पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-51
नेहरू की अर्थव्यवस्था का सार पुरुषोत्तम अग्रवाल के कथन से स्पष्ट होता है। बकौल पुरुषोत्तम अग्रवाल ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की विस्तृत विवेचना इस प्रस्तावना की परिधि से बाहर है। फिर भी यह तथ्य तो मानना ही होगा कि तत्कालीन परिस्थितियों में यही सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण विकल्प था। भारत एक नया स्वतंत्र हुआ देश था, जिसे आर्थिक रूप से सदियों की औपनिवेशिक लूट ने तबाह कर दिया था और जो शीत युद्ध युग की दो ध्रुवीय दुनिया में किसी गुट/ब्लॉक के साथ पिछलग्गू की तरह नहीं रहना चाहता था। ऐसे उदीयमान, आत्मविश्वासयुक्त राष्ट्र के लिए अपनी राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए एक ठोस औद्योगिक आधार देना अपरिहार्य था। उसे अपने सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों के संसाधनों का इस्तेमाल करना था, उसे विदेशी मदद भी लेनी थी, लेकिन अपनी घरेलू पूंजी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए संरक्षणात्मक नीतियों को भी अपनी योजना में जगह देनी थी। साथ ही यह ‘प्राकृतिक संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण’ की भी उपेक्षा नहीं कर सकता था। पूंजी उत्पादन और तमाम आर्थिक गतिविधियों के लिए ठोस औद्योगिक ढांचा तैयार करना भी मूलभूत जिम्मेदारी थी जिससे कि राष्ट्र विश्व परिदृश्य में स्वतंत्र रूप से अपने पैरों पर खड़ा हो सके। अनियंत्रित बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अंधाधुंध बढ़ना राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्यों और समानता के सिद्धांतों से पीछे हटना होता। और साथ ही यदि देश राज्य के पूर्ण नियंत्रण की अवधारणा पर ही निर्भर करता तो धन-सम्पदा का निर्माता लगभग असंभव हो जाता, साथ ही इससे लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का आदर्श भी कमजोर होता।
‘नेहरूनॉमिक्स’ यानी मिश्रित अर्थव्यवस्था को वाम और दक्षिण-दोनों तरह के शुद्धतावादियों ने खूब कोसा। लेकिन, इतिहास ने नेहरूनॉमिक्स के मूल विचार और दृष्टिकोण को सही साबित किया। यदि विस्तार में न भी जाएं तो भी हमें याद रखना चाहिए कि जहां एक ओर सोवियत संघ का विघटन और पतन हुआ और ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ लोकतंत्र को तो न अपना सका, लेकिन राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से बाजार अर्थव्यवस्था के रूपांतरित जरूर हो गया। पश्चिमी जगत के स्वतंत्र बाजार पर पूर्ण निर्भर हो जाने का हश्र भी हम देख ही रहे हैं। नेहरूनॉमिक्स पुनर्वितरणमूलक न्याय, लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राष्ट्रीय स्वतंत्रता को एक साथ लेकर चला। इसके ऐतिहासिक महत्त्व को सामयिक दृष्टिकोण से बेहतर ढंग से समझने के लिए फ्रांसिस फुकुयामा के हाल के वक्तव्य को देखा जाना चाहिए। फुकुयामा ने कुछ साल पहले पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था को ‘इतिहास के अंत’ के तौर पर देखा था। अभी हाल में ‘न्यू स्टेट्समैन’ के अपने साक्षात्कार (17 अक्टूबर, 2018) में वे कहते हैं, ‘अगर समाजवाद से आपका आशय न्यायसंगत पुनर्वितरण करने वाली यानी आमदानी और धन की वर्तमान भयंकर असमानता समाप्त करने वाली व्यवस्था से है तो मैं कहना चाहूंगा कि समाजवाद न केवल वापस आ सकता है बल्कि उसे आना ही चाहिए। रीगन और थैचर के शासन-काल से जो दौर चला, उसमें हर तरह के कायदे-कानून से मुक्त बाजार के गुण गाने वाले विचार बहुत प्रभावी हो गए। इसका बहुत विनाशकारी प्रभाव हुआ।’ निश्चित ही, नेहरूवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था आलोचना से परे नहीं है। उसकी प्राथमिकताओं और कार्यान्वयन की आलोचना की जा सकती है। अन्य बिंदुओं पर भी यह नीति आलोचना से परे नहीं है। फिर भी कोई भी वास्तविक आलोचना तत्कालीन संदर्भों के प्रति सजग रहकर ही हो सकती है तथा उसे इसकी अन्तर्वस्तु और रुझान के प्रति प्रशंसामूलक भाव तो रखना ही होगा। यह भी ध्यान देना होगा कि हमें वक्त गुजर जाने के बाद के अनुभवों का, उपरांत-बुद्धि का लाभ हासिल हो, जो नेहरू और उनके साथियों को हासिल नहीं था।
नेहरू को आजादी के पिचहत्तर बरस बाद मिथ्या आरोपों और सफेद झूठ के सहारे चाहे जितना गलियाया और गरियाया जाए, इस सत्य को कभी भी नकारा नहीं जा सकेगा कि योजनागत आर्थिकी, औद्योगिकरण, विज्ञान एवं तकनीक की शुरुआत, मजबूत लोकतंत्र की स्थापना और विषम परिस्थितियों में भी तमाम प्रकार के दबावों को दरकिनार कर देश का धरर्मनिरपेक्ष चरित्र बनाए रखने का सबसे अधिक श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वह नेहरू हैं। इस कालखंड में लेकिन कई ऐसी विसंगतियां भी देखने को मिलती हैं जो आज की, हमारे वर्तमान की, कई समस्याओं का कारण हैं। नेहरू की, नेहरूकाल की ईमानदार मीमांसा उनके इस कमजोर पक्ष को सामने लाए बगैर नहीं पूरी हो सकती। नेहरू काल की इन विसंगतियों को मुख्य रूप से पांच श्रेणियों में रख उनका परीक्षण किया जा सकता है; 1.ब्रिटिश राज व्यवस्था को बरकारार रखना;
2.कांग्रेस संगठन का आरामतलब और कांग्रेसियों का भ्रष्ट होना; 3.संगठन पर सरकार का हावी होना; 4.सत्ता का केंद्रीयकरण; 5.नेहरू का परिवारवाद की तरफ बढ़ना
ब्रिटिश राजव्यवस्था को बरकरार रखना
नेहरू 17 बरस तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। इन सत्रह बरसों के दौरान ही आधुनिक और आत्मनिर्भर भारत की नींव रखी गई। इस निर्माण यात्रा के दौरान लेकिन बहुत-सी ऐसी विसंगतियां भी उभरीं जिनका निदान न कर पाने के लिए नेहरू को ही निशाने पर रखा जाता है। इनमें एक प्रमुख विसंगति ब्रिटिश नौकरशाही के ढांचे को बगैर संस्थागत सुधार अपनाना रही है। नेहरू स्वयं नौकरशाही की इन खामियों से भलीभांति अवगत थे और आजादी उपरांत इसमें आमूलचूल परिवर्तन के पक्षधर थे। अल्मोड़ा जेल में कैद नेहरू ने अपनी जीवनी ‘मेरी कहानी’, (टूवर्ड फ्रीडम) 1934-1935 में लिखी। इस आत्मकथा में वे ब्रिटिश भारत की राजव्यवस्था की बाबत लिखते हैं-
