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Editorial

शास्त्री की ईमानदारी के कायल थे नेहरू

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-58

 

वर्तमान उत्तर प्रदेश के शहर बनारस के निकट मुगलसराय (अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर) में 2 अक्टूबर, 1904 को एक निर्धन परिवार में शारदा प्रसाद श्रीवास्तव और रामदुलारी देवी के घर दूसरी संतान के रूप में एक बालक का जन्म हुआ जिनका नाम रखा गया लाल बहादुर। इस बालक के जन्म के मात्र 18 महीने बाद ही शारदा प्रसाद का निधन हो गया। बालक लाल बहादुर का बचपन अपने ननिहाल में बीता। 1917 में 13 वर्ष के लाल बहादुर आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आ गए। जब वे सत्रह बरस के थे तब पहली बार उन्हें महात्मा गांधी को देखने और सुनने का अवसर मिला। लाल बहादुर तब दसवीं कक्षा में थे। गांधी जनवरी 1921 में महामना मदन मोहन मालवीय के निमंत्रण पर बनारस पहुंचे थे। रॉलेट एक्ट के खिलाफ उन्होंने ‘असहयोग आंदोलन’ 1920 में शुरू कर दिया था और इस आंदोलन को तेज करने के लिए वे पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे। बनारस में उन्होंने एक जनसभा को संबोधित करते हुए युवाओं से आह्नान किया कि वे सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार कर देश सेवा में अपना योगदान दें। गांधी ने कहा ‘यह तुम्हारा युग धर्म है। तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए फिर भले ही इसके लिए तुम्हें अपने बड़ों की आज्ञा के खिलाफ ही क्यों न जाना पड़े। मां भारती को तुम्हारी जरूरत है। उसे निराश मत करना।’ महात्मा के इन शब्दों ने लाल बहादुर को कहीं भीतर तक बेहद उद्वेलित कर दिया। उसने तत्काल तय कर लिया कि वह दसवीं की परीक्षा का बहिष्कार करेगा और कांग्रेस में शामिल हो देश सेवा करेगा। बाकी सब इतिहास है। लाल बहादुर ने जो ठाना वही किया भी। गांधी ने अपनी इस बनारस यात्रा के दौरान एक शिक्षण संस्था काशी विद्या पीठ का उद्घाटन भी किया। काशी विद्या पीठ देश का पहला हिंदी माध्यम में शिक्षा देने वाला विश्वविद्यालय कालांतर में बना। लाल बहादुर ने सरकारी स्कूल छोड़ इस विद्यापीठ में चार बरस के एक कोर्स में दाखिला लिया जिसे पूरा करने के बाद उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि मिली जिसके चलते वे लाल बहादुर शास्त्री कहलाए। काशी विद्यापीठ में लाल बहादुर का संपर्क ख्याति प्राप्त शिक्षक और विचारक डॉ ़ भगवान दास से हुआ। भारतीय दर्शन के गहन अध्येता डॉ ़ भगवान दास ने लाल बहादुर को गढ़ने का काम किया। डॉ ़ भगवान दास, जिन्हें आजादी पश्चात् भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया था, ने शास्त्री को अपने दर्शन ‘समन्वयवाद’ से परिचय कराया। इस दर्शन ने शास्त्री को गहरे प्रभावित किया। समन्वयवाद का अर्थ है सभी को साथ लेकर, सभी के विचारों का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना। डॉ ़ भगवान दास अपने विद्यार्थियों को कहा करते थे कि यह कहने के बजाए कि ‘यही बात ठीक है, यह कहना उचित होगा कि ‘यह बात भी ठीक है।’ इस तरह से विपरीत विचार वाला व्यक्ति भी आहत नहीं होगा और किसी भी समस्या का समाधान, बातचीत के जरिए बगैर किसी का अपमान किए, निकल आएगा। शास्त्री ने ताउम्र अपने मार्गदर्शक की इस सीख का अनुसरण किया।

