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Editorial

भारत की एकता के सूत्राधार थे नेहरू

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-56
 
 

जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल की खूबियों और कमियों के इस संक्षिप्त ब्योरे के बाद अब वापस लौटते हैं नेहरू की उस ‘भूल’ पर जिसके चलते न केवल उनकी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय छवि दरकी थी, बल्कि स्वयं नेहरू का ओज जिसने समाप्त करने का काम करा था। यह भूल थी चीन की कूटनीतिक चालों को समय रहते न समझा जाना। दलाईलामा को राजनीतिक शरण देने के बाद चीन ने तेजी से भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया था। अक्टूबर,1959 में चीन की पीपुल्स  लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने ऑक्साई चीन के कोंगका दर्रे में तैनात नौ भारतीय सैनिकों को मार डाला। 1960 में चीन के प्रधानमंत्री ने पहली बार ऑक्साई चीन को अपना क्षेत्र घोषित करते हुए भारत से अपना दावा छोड़ने की बात कही। बदले में चाउ-इन लाई ने नेफा इलाके पर चीन का दावा समाप्त किए जाने का प्रस्ताव रखा। भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर डाला था कि दोनों ही इलाके स्पष्ट रूप से भारत के हैं जिन पर चीन का कोई दावा नहीं बनता है। 1961 में नेहरू ने बीएम कौल को भारतीय थल सेना का नया उपप्रमुख बनाया। कौल को नेफा सीमाओं पर भारतीय सेना की स्थिति मजबूत करने का दायित्व दिया गया। जनरल कौल ने चीन के साथ लगी सीमाओं पर भारतीय सेना की गश्त तेज करने के साथ- साथ ऐसे इलाकों में सेना की नई चौकी बनाने का काम युद्ध स्तर पर शुरू कर चीनियों को नाराजगी बढ़ाने का काम कर डाला। कौल की इस नीति को ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ का नाम दिया गया। जनरल कौल ने चीन संग लगी भारतीय सीमाओं में 60 नई सैन्य चौकियां बनाईं जिनमें से 46 अकेले ऑक्साई चीन क्षेत्र में बनाई गई थी। 1962 आते- आते चीन को पूरा विश्वास हो चला था कि भारत का इरादा चीन पर हमला करने का बन चुका है। उनकी इस धारणा को पुख्ता करने का काम तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 4 फरवरी, 1962 को अपने एक बयान से कर डाला। शास्त्री ने चीन को चेतावनी देते हुए कहा, ‘यदि चीनी भारतीय इलाकों को अपने कब्जे से मुक्त नहीं करते हैं तो भारत को वही करना पड़ेगा जो उसने गोवा में किया।’  तिब्बती मामलों के विशेषज्ञ जॉर्ज पैटरसन जिन्हें ‘पैटरसन ऑफ तिब्बत ‘के नाम से पुकारा जाता है, अपनी पुस्तक ‘पेकिंग बनाम दिल्ली’ में लिखते हैं कि एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता ने चीन की आशंकाओं को यह कह पुष्ट करने का काम किया कि ‘चीन द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जा हटाने के लिए भारत ऐसे कदम उठाएगा जैसे उसने गोवा से पुर्तगालियों को भगाने के लिए उठाए।

