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Editorial

…चीन से हार के बाद नेहरू की अंतरराष्ट्रीय छवि दरक गई

चीन अपनी Great Leap Forward नीति के चलते 1960 आते-आते भुखमरी की कगार पर आ खड़ा हुआ था। माओ के नेतृत्व में न केवल कम्युनिस्ट पार्टी, बल्कि आम जनता का भी भारी विरोध शुरू हो गया था। चीन के विभिन्न प्रदेशों में सशस्त्र विद्रोह, लूटपाट, हत्याओं-आत्महत्याओं के चलते माओ को PRC के चेयरमैन पद त्यागना पड़ा। ऐसे समय में नेहरू को चीन आकर सीमा विवाद सुलझाने के लिए दबाव डाल रहे चीनी प्रधानमंत्री को झूकना पड़ा। झू इनलाई 20 अप्रैल, 1960 में दिल्ली यात्रा पर आए। उनकी पांच दिवसीय यात्रा का मुख्य उद्देश्य सीमा विवाद पर बातचीत करना था। 20 तारीख यानी पहले दिन की वार्ता सुखद नहीं रही। जहां नेहरू 1914 की मैकमोहन रेखा के अनुसार सीमा निर्धारण पर अड़े रहे। झू इनलाई ने मैकमोहन लाइन को सिरे से खारिज कर दिया। दूसरा दिन, 21 अप्रैल ज्यादा खास रहा। झू इनलाई हमारे तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से औपचारिक भेंट करने पहुंचे। यह मुलाकात बेहद तल्ख हो चली जब डॉ. राधाकृष्णन ने चीनी प्रधानमंत्री पर तंज किया कि भारत द्वारा चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर में भारी मदद पहुंचाने का उपकार मानने के बजाय चीन ऑक्साई चीन पर कब्जा कर बैठा है और अब पूर्वोत्तर की सीमाओं पर भी अतिक्रमण कर रहा है। झू इनलाई इस बात से तिलमिला गए और यह शिष्टाचार भेंट बेहद तनावपूर्ण माहौल में समाप्त हो गई। नेहरू के साथ सरकारी मुलाकात भी खास नतीजे पर नहीं पहुंची। नेहरू ऑक्साई चीन पर चीनी कब्जे की बात पर अड़े रहे तो झू इनलाई नेहरू की बात मानने को तैयार नहीं हुए।

23 अप्रैल को हुई वार्ता में चीनी प्रधानमंत्री ने पहली बार स्वीकार किया कि यदि 1914 की मैकमोहन लाइन को चीन स्वीकार कर लेगा तो उसे यह भी स्वीकारना होगा कि तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था। झू इनलाई ऑक्साई चीन पर भी बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। उनका जोर पूर्वोत्तर के सीमा विवाद के बजाय पश्चिम सीमा विवाद का हल ढूंढ़ने पर था। इस दिन की वार्ता और इसके अगले दिन की वार्ता भी बेनतीजा रही। अंतिम दिन 25 अप्रैल इस मुद्दे पर विवाद में बीता कि वार्ता के अंत में जारी होने वाले संयुक्त घोषणा पत्र (Joint Declation) की भाषा क्या हो। नेहरू का कहना था कि हम स्पष्ट कहेंगे कि यह वार्ता Fail हो गई। झू इनलाई चाहते थे कि इस घोषणा पत्र में कहा जाए कि आगे वार्ता पंचशील के सिद्धांतों पर होगी लेकिन नेहरू ने साफ मना कर दिया। उनका कहना था जिस प्रकार चीन ने तिब्बत और ऑक्साई चीन पर कब्जा किया है, उसके बाद पंचशील की बात करना बेमानी होगी। इस असफल वार्ता का एकमात्र नतीजा दोनों देशों के बीच संबंधों का और ज्यादा बिगड़ना रहा।

वर्ष 1961 में नेहरू सरकार ने अपने बॉर्डर की सुरक्षा करने के लिए एक नई Policy बनाई जिसे Forward Policy कहा गया। भारतीय सेना की छोटी-छोटी संतरी पोस्ट पूरे बॉर्डर में तैनात कर दी गई। चीन इससे बौखला गया। लेकिन भारत के खिलाफ सैन्य कार्यवाही से पहले उसने दो महत्वपूर्ण बॉर्डर एग्रीमेंट कर डाले। ये थे बर्मा और नेपाल के साथ। इसके बाद अप्रैल में उसने भारत के साथ वार्ता का नाटक कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि वह शांतिपूर्वक भारत संग सीमा विवाद सुलझाना चाहता है लेकिन भारत इसके लिए तैयार नहीं है। माओ के नेतृत्व पर इस दौरान भारी संकट आ चुका था, चीन के कई नेताओं ने उनकी विदेश नीति पर भी प्रश्न करने लगे थे। चीन के विदेश नीति विशेषज्ञ वांग जियाजियांग ने एक नया प्रस्ताव सामने रखा। यह प्रस्ताव/नीति ‘सानही चिशहाओ’ (तीन समझौते, एक कटौती) (Reconciliation, One Reduction) नीति थी। इसमें अमेरिका, सोवियत संघ और भारत संग तनाव खत्म करना और खराब अर्थव्यवस्था के चलते देश और विदेशी देशों को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद की जाए। माओ ने इसको पूरी तरह खारिज कर दिया। क्योंकि माओ का मानना था कि जो आर्थिक मदद चीन अन्य देशों को दे रहा है उसका मकसद कम्युनिज्म। वामपंथ का विस्तार करना है। साथ ही बॉर्डर पर समझौता चीन की विस्तारवादी नीति के खिलाफ इस सबके बीच माओ ने भारत पर आक्रमण का निर्णय लिया। 20 अक्टूबर, 1962 को चीनी फौजों ने एक साथ हमारे पूर्वी और पश्चिमी सेक्टरों में हमला कर दिया।

 

इस युद्ध के नतीजों को लेकर कहा जा सकता है कि इससे दोनों देशों को भारी नुकसान तो हुआ ही माओ और नेहरू की अंतरराष्ट्रीय पटल पर छवि भी दरकी। नेहरू विशेष रूप से कमजोर पड़ गए। तीसरी दुनिया के सर्वमान्य नेता बन रहे नेहरू या भारत के हाथों से यह लीडरशीप निकल गई।

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