हिंदू समाज की सोच भले ही वर्तमान में धर्म की गलत अवधारणा के मुखर होने चलते संकुचित नजर आती हो, हिंदुत्व बेहद व्यापक सोच और सभी को साथ लेकर चलने वाला दर्शन रहा है। समलैंगिक संबंधों की बाबत भी कुछ ऐसा ही हमारे पुराने ग्रंथों, पौराणिक कथा-कहानियों में देखने को मिलता है। महर्षि वात्स्यायन रचित ‘कामसूत्र’ इस बात की पुष्टि करता है कि पौराणिककाल में समलैंगिक संबंधों को स्वीकारा जाता था। हमारे कई धर्मशास्त्रों में भी ऐसे संबंधों की बाबत उदाहरण दिए गए हैं। हालांकि कई पौराणिक पुस्तकों में इसे अप्राकृतिक मानते हुए पाप की श्रेणी में भी रखा गया है। कौटिल्य रचित ‘अर्थशास्त्र’ और ‘मनुस्मृति’ ऐसे संबंधों को पूरी तरह अस्वीकार्य मानते हैं। इसके बावजूद हमारे समाज में भले ही ढके-छिपे बतौर ही सही, ऐसे संबंधों की उपस्थिति लगातार बनी रही है। सेक्स पर यूं भी हम खुले तौर पर बातचीत करने वाला समाज कभी नहीं रहे हैं। हमारे लिए सेक्स की बात करना, सेक्स पर बात करना पाप की परधि में रखा जाता रहा है। यही कारण है सेक्स संबंधित कमजोरी अथवा बीमारी को ‘गुप्त रोग’ कह पुकारा जाता रहा है। समलैंगिक प्रकृति के लोगों को तिरस्कार की नजरों से देखना इसी सोच का प्रतिफल रहा है। मेरा बचपन एक शांत और प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज कस्बेनुमा शहर रानीखेत में बीता। आज जब मैं समलैंगिकता पर लिखने बैठा हूं तब मुझे अतीत के कुछ किस्से याद हो आए हैं। हमारे छोटे से शहर में एक बड़े राजनेता की बाबत दबी जुबान से ऐसा कहा-सुना जाता था जिससे उनकी छवि मेरे मन-मस्तिष्क में खासी निगेटिव हो गई थी। शहर के एक गणमान्य परिवार का नवयुवक इन राजनेता को खासा प्रिय था। हम तब सुनते थे कि दोनों के मध्य ‘गलत संबंध’ हैं। यह ‘गलत संबंध’ क्या और किस प्रकार के हैं, इसकी न तो हमें समझ थी और न ही समझाने वाला कोई था, क्योंकि सेक्स पर बातचीत करना भी पाप था। मेरे एक रिश्तेदार भी अपने एक मित्र के प्रति शायद ऐसी ही कुछ भावना रखते थे। हमारे परिवार में उन दोनों को लेकर खासी खुसुर-फुसुर हुआ करती, जो तब हमें समझ नहीं आती थी, इतना अवश्य समझ आता कि इन दोनों के मध्य कुछ न कुछ गलत जरूर है। उन्हें हमारे यहां ‘दो बैलों की जोड़ी’ कह बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था। जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तब का एक वाकया भी इस समलैंगिकता से जुड़ा मुझे याद आ रहा है। मेरे एक करीबी मित्र के एक रिश्तेदार ने नई-नई कार खरीदी थी। छोटे से कस्बेनुमा शहर में कार होना एक बड़ी उपलब्धि उन दिनों मानी जाती थी। पूरे इलाके में शायद आठ-दस ही ऐसे परिवार रहे होंगे जिनके पास अपनी कार थी। मुझे उन दिनों कार सीखने का भूत सवार था। मित्र के रिश्तेदार सहर्ष मुझे कार सिखाने के लिए राजी हो गए। एक दिन जब मैं उनसे कार चलाने का प्रशिक्षण ले रहा था तब चलती गाड़ी में उन्होंने मेरे साथ कुछ ऐसा करने का प्रयास