1925 में काशी विद्या पीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त करने पश्चात् लाल बहादुर विधिवत रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए। 1929 में बतौर कांग्रेस कार्यकर्ता वे दिग्गज कांग्रेसी नेता और इलाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन के करीब आए। टंडन ने उन्हें जिला प्रदेश कमेटी के दायित्व दिए। इलाहाबाद कांग्रेस में काम करने का नतीजा रहा शास्त्री का नेहरू से मिलना और अपनी कार्यक्षमता से उन्हें गहरा प्रभावित करना। समन्वयवाद की नीति ने यहां अपना भारी असर दिखाया। नेहरू और टंडन के विचार आपस में बिल्कुल नहीं मिलते थे। यह कहा जा सकता है कि इलाहाबाद कांग्रेस और बाद में राष्ट्रीय स्तर पर भी टंडन और नेहरू के धड़े अलग- अलग ही रहे। शास्त्री अकेले ऐसे कांग्रेसी थे जिन पर इन दोनों दिग्गजों का हमेशा विश्वास बना रहा। 1930 से 1945 के मध्य लाल बहादुर शास्त्री अनेकों बार ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ्तार किए गए थे। कुल मिलाकर शास्त्री ने नौ बरस जेल में ही काटे। शास्त्री के सद्चरित्र और सत्यनिष्ठा का परिचय इस दौरान की दो घटनाओं से मिलता है। पहली घटना बेहद दुखद है। शास्त्री जब जेल में कैद थे उन्हीं दिनों उनकी सबसे बड़ी पुत्री मंजू गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। जेल नियमों के अनुसार पिता होने के नाते शास्त्री को जेल से कुछ दिनों की रिहाई (पेरौल) मिल सकती थी। इस पेरौल के लिए लेकिन नियमानुसार शास्त्री को यह लिखकर देना जरूरी था कि वे इस रिहाई काल में किसी भी प्रकार के राजनीतिक कार्य नहीं करेंगे। शास्त्री को लगा कि एक राजनीतिक व्यक्ति होने के नाते ऐसा कर पाना उनके लिए चूंकि संभव नहीं होगा इसलिए उन्होंने जेलर को इस प्रकार का आश्वस्ती पत्र देने से इंकार कर दिया। जेलर शास्त्री के व्यक्त्वि से गहरे प्रभावित थे। इस चलते उन्होंने बगैर शपथ पत्र ही शास्त्री को पंद्रह दिनों की रिहाई अपनी जिम्मेवारी पर दे दी। शास्त्री जिस दिन घर पहुंचे उसी दिन मंजू का निधन हो गया। लाल बहादुर पुत्री का अंतिम संस्कार कर वापस जेल चले गए। यदि वे चाहते तो वे पंद्रह दिन घर पर रह सकते थे लेकिन उन्होंने यह कहते हुए कि मुझे पुत्री की सेवा करने के लिए पेरौल पर छोड़ा गया था, अब जब मेरी पुत्री ही नहीं रही, मेरा जेल जाना ही न्यायोचित होगा, तत्काल जेल वापसी का निर्णय ले लिया। इसी प्रकार एक अन्य अवसर पर शास्त्री के बड़े बेटे हरिकृष्ण की तबियत बेहद बिगड़ गई। इस वक्त भी शास्त्री कैद में थे। उन्हें एक हफ्ते का पेरौल दिया गया। इस दौरान हरिकृष्ण की अवस्था गंभीर बनी हुई थी। जेलर ने शास्त्री के पास संदेश भिजवाया कि यदि वे चाहें तो कुछ और दिन उनका पेरौल बढ़ाया जा सकता है लेकिन इसके लिए उन्हें लिखित में शपथ पत्र देना होगा कि वे राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहेंगे। लाल बहादुर ने ऐसा करने के बजाय जेल वापसी का मार्ग चुनना बेहतर समझा। यह सब जानना वर्तमान समय में इसलिए आवश्यक है कि शास्त्री सरीखे व्यक्तित्व अब सार्वजनिक जीवन में तलाशे नहीं मिलते हैं। बीते पिचहत्तर बरसों में एक नहीं अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जहां शक्तिशाली राजनेताओं, पूंजीपतियों और बाहुबलियों ने सजा मिलने पश्चात् इस पेरौल नीति का सहारा ले लंबी अवधि जेल के बाहर रहने का रिकॉर्ड स्थापित किया है।
1946 में हुए प्रांतीय और केंद्रीय सभा के चुनावों बाद संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में कांग्रेस की सरकार का गठन हुआ। पंडित गोविंद बल्लभ पंत इस प्रांत के मुख्यमंत्री बनाए गए। पंत ने पहले शास्त्री को अपना संसदीय सचिव नियुक्ति किया और फिर उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर गृह एवं परिवहन जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का दायित्व सौंप दिया। आजादी पश्चात् 1951 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने शास्त्री को उत्तर प्रदेश छोड़ दिल्ली बुला कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया। बतौर