जनरल बीएम कौल द्वारा भारतीय सीमाओं पर नई सैनिक चौकियों का निर्माण भी चीन की चिंताओं और आशंकाओं को बढ़ाने का एक कारण रहा। चीनी विदेश मंत्री मार्शल चेन यो ने एक उच्च स्तरीय मीटिंग में नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते हुए कहा था-‘नेहरू की फॉरवर्ड नीति एक छूरे के समान है जिसे वह हमारे दिल में उतारना चाहते हैं। हम आंख बंद कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं।’ 22 सितंबर, 1962 को चीन के सरकारी समाचार पत्र ‘पीपुल्स डेली’ में छपा कि सीमा पर भारतीय सेना की कार्रवाई से नाराज चीन की जनता क्रोध की अग्नि में धधक रही है। अब नई दिल्ली यह दावा नहीं कर पाएगा कि चीन ने उसे चेताया नहीं है।’
नेहरू सरकार निश्चित ही चीन के इरादों को समझने लगी थी। उसे आभास था कि दलाई लामा को राजनीतिक शरण दिए जाने बाद दोनों देशों के मध्य संबंधों में भारी बदलाव आ चुका है। जनरल बीएम कौल द्वारा चीन से सटे सीमावर्ती इलाकों में भारतीय फौजों की सक्रियता ‘फॉरवर्ड नीति’ के जरिए तेज करना इसे प्रमाणित करता है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी (सीआईए) के अनुसार भारत लेकिन चीन की सैन्य क्षमता का सही आकलन नहीं कर पाया। चीन एक तरफ अपनी सेना को पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर तेजी से बढ़ाने का काम कर रहा था तो दूसरी अपने सरकारी मुख पत्र ‘पीपुल्स डेली’ के जरिए नेहरू को स्पष्ट संकेत भी देने लगा था कि यदि भारतीय सेना चीन के इलाकों में घुसपैठ करने से बाज नहीं आती है तो उसे जवाबी हमले के लिए तैयार रहना चाहिए। 14 अक्टूबर, 1962 को इस अखबार ने भारत को एक तरह से अंतिम चेतावनी जारी कर डाली। अखबार ने लिखा ‘तो यह निश्चित हो गया है कि श्रीमान नेहरू चीन की सीमाओं पर बड़े हमले की तैयारी कर रहे हैं …अब सही समय आ चुका है कि हम चिल्ला कर श्रीमान नेहरू को कहे ंकि हमारी बहादुर सेना, जिसने हमेशा ही विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई है, को उसकी धरती से कोई बेदखल नहीं कर सकता है….यदि फिर भी कुछ पागल हमारी राय को दरकिनार कर ऐसा करने का दुस्साहस करते हैं तो उन्हें प्रयास करने दो। इतिहास उन्हें अपना कठोर फैसला सुनाएगा….हम एक बार फिर श्रीमान नेहरू से अपील करना चाहेंगे कि अपने सैनिकों के जीवन संग खिलवाड़ करने वाला जुआ न खेलें।’
अंततः 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत की पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर एक साथ आक्रमण कर ही डाला। 19 नवंबर तक दोनों देशों के मध्य भीषण युद्ध चला। इस दौरान दोनों के मध्य शांति के प्रयास भी जारी रहे और दोनों ने ही आधिकारिक तौर पर इसे युद्ध करार नहीं दिया। 21 नवंबर, 1962 को चीन ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर इस एक माह के भीतर कब्जाए भारतीय इलाकों से पीछे हटना शुरू कर दिया। भारतीय पक्ष को इस युद्ध के दौरान भारी जान-माल की हानि उठानी पड़ी थी। कुल 1,383 भारतीय सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए, 3,968 को चीन ने बंदी बनाया और 1,696 लापता घोषित किए गए। रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन को इस शर्मनाक हार के बाद नेहरू मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया गया, ले ़ जनरल बीएम कौल को जबरन सेवानिवृत्ति दे दी गई थी और तत्कालीन थल सेना अध्यक्ष जनरल पीएन थापर ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए त्याग पत्र दे डाला था। नेहरू की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय छवि पर इस हार का खासा असर देखने को मिलता है। साथ ही इस युद्ध ने अमेरिका और भारत के संबंधों में भी बड़ा असर डालने का काम किया। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने नेहरू की गुहार पर भारतीय फौज के लिए बड़ी मात्रा में हथियार, लैंड माइन्स इत्यादि सैन्य सामग्री तत्काल उपलब्ध कराई थी। यह सहायता आगे चलकर दोनों राष्ट्रों के बीच संबंध प्रगाढ़ करने का आधार बनी। इस हार का एक बड़ा असर कांग्रेस की आमजन में लोकप्रियता और विश्वास कम होने बतौर सामने आता है। 1963 में हुए लोकसभा के उपचुनावों में राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी और मीनू मसानी जैसे नेहरू विरोधी विपक्षी दल के नेताओं की जीत इसे प्रमाणित करती है। केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के भीतर इस हार पश्चात् नेहरू का दबदबा भी कुछ हद तक कम हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री के .