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Editorial

आधुनिक भारत के निर्माता हैं नेहरू

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-49
 

नेहरू स्वयं समान आचार संहिता लाने के प्रबल पक्षधर थे लेकिन विभाजन के चलते पैदा हुई परिस्थितियों, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय में भारत के प्रति विश्वास बनाए रखने की विवशता चलते वे ऐसा कर पाने का साहस नहीं जुटा पाए। बहुसंख्यकों के लिए लाए जा रहे हिंदू कोड बिल जिसमें हिंदुओं के साथ-साथ सिख, बौद्ध और जैन शामिल थे, का भी भारी विरोध कांग्रेस भीतर ही उठना शुरू हो गया था जिसने नेहरू को कमजोर करने का काम किया। स्वयं संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके पक्ष में नहीं थे। मार्च 1949 में तो बकायदा एक ‘अखिल भारतीय हिंदू विरोधी संहिता विधेयक समिति’ का गठन किया गया जिसका नेतृत्व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद के संस्थापक हरिहरानंद सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज कर रहे थे। इस संगठन का मानना था कि यह बिल हिंदुओं के रीति-रिवाजों, परंपराओं और धर्म शास्त्रों के विरुद्ध है। करपात्री महाराज की इस मुहिम को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिंदू महासभा समेत कई हिंदूवादी संगठनों का समर्थन था। संघ ने 11 सितंबर, 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक जनसभा में इस बिल को ‘हिंदू समाज पर फेंका जा रहा परमाणु बम’ तक की संज्ञा दे डाली थी। भारी मशक्कत के बाद अंततः तत्कालीन कानून मंत्री डॉ बीआर अंबेडकर ने 1951 में इस बिल को संसद में पेश कर ही दिया लेकिन संसद के भीतर और बाहर मचे घमासान चलते यह महत्वपूर्ण सुधारवादी कानून को नेहरू संसद से पारित कराने में असफल रहे थे। उन्होंने जल्द होने जा रहे पहले आम चुनावों का हवाला देते हुए इस बिल को स्थगित रख दिया। यहां पर समझा जाना व समझाया जाना जरूरी है कि भारत को आजादी मिलने के समय तक हिंदू समाज में पुरुषों और महिलाओं को तलाक का कानूनी अधिकार नहीं था। विधवा स्त्री का पुर्नविवाह भी संभव नहीं था और विधवाओं को संपत्ति के अधिकार से भी वंचित रखा गया था। पुरुष बहुविवाह कर सकते थे लेकिन स्त्रियों को यह छूट नहीं थी। अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत किए गए हिंदू कोड बिल में व्यापक सुधार करते हुए विधवा अथवा उसके बच्चों को पिता की संपत्ति पर बराबर का अधिकार, पुत्री को पिता की संपत्ति पर बराबर का हिस्सा, हिंदू पुरुष के बहुविवाह पर रोक तथा पुरुष अथवा महिलाओं को तलाक का अधिकार दिए जाने का प्रावधान रखा गया था। संसद में जब फरवरी 1951 में यह बिल पेश किया गया तब कट्टरपंथी हिंदूवादी संगठनों ने संसद के बाहर भारी धरना-प्रदर्शन किया था जिसमें नारे लगते थे ‘पाकिस्तान तोड़ दो, नेहरू हुकूमत छोड़ दो।’ अंबेडकर ने तत्काल इस बिल में बहस कराए जाने पर जोर दिया था। फरवरी के बाद सितंबर 1951 में एक बार फिर से बिल पर बहस शुरू हुई लेकिन सितंबर में ही संविधान सभा के भंग किए जाने और आम चुनावों की घोषणा होने चलते इस बिल पर चर्चा पूरी नहीं हो सकी। इस दौरान राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के भारी दबाव के कारण नेहरू ने पहली निर्वाचित संसद में इस बिल को रखे जाने का निर्णय ले लिया जिससे आहत हो डॉ अंबेडकर ने अक्टूबर, 1951 में केंद्र सरकार से इस्तीफा दे डाला। 1952 के आम चुनावों में कांग्रेस को मिले भारी बहुमत ने नेहरू के आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम किया जिसका नतीजा रहा ‘हिंदू कोड बिल’ के स्थान पर इसमें प्रस्तावित सुधारों को अलग-अलग कानून बना संसद से पारित कराना। ‘हिंदू विवाह अधिनियम 1955‘, ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956’, ‘हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956’ एवं ‘हिंदू दत्तक तथा मरण-पोषण अधिनियम, 1956’ इसी हिंदू कोड बिल का हिस्सा और ऐसे बड़े सुधारवादी कदम हैं जिन्हें नेहरू सरकार ने तमाम विरोध के बावजूद लागू करने में सफलता पाई। तब तक इन कानूनों के रचयिता डॉ अंबेडकर अपना पहला चुनाव (1952) हारने के बाद राजनीतिक परिदृश्य में हाशिए पर जा चुके थे।

