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Editorial

नेहरू की विदेश नीति

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-45
 
जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्वकाल की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि सशक्त विदेश नीति मानी जाती है। नेहरू ने विदेश मंत्रालय को अपने पास ही रखा था। आंतरिक मसलों के साथ-साथ नेहरू ने भारत की विदेश नीति पर भी अपनी सीधी पकड़ रख अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने का काम किया। देश के अंदरूनी मामलों से निपटने के लिए उनके पास सरदार वल्लभ भाई पटेल और अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का साथ था लेकिन विदेश नीति पर पूरी तरह नेहरू का एकछत्र अधिकार रहा। उनकी विदेश नीति पर उनकी विचारधारा का भारी प्रभाव देखने को मिलता है। ‘पंचशील’, ‘निर्गुटता’, ‘साम्राज्यवाद का विरोध’ और ‘रंगभेद का प्रतिकार’ इसमें प्रमुख हैं। उन्होंने भारत को दो धु्रवी विश्व के कालखंड में किसी एक के साथ खड़ा नहीं रखने की नीति अपनाई। अमेरिकी और सोवियत खेमां में बंटी दुनिया को नेहरू ने निर्गुट आंदोलन के जरिए एक नई दिशा देने की महत्वपूर्ण पहल की जिस चलते अंतरराष्ट्रीय फलक पर वे एक कद्दावर नेता बतौर बन उभरे। आईसीएस अफसर और आजाद भारत के पहले विदेश सचिव के.पी .एस. मेनन को लिखे एक पत्र में नेहरू ने अपनी इस निर्गुट नीति की बाबत लिखा ‘Our general policy is to avoid entanglement in power politics and not to join any group of powers as aganist any group. The two leading groups today are the Russian block and the Anglo-American block. We must be friendly to both and yet not join either. Both American and Russia are extraordinarily suspecious of each other as well as of other-countries. This makes our path difficult and we may well be suspected by each of leaning towords the other. This can not be helped’ (हमारी सामान्य नीति शक्ति की राजनीति से दूर रहने और किसी एक शक्ति केंद्र से दूसरे शक्ति केंद्र के खिलाफ न जुड़ने की है। रूस और अमेरिकी खेमे इस समय के दो सबसे बड़े शक्ति केंद्र हैं। हमें दोनां के साथ मित्रतापूर्ण संबंध जरूर बनाने हैं लेकिन किसी एक खेमे का साथ जुड़ना नहीं है। ये दोनों, अमेरिका और रूस एक-दूसरे के प्रति अत्याधिक शंका की भावना रखते हैं और दूसरे देशों संग भी इनका ऐसा ही दृष्टिकोण है। इस चलते हमारी राह कठिन हो जाती है क्योंकि दोनों ही यह शक करेंगे कि हम किसके साथ हैं।) नेहरू का उद्देश्य ऐसी विदेश नीति का निर्माण करना था जिसके दम पर भारत अपनी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति विदेशी राष्ट्रों की मदद से कर सके। दिसंबर, 1947 को संविधान सभा की बैठक में नेहरू ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था ‘अंततः विदेश नीति आर्थिक नीति पर निर्भर करती है और जब तक भारत अपनी आर्थिक नीतियों को स्पष्ट तय नहीं कर लेता, उसकी विदेश नीति अस्पष्ट और अपूर्ण(Vague and inchoate) रहेगी। नेहरू की वैश्विक सोच आजादी के आंदोलन दौरान ही विकसित होने लगी थी। 1927 में अपनी सोवियत यात्रा के दौरान उन्होंने समाजवाद को समझा और ताउम्र उससे प्रभावित रहे।