किया जिसे आज तो मैं यौन दुराचरण कह पुकारा सकता हूं, तब लेकिन इतनी समझ नहीं थी, पता लेकिन था कि जो कुछ ये महाशय कर रहे हैं, वह गलत है। मैं दोबारा कभी उनके साथ कार सीखने नहीं गया। जब तक रानीखेत में रहा उनके प्रति घृणा भाव लिए रहा। बहुत बाद में जब मैं लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज, लखनऊ से ग्रेजुएशन कर रहा था, मैंने यह बात अपने मित्र संग साझा कर अपना मन हल्का किया था। तब मुझे पता चला था कि उसके उक्त रिश्तेदार कइयों को अपना ‘शिकार’ बनाने का प्रयास कर चुके हैं। बहरहाल यह अलग मुद्दा है चूंकि तब मैं भी अन्यों की तरह समलैंगिकता को ‘पाप’ मानता था इसलिए मेरे मन में उक्त व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव पैदा हो गया था। बाल्यवस्था के इस अनुभव का एक परिणाम हर समलैंगिक के प्रति मेरे भीतर तिरस्कार का, घृणा का, लिजलिजेपन का भाव पैदा होना रहा। मैं भी इसे लंबे अर्से तक अप्राकृतिक कृत्य मानता आया था। शायद आज भी कहीं गहरे, भीतरी तल पर मैं समलैंगिकता को प्रकृति के नियमों के विपरीत आचरण मानता हूं। अब जबकि मैं स्वयं विचारों के तल पर बदलाव की बात कर रहा हूं और विवेक काटजू को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखे उनके आलेख पर सलाम भेज रहा हूं, तब मुझे महसूस होता है कि बचपन में समाज द्वारा रोपित धारणाएं जिन्हें ‘संस्कार’ कह पुकारा जाता है, ने मुझे समलैंगिकता को समझने और उसे सहजता से स्वीकारने से रोक दिया था। मैं इसे मानसिक बीमारी, मानसिक विकलांगता कहता था। पहली बार इस बाबत सोच को, समझ को व्यापक बनाने का काम मेरी बेटी ने किया। वह भी तब जब वह मात्र 13-14 बरस की थी। वह बचपन से ही विद्रोही प्रवृत्ति की रही है। उसी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं अपने नाम के आगे से जाति को हटा लूं। उसने जिद पकड़ ली थी कि वह अपना नाम बदलवाना चाहती है। हमने उसका नाम एक देवी के नाम पर ‘कात्यायनी’ रखा था। उसने एक रोज यह ऐलान करा कि वह अपना नाम बदलना चाहती है और नए नाम के आगे ‘जोशी’ उपनाम नहीं लगाना चाहती क्योंकि वह जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करती। हमें उसकी बात माननी पड़ी। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद उसका नाम उसकी पसंद अनुसार बदला गया जिसमें उपनाम नहीं है। बाद में उससे प्रेरणा लेकर मैंने भी अपने नाम के आगे से जाति सूचक उपनाम हटाने का फैसला लिया था। एलजीबीटी (#LGBT) समुदाय की बाबत, समलैंगिक की बाबत भी उसके तर्कों ने मुझे मेरी समझ में बदलाव के लिए दिशा दी। ऐसा ही नौकरशाह विवेक काटजू के साथ भी हुआ। पर चलिए देर आए-दुरुस्त आए।
सोच में बदलाव की जरूरत-2
मेरी बात
