आहट भांपकर ही दुष्यंत ने लिखा होगा ‘चलो यहां से चलें उम्र भर के लिए’। प्रश्न यह है कि जाएं तो जाएं कहां। पलायन करने का दम भी तो होना चाहिए।