महासचिव शास्त्री को 1952 में होने जा रहे पहले आम चुनावों के लिए पार्टी के प्रत्याशियों का चयन करने और चुनाव प्रचार संभालने की जिम्मेदारी नेहरू ने दी। नेहरू न केवल शास्त्री की ईमानदारी के बेहद कायल थे, बल्कि वे शास्त्री के ‘समन्वयवाद’ के सिद्धांत की ताकत को भी पहचानते थे। कांग्रेस संगठन के प्रति शास्त्री के समर्पण को नेहरू 1950 में हुए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव दौरान नजदीक से देख चुके थे। इस चुनाव को नेहरू ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता और प्रधानमंत्री होने के बावजूद पार्टी भीतर एक नेहरू विरोधी धड़ा आजादी बाद तेजी से उभर उनकी सत्ता को चुनौती देने लगा था। इस धड़े का नेतृत्व पुरुषोत्तम दास टंडन कर रहे थे जिन्हें अप्रत्यक्ष तौर पर उपप्रधानमंत्री बल्लभ भाई पटेल का समर्थन प्राप्त था। 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए दो दिग्गजों मध्य टकराव हुआ। नेहरू की मंशा आचार्य जेबी कृपलानी को अध्यक्ष बनाने की थी तो सरदार पटेल पुरुषोत्तम दास टंडन के लिए पैरोकारी कर रहे थे। नेहरू और टंडन की राजनीतिक कर्मभूमि इलाहाबाद थी। दोनों के संबंध इस कर्मभूमि की राजनीति से जुड़े थे और लंबे अर्से से तनावपूर्ण रहते आए थे। नेहरू टंडन को किसी भी सूरत में पार्टी अध्यक्ष नहीं बनने देना चाहते थे। उन्होंने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ यहां तक संकेत दे डाले थे कि यदि कृपालानी चुनाव हार जाते हैं तो वे स्वयं भी प्रधानमंत्री पद छोड़ देंगे। उनकी यह धमकी भी निष्फल रही और टंडन भारी मतों के अंतर से चुनाव जीत गए। हालांकि नेहरू ने प्रधानमंत्री पद नहीं छोड़ा लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी से वे बाहर हो गए। शास्त्री तब संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के गृह मंत्री थे। उन्होंने अपने दोनों मार्गदर्शकों के मध्य सेतु बनाने का भरसक प्रयास किया, नेहरू लेकिन माने नहीं। अंततः पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और उनके स्थान पर नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष का दायित्व भी मिला। 1951 में शास्त्री के प्रयासों और उनकी सांगठनिक क्षमता को समझते हुए नेहरू ने उन्हें पार्टी का केंद्रीय महासचिव बना राष्ट्रीय राजनीति में उभरने का अवसर प्रदान किया। लाल बहादुर इस तरह से केंद्र की राजनीति की धुरी बन बैठे। बतौर महासचिव उन्होंने पहले आम चुनाव के दौरान कांग्रेस प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक की जिम्मेदारी को निभाया। इस दौरान उन्हें पूरे देश का भ्रमण करने और प्रदेश कांग्रेस के नेताओं संग संवाद करने का अवसर मिला जो कालांतर में नेहरू के बाद उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने में सहायक हुआ। चुनाव बाद बनी सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया। चूंकि स्वयं शास्त्री ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था इसलिए नेहरू ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी बनाया। शास्त्री को केंद्रीय रेल एवं परिवहन मंत्रालय का दायित्व दिया गया। बतौर रेल मंत्री शास्त्री ने यात्री ट्रेन और माल गाड़ियों की क्षमता एवं गुणवत्ता बढ़ाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने लंबी दूरी की रेलों में वातानुकूलित शयनयानों की शुरुआत की। आम जनता की यात्रा सुगम बनाने के लिए ‘जनता ट्रेन’ शुरू करवाई जिसमें यात्रियों को सस्ते दर पर भोजन उपलब्ध कराया गया। रेल यात्रा के दौरान यात्रियों की जान-माल की रक्षा के लिए विशेष पुलिस बल ‘रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स’ की नींव रखी। चित्तरंजन इंजन कारखाने की क्षमता को बढ़ाया गया। 120 इंजन प्रति वर्ष तैयार करने वाले इस कारखाने की क्षमता शास्त्री के संक्षिप्त कार्यकाल में 200 इंजन प्रति वर्ष करे जाने का रिकॉर्ड स्थापित किया। लाल बहादुर 13 मई, 1952 को रेल मंत्री बने थे।

 

क्रमशः
 

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