‘हिंदुस्तान में अंग्रेजों ने अपने शासन का आधार पुलिस- राज्य की कल्पना पर रखा है। शासन का काम तो सिर्फ सरकार की रक्षा करना था और बाकी सब काम दूसरों पर थे। उसके सार्वजनिक राजस्व का संबंध फौजी खर्च, पुलिस शासन-व्यवस्था और कर्जें के ब्याज से था। नागरिकों की आर्थिक जरूरतों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था और वे ब्रिटिश हितों पर कुर्बान कर दी जाती थीं। जनता की सांस्कृतिक और दूसरी आवश्यकताएं, कुछ थोड़ी-सी छोड़कर, सब ताक पर रख दी जाती थीं। सार्वजनिक स्वराज की परिवर्तनशील धारणाएं जिनके फलस्वरूप अन्य देशों में निःशुल्क और देशव्यापी शिक्षा, जनता के स्वास्थ्य की उन्नति, निर्धन और जर्जर व्यक्तियों का पालन, श्रमिजीवियों की बीमारी, बुढ़ापे तथा बेकारी के लिए बीमा आदि बातें जारी हुईं, लगभग सरकार की कल्पना से बाहर की बातें थीं। वह इन खर्चीले कामों में नहीं पड़ सकती थी, क्योंकि उसकी कर-प्रणाली अत्यंत प्रगति विरोधी थी, जिसके द्वारा अधिक आमदनी वालों की बनिस्बत कम आमदनी वाले से अनुपात में अधिक कर वसूल किया जाता था, और रक्षा और शासन के कामों पर उसका इतना अधिक खर्च था कि वह करीब-करीब सारी आमदनी को चट कर जाता था।’
अंग्रेजी शासन की सबसे मुख्य बात यह थी कि सिर्फ ऐसी ही बातों पर ध्यान दिया जाए, जिनसे मुल्क पर उनका राजनीतिक और आर्थिक कब्जा मजबूत हो। बाकी सब बातें गौण थीं। अगर उन्होंने एक शक्तिशाली केंद्रीय शासन- व्यवस्था और एक होशियार पुलिस-दल की रचना कर डाली तो इस सफलता के लिए वे श्रेय ले सकते हैं, लेकिन भारतवासी इसके लिए अपने-आपको भाग्यशाली शायद ही कह सकें। एकता चीज अच्छी है, लेकिन पराधीनता की एकता कोई गर्व करने की वस्तु नहीं है। एक स्वेच्छाचारी शासन का बल ही जनता के ऊपर एक बड़ा भारी बोझ बन सकता है और पुलिस की शक्ति, अनेक दिशाओं में निस्संदेह उपयोगी होते हुए भी, जिन लोगों की वह रक्षक मानी जाती है उन्हीं के खिलाफ खड़ी की जा सकती है, और बहुत बार की भी गई है। बर्ट्राण्ड रसेल ने आधुनिक सभ्यता की तुलना यूनान की प्राचीन सभ्यता से करते हुए हाल ही में लिखा है-‘‘हमारी सभ्यता के मुकाबले यूनान की सभ्यता की खाली यही विचारणीय श्रेष्ठता थी कि उसकी पुलिस अयोग्य थी, जिसके कारण ज्यादातर भले आदमी अपने-आपको उसके चंगुल से बचा सकते थे।’’ लेकिन एक बात का तो मुझे पूरा यकीन है कि जब तक हमारे राज्य-शासन और सार्वजनिक नौकरियों में सिविल सर्विस की भावना समाई रहेगी, तब तक हिन्दुस्तान में किसी भी नई व्यवस्था की रचना नहीं की जा सकती। यह शासन-मनोवृत्ति साम्राज्यवाद की पोषक है और स्वतंत्रता और इसका साथ-साथ निर्वाह नहीं हो सकता। या तो यह मनोवृत्ति स्वतंत्रता को पीस डालने में सफल होगी, या स्वयं उखाड़ फेंकी जाएगी। सिर्फ एक तरह की राज्य-प्रणाली में इसकी दाल गल सकती है और वह है फासिस्ट-प्रणाली। इसलिए मुझे यह बहुत जरूरी मालूम देता है कि पहले सिविल सर्विस और इस तरह की दूसरी शाही सर्विसों का अंत हो जाना चाहिए और इसके बाद ही नई व्यवस्था का वास्तविक कार्य शुरू हो सकेगा। इन सर्विसों के अलग- अलग व्यक्ति, अगर वे नई नौकरियों के लिए राजी हों और योग्य हों तो खुशी के साथ आयें, लेकिन सिर्फ नई शर्तों पर। यह तो कल्पना ही नहीं की जा सकती कि उनको वही फिजूल की मोटी-मोटी तनख्वाहें और भत्ते मिलेंगे, जो आज उन्हें दिए जा रहे हैं। नवीन हिंदुस्तान को ऐसे सच्चे और योग्य कार्यकर्ताओं की सेवाएं चाहिए, जिन्हें अपने कार्य में लगन हों, जो सफलता प्राप्त करने पर तुले हों, और जो बड़ी-बड़ी तनख्वाहों के लोभ से नहीं, बल्कि सेवाजनित आनंद और गौरव के लिए काम करते हों।
क्रमशः