हिंदुत्व को मैं धर्म नहीं बल्कि सही तरीके से जीवन जीने की पद्धति मानता हूं। मेरी दृष्टि में इस नाते हिंदुत्व अन्य धर्मों की अपेक्षा कहीं ज्यादा व्यापक दृष्टिकोण को, विराटता को समेटे हुए है। इसीलिए ‘सनातन’ अर्थात् शाश्वत है, सदा बना रहने वाला है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह किसी एक दार्शनिक, अवतार, ऋषि या किसी एक पुस्तक पर आधारित नहीं है और न ही यह किसी खास समय पैदा हुआ है। यह अनादिकाल से प्रवाहमान रहा है। चूंकि यह किसी एक सिद्धांत अथवा तर्क पर आधारित नहीं है इसलिए इसमें प्रचुरता में विविधता है। समलैंगिकता जैसे संवेदनशील मुद्दों को भी इसी चलते इसने स्वयं भीतर समाहित करने का, स्वीकारने का काम बहुत सहजता के साथ किया है। रुथ वनीता (Ruth Vanita) ने अपनी पुस्तक ‘Love’s Rite: Same Sex Marriage in India and the west’ में भारतीय पौराणिक संर्दभों का हवाला देते हुए समलैंगिक जोड़ो के विवाह की सामाजिक स्वीकार्यता अनादिकाल से होने की बात कही है। ख्याति प्राप्त मनोविज्ञानी और लेखक सुधीर कक्कड़ अपनी पुस्तक ‘The Inner world: A Psychoanalytic Study of Childhood and Society of India’ में भारतीय समाज की तुलना में पश्चिमी समाज को ज्यादा दकियानूसी करार देते हुए कहते हैं कि ‘हिंदू समाज में सनकीपन अथवा विचलन को पश्चिमी समाज की बनिस्पत ज्यादा सहजता से स्वीकारा जाता है। पश्चिम धर्म आमतौर पर यौन भिन्नता को असामाजिक या मनोवैज्ञानिक विकार मानते हुए उसके इलाज की बात करते हैं। हिंदू धर्म लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के आचरण को उसका प्रारब्ध मानते हुए मोक्ष प्राप्ति की राह पर जाने की बात करता है।’ भारतीय दर्शन में ‘तृतीय प्रकृति’ का वर्णन है जो पुरुष और स्त्री के अलावा एक अन्य प्रकृति की संरचना को स्वीकारता है। इसे आप ‘अर्धनारीश्वर’ से जोड़ समझ सकते हैं, ‘हरिहरा’ से जोड़ समझ सकते हैं, ‘बहुचारा माता’, ‘गदाहरा’, ‘चंडी- चामुंडा’ आदि से समझ सकते हैं। मां गंगा को धरती पर लाने वाले पौराणिक राजपुरुष राजा भगीरथ की कहानी से समलैंगिकता को भारतीय समाज में मान्यता की दृष्टिगत समझा-परखा जा सकता है। महाभारत की कथा में वर्णित ‘बृहनलला’ और ‘शिखंडी’ आदि भी समलैंगिकता अथवा ‘तृतीया प्रवृत्ति’ की बाबत बहुत कुछ कहते हैं।
इन सबका सार यह कि प्रेम को स्त्री-पुरुष के दायरे में रख परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। सेक्स और लिंग के दायरे में भी प्रेम को नहीं बांधा जा सकता है। महत्वपूर्ण है दो मनुष्यों के मध्य प्रेम। ऐसे किसी भी प्रेम के मध्य आना, उसको हेय समझना, पाप और पुण्य के तराजू में तौलना अब मेरी दृष्टि से गलत है। अब इसलिए क्योंकि मैं अपने विचारों को जड़ता के बंधन से दूर रख पाने में काफी हद तक सफल रहा हूं। हां एक बात पूरी ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि तमाम स्वीकार्यता के बावजूद मेरा यह मत आज भी कायम है कि समलैंगिकता मेरे लिए आज भी प्रकृति के नियम विरुद्ध ही है। अब लेकिन मैं उसे स्वीकारने लगा हूं और मुझे समलैंगिक अथवा ‘तृतीय प्रकृति’ के लोगों संग भी उतना ही प्रेम है जितना अन्य के साथ।