दिसंबर,1956 में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। नागा विद्रोह कश्मीर की भांति एक जटिल समस्या बतौर नेहरू सरकार को विरासत में मिला था। नागा जनजाति पूर्वी हिमालयी क्षेत्र में वास करने वाली एक ऐसी जनजाति है जो अपने रीति-रिवाजों का कठोरता से पालन करने के लिए आज भी जानी जाती है। आजादी के समय यह जनजाति पूरी तरह शेष भारत से अलग-थलग थी। इतनी अलग-थलग कि आजादी के आंदोलन से यह क्षेत्र पूरी तरह से अछूता रहा था। इस दौर में नागा पर्वतीय क्षेत्र असम राज्य का हिस्सा था जिसकी सीमाएं बर्मा, चीन और पूर्वी पाकिस्तान से जुड़ती थी। संस्कृति और सामाजिक दृष्टि से नागा पूरी तरह असम से भिन्न थे। 1946 में जैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत को आजादी दिए जाने की अपनी मंशा सार्वजनिक करी, नागा जनजाति में अपने अस्तित्व को लेकर बेचैनी पैदा होने लगी थी। 1946 में ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करने के उद्देश्य से नागा नेशनल काउंसिल का गठन किया गया जिसका मुख्य लक्ष्य एक स्वतंत्र नागा राष्ट्र की स्थापना करना था। इस संगठन ने अपनी मांगों को असम प्रांत के तत्कालीन गवर्नर सर अकबर हैदरी के समक्ष रखा जिन्होंने इस संगठन के साथ एक नौसूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर नागाओं को जल- जंगल और जमीन के हक-हकूक दिए जाने और उनके रीति-रिवाजों अनुसार उनके ही कानून वैध होने के अधिकार दे दिए गए। इस समझौते में यह व्यवस्था दी गई थी कि ‘The Governor of Assam as the agent of the Government of India will have a special responsibility for a period of 10 years to ensure that due observance of this agreement to be be expended for further period, or a new agreement regarding the future of the Naga people to be arrived at.'(असम के राज्यपाल का भारत सरकार के प्रतिनिधि बतौर यह विशेष दायित्व होगा कि 10 वर्षों तक इस समझौते का पालन हो और उसके बाद या तो इस समझौते को आगे बढ़ाया जाए अथवा नागा लोगों के भविष्य तय करने के लिए नया समझौता किया जाए।) आजादी पश्चात् नागा नेशनल काउंसिल और भारत सरकार के मध्य समझौते के इस बिंदु को लेकर मतांतर होने लगा। नागा पक्ष का तर्क था कि 10 बरस बाद उन्हें स्वतंत्र राष्ट्र बनाए जाने का अधिकार है तो दूसरी तरफ इस इलाके के भौगोलिक स्थिति का महत्व समझौते हुए भारत सरकार समझते की अवधि बढ़ाने के लिए तो तैयार थी लेकिन पृथक नागा राष्ट्र उसे कतई मंजूर नहीं था। यह मतांतर शीघ्र ही पृथकतावादी हिंसक आंदोलन में बदल गया। चौतरफा नाना प्रकार के संकटों से जूझ रही नेहरू सरकार  के सामने यह देश की अखंडता को बनाए रखने का एक बड़ा संकट बन उभरने लगा था। 1954 में भारतीय सेना के एक अधिकारी की मोटर साइकिल से टकरा नागा नेशनल काउंसिल के एक वरिष्ठ सदस्य की मृत्यु ने भारतीय सेना के प्रति नागाओं के आक्रोश को हिंसक बना डाला और पुरा इलाके में गृह युद्ध की स्थिति बन गई। हालात इस कदर खराब थे कि भारतीयों को यहां दुश्मन माना जाने लगा था। तत्कालीन गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने 1956 में संसद में स्वीकारा था कि ‘नागाओं संग चल रही हिंसक मुठभेड़ों में 68 सैनिकों की मृत्यु हो चुकी है और 370 विद्रोही भी मारे जा चुके हैं।’ नागा समस्या नेहरू सरकार के लिए ऐसा बड़ा संकट बन उभरी थी जिसका पूरा विस्तारण तमाम प्रयासों और शांति समझौतों के बावजूद आज तक पूरी तरह नहीं हो पाया है।

नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। वामपंथी एवं दक्षिणपंथी विचारक की नजरों में लेकिन नेहरू की आर्थिक नीतियां हमेशा से ही वर्तमान भारत की हर कमजोरी के लिए जिम्मेदार बताई जाती रही हैं। क्या नेहरू का मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल सही में आजाद भारत के लिए अपनाया गया सही मार्ग नहीं था? क्या नेहरू की आर्थिक नीति, विशेषकर भारी उद्योगों को स्थापित करने के लिए निजी के बजाए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम स्थापित करना नेहरू की भूल रही, जिसके चलते हम औद्योगीकरण में अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर पाए? और क्या जिस पूंजीवादी व्यवस्था का, हमारे वर्तमान नीति-नियंता स्वदेशी का मंत्र रटते-रटते प्रबल पैरोकार बन चुके हैं, वह पूंजीवादी व्यवस्था का मार्ग आजादी के बाद यदि हम अपनाते तो तात्कालिक हालातों के दृष्टिगत हम अपनी एकता और अखंडता को बचा पाते? इन प्रश्नों का उत्तर जटिल है जिसको तलाशने के लिए नेहरू की आर्थिक दृष्टि को समझना जरूरी हो जाता है। नेहरू की आर्थिक नीतियों का समग्र और निष्पक्ष आकलन उनके समय की परिस्थितियों और विसंगतियों को समझे बगैर किया जाना वर्तमान में फैशन बनता जा रहा है। ‘वर्ट्सअप विश्वविद्यालय’ और सोशल मीडिया से मिल रहा ‘ज्ञान’ आज के भारत की हर समस्या को नेहरू के नाम पर करने के लिए जिस कदर आतुर है उससे ही नेहरू के महत्व को आंका जा सकता है। बकौल पुरुषोत्तम अग्रवाल ‘….वो अपने विरोधियों और निदंकों के लिए अभी भी उतने ही जीवित हैं कि उन लोगों ने अपने चुनाव अभियानों में नेहरू के व्यक्तित्व, उनकी विरासत, उनके वैश्विक दृष्टिकोण, बल पर लगातार प्रहार किया। इससे भी आगे बढ़कर एक ‘अराजनीतिक’ प्रचार नेहरू के खिलाफ हर संभव संचार माध्यम द्वारा चलाया गया। अब जबकि चुनाव में नेहरू के सबसे मुखर विरोधी और निदंक विजयी हुए हैं तो शायद आप सोचें कि अब तो ये प्रोपेगंडा, गाली-गलौज, विष-वमन, घृणा कुछ थमेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा, ये हो भी नहीं सकता। जब तक नेहरू की विरासत का कुछ भी अंश जीवित बचा रहेगा, ये विजेता खुद को कहीं न कहीं पराजित महसूस करते रहेंगे।’

क्रमशः

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