फासिज्म और नाजीवाद के घोर आलोचक नेहरू स्पेन गृह युद्ध के दौरान पूरी शिद्दत के साथ फासीवादी ताकतों के खिलाफ संघर्षरत स्पेन के आंदोलनकारियों के साथ खड़े रहे। दिसंबर, 1936 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में नेहरू ने स्पेन के गृह युद्ध का हवाला देते हुए कहा ‘In spain today, our battles are being fought and we watch this struggle not merely with sympathy of friendly out siders, but with the painful anxieties of those who are themselves involved with’ (स्पेन में इन दिनों, हमारी लड़ाई लड़ी जा रही है और हम इसे केवल बाहरी मित्रों की सहानुभूति के नजरिए से नहीं देख रहे हैं बल्कि युद्धरत आंदोलनकारियों की आशंकाओं को भी पूरी तरह महसूस कर रहे हैं)। जून, 1938 में जब यह गृह युद्ध अपने चरम पर था, नेहरू अपने युद्धरत साथियों का हौसला अफजाई करने बार्सिलोना जा पहुंचे। अपनी आत्मकथा ‘टूवर्ड फ्रीडम’ में नेहरू लिखते हैं ‘It was the Europe of 1938 with Mr. Neville chamberlin’s appeasement in full swing and marching over bodies of nations, betayred and crushed, to the final scene that was staged at Munich. There I entered in to this Europe of conflit by flying straight to Barcelona. There I remained for five days and watched the bombs fall nightly from the air. There I saw much else that impressed me powerfully; and there, in the midst of want and destruction and ever-impending disaster, I fell more at peace with myself than anywhere else in Europe. There was light there, the light of courage and determination and of doing something worth while’ (यह 1938 का यूरोप था जब मिस्टर नेविल चेम्बरलेन का तृष्टिकरण पूरे जोरों पर था और राष्ट्रों के शवों पर चल रहा था। जिन्हें धोखा दे कुचल दिया गया था। यह वह दृश्य था जो अंतिम समय पर म्यूनिख में देखा गया। मैंने सीधे बार्सिलोना पहुंच वहां चल रहे संघर्ष को देखा। पांच दिन के अपने प्रवास में, मैंने प्रत्येक रात बम हवा से गिरते देखे। वहां मैंने और भी बहुत कुछ देखा जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। अभाव और विनाश के बीच और हमेशा महसूसी जाने वाली आपदा के मध्य मैंने यूरोप की बनिस्पत यहां शांति महसूस की। वहां उजाला था, साहस और संकल्प का प्रकाश था और कुछ सार्थक करने का जज्बा भी।)
 मार्च 1947, में दिल्ली में ‘एशियाई संबंध सम्मेलन’ का आयोजन नेहरू के प्रयासों का ही परिणाम रहा। 28 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। एशियाई देशों में नेहरू का कद इस सम्मेलन के बाद तेजी से बढ़ा। 1949 में नेहरू अमेरिका की यात्रा पर गए। अमेरिका नेहरू की निर्गुट नीति को संदेह की दृष्टि से देखता था। उसका मानना था कि नेहरू का झुकाव सोवियत संघ की तरफ बढ़ रहा है। वैसे भी भारत को लेकर अमेरिका का ज्ञान सीमित था। पत्रकार और मैन्चेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में शोधकर्ता हैराल्ड आर. इबाक्स के अनुसार अमेरिकियों की नजर में भारत को चार वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला चमक-दमक वाला भारत, जहां राजा-महाराजा, जादूगर और विशालकाय जानवर हैं, दूसरा रहस्यमय भारत, जहां अजीबो-गरीब तांत्रिक विधियों का प्रयोग होता है, तीसरा वह, जहां जानवरों और कई सिर वाले भगवानों की पूजा करने मूर्ख रहते हैं और चौथा गरीब भारत, जहां चौतरफा भुखमरी और बदहाली है। भारत के बारे में इस प्रकार की धारणा रखने वाले अमेरिका ने लेकिन नेहरू को हाथों हाथ लिया। उन्हें कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने डॉक्टर की मानद उपाधि से सम्मानित किया। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ने उन्हें अपने यहां भाषण देने के लिए बुलाया। नेहरू ने अमेरिकी धरती पर अपने विचार दृढ़तापूर्वक रखते हुए विश्व को दो खेमों में बांटे जाने की सख्त मुखालफत कर भारत की निर्गुट नीति अमेरिकियों के सामने रख भारत के प्रति आम अमेरिकी नागरिकों के दृष्टिकोण को बदलने का काम किया। 13 अक्टूबर को नेहरू ने अमेरिकी संसद को संबोधित करते हुए कहा ‘I have come here…on a voyage of discovery of the mind and heart of America and to place before you our own mind and heart. Thus we may promote that understanding and cooperation which, I feel sure, both our countries earnestly desire’  (मैं यहां आया हूं …अमेरिका के दिल और दिमाग को खोजने-समझने के लिए और आपके समक्ष अपना दिल और दिमाग रखने के लिए। ताकि हम उस समझ और सहयोग को विकसित कर सकें जिसे दोनों देश चाहते हैं।) नेहरू लेकिन अमेरिकी सरकार का दिल नहीं जीत सकें। ट्रूमैन प्रशासन ने भारत को आर्थिक सहायता देने में दिलचस्पी नहीं दिखाई लेकिन अमेरिकी जनता पर नेहरू अपनी गहरी छाप डालने में सफल रहे। ‘शिकागो टाइम्स’ ने लिखा ‘In many ways Nehru is the nearest thing this generation has to a Thomas Jefferson in his way of giving voice to the universal aspirations for freedom of people every where’ (कई मायनों में वर्तमान पीढ़ी के लिए नेहरू थॉमस जफरसन की भांति सभी के लिए स्वतंत्रता की बात करने वाले सार्वभौमिक आकांक्षाओं के प्रतीक हैं)। ‘सेंट लुईस पोस्ट’ ने नेहरू की यात्रा के बाद लिखा ‘Nehru has departed from us, leaving behind clouds of misty-eyed women’ (नेहरू अपने पीछे महिलाओं की आंखों में नमी छोड़ गए हैं।)
गुटनिरपेक्ष आंदोलन नेहरू की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में एक गिना जाता है। नेहरू इस आंदोलन के संस्थापकों में से एक थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध की चपेट में आ दो खेमों में बंटे विश्व के एक खेमे का नेतृत्व साम्वादी विचारधारा वाला सोवियत संघ तो दूसरे का पूंजीवादी विचारधारा वाला अमेरिका कर रहा था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन 1950 से 1953 तक उत्तर और दक्षिण कोरिया के मध्य चली लड़ाई के बाद अस्तित्व में आया। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ‘मित्र राष्ट्रों’ की मित्रता खटाई में पड़ने लगी। अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य इस युद्ध पश्चात् मतभेद गहराते चले गए जिसका नतीजा ‘शीत युद्ध’ के रूप में प्रकट हुआ। यूरोपीय देश अमेरिका एवं सोवियत संघ के खेमों में बंट गए। उत्तरी कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर 24 जून, 1950 में आक्रमण कर इस ‘शीत युद्ध’ को खासा गर्मा दिया। सोवियत संघ और चीन उत्तरी कोरिया के पक्ष में आ खड़े हुए तो अमेरिकी खेमा दक्षिण कोरिया के। सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव से चिंतित अमेरिकी खेमा 1949 में ‘नाटो’ का गठन कर चुका था। ‘उत्तर अटलांटिक संधि संगठन’ (North Atlantic Treaty Organisation) यूरोप के 28 देशों का अमेकि संग किया गया सैन्य सहायता करार है। 1949 में 4 अप्रैल, के दिन अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी.सी. में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। कोरियाई युद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत संघ की पहल पर सोवियत संघ के खेमे वाले देशों ने ‘नाटो’ की तर्ज पर डब्लूटीओ (वारसो संधि संगठन) का गठन कर डाला।

 

क्रमशः

 

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