कामराज ने पार्टी की कम होती लोकप्रियता और जनाधार को वापस पाने के उद्देश्य से एक योजना नेहरू के सामने रखी। कामराज का सुझाव था कि नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सरकार छोड़ संगठन में वापसी कर पार्टी को मजबूत करने का काम करें। इस योजना को ‘कामराज प्लान’ कहा गया। इस योजना को लेकर नेहरू बहुत उत्साहित नहीं थे लेकिन पार्टी अध्यक्ष का दबाव और चीन के हाथों हुई पराजय ने कहीं भीतर से नेहरू को कमजोर करने का काम कर दिया था। ‘कामराज योजना’ इस कारण नेहरू को स्वीकारनी पड़ी। 6 कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों जिनमें स्वयं कामराज जो मद्रास (अब तमिलनाडु) के मुख्यमंत्री शामिल थे, ने इस्तीफा दिया। लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम समेत 6 केंद्रीय मंत्रियों ने भी पार्टी के लिए काम करने के उद्देश्य से इस्तीफा दे दिया था। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा ‘बियोन्ड द लाइंस’ में इस बाबत लिखा है- ‘चीन पर अपनी नीति को लेकर नेहरू कई प्रमुख कैबिनेट मंत्रियों की कटु आलोचना से आहत हो चले थे। ऐसे में के .कामराज ने सुझाव दिया कि कैबिनेट के सदस्यों को संस्थागत कार्य करके पार्टी को मजबूत करना चाहिए।’ कुलदीप नैय्यर का कहना है कि यह विचार दरअसल, नेहरू का ही था जिसे उन्होंने कामराज के जरिए लागू कराया। सच चाहे जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि इस हार ने नेहरू पर, उनके स्वास्थ पर, उनके निर्णय लेने की क्षमता आदि पर प्रतिकूल असर डाला था। 27 मई, 1964 की दोपहर 1ः20 मिनट पर नेहरू ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
नेहरू युग दृष्टा थे, नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता थे, नेहरू सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक थे और भारत की एकता के सूत्रधार थे। 1952 में पहले आम चुनाव बाद भारतीय लेखक नीराद सी. चौधरी ने उनकी बाबत लिखा- ‘नेहरू सरकारी तंत्र और आम जनता को एक साथ जोड़े हुए हैं। उनके बिना यह जटिल भारत शायद इस समय में एक स्थिर सरकार से वंचित रह जाता। उन्होंने न केवल दोनों के मध्य सहयोग सुनिश्चित किया है, बल्कि संभवतः सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों को भी थामा हुआ है। आज यदि महात्मा जी का नेतृत्व भी होता तो उनकी बराबरी नहीं कर पाता। यदि देश भीतर नेहरू शासक मध्यम वर्ग और संप्रभु जनता के बीच की अपरिहार्य कड़ी हैं, तो वे भारत और विश्व के बीच के संबंधों की कड़ी भी हैं, वह महान पश्चिमी लोकतंत्रों के मध्य भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं और भारत भीतर इन लोकतांत्रिक ताकतों का।’ चीन के विस्तारवादी चरित्र को न समझ पाना नेहरू के राजनीतिक जीवन यात्रा का सबसे राष्ट्रपूर्ण पड़ाव और सबसे बड़ी दुर्घटना थी जिसने उनके मनोबल को तोड़ने और उनकी छवि को आमजन में प्रदूषित करने का काम किया। इस हार के बाद उनके विरोधियों ने उन्हें जमकर लांछित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। देश की सड़कों पर नारे गूंजने लगे थे कि ‘देश की सीमा रोती है, बेशर्म हुकूमत सोती है।’ नेहरू इन सबसे बेहद टूट गए।
देश की स्वतंत्रता के लिए हुए संग्राम के महानायक, आजादी पश्चात बतौर प्रधानमंत्री आधुनिक, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील राष्ट्र की नींव रखने वाले नेहरू का संपूर्ण व्यक्तित्व एक-दूसरे प्रधानमंत्री की नजरों में कितना ऊंचा था इसे उन्हीं के शब्दों में समझा जा सकता है-‘महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी (जवाहर लाल नेहरू) के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वे शक्ति के पुजारी, किंतु क्रांति के अग्रदूत थे, वे अहिंसा के उपासक थे, किंतु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने के लिए किसी से भय नहीं खाया, किंतु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया।

पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण का प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हटवादिता समझा।’ यह शब्द श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हैं। उन्हीं अटल जी के जिन्होंने भाजपा की नींव 1980 में रखी। वही भाजपा जिसका वर्तमान नेतृत्व आज भी नेहरू से इतना आक्रांत और आतंकित है कि अपनी असफलताओं के लिए वह स्वयं जिम्मेदारी लेने का साहस न रखते हुए, सब कुछ जो इन पिचहत्तर बरसों के दौरान गलत हुआ है, उसका दोष नेहरू की नीतियों पर डाल रहा है। नेहरू लेकिन ऐसे मिथ्यापूर्ण दोषारोपण से पराजित होने वाले नहीं हैं। जब तक देश है, देश में लोकतंत्र कायम है, नेहरू बने रहेंगे।

क्रमशः

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