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Editorial

तालिबान सहारे होगी नैय्या पार

भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान नेतृत्व चौबीस घंटे काम करने वाला सजग और सतर्क नेतृत्व है, तो इसके ठीक उलट कछुए की चाल चलता कांग्रेस आलाकमान है। गति के इस अंतर का नतीजा सबके सामने है। देश को अंग्रेज हुकूमत से आजादी दिलाने वाली पार्टी आज बदहाल है, तो दूसरी तरफ आजादी की जंग में नगण्य भूमिका वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गर्भ से निकली भाजपा का परचम पूरे देश में लहरा रहा है। इससे बड़ी त्रासदी भला और क्या हो सकती है कि आजादी की पिचहत्तरवीं वर्षगांठ के काल में सरकारी तंत्र द्वारा आयोजित किए जा रहा अमृत महोत्सव कार्यक्रमों में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का चित्र तक नजर नहीं आ रहा है, तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के आरोपी रहे विनायक दामोदर सावरकर अवश्य इस अमृत महोत्सव के कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। स्मरण रहे 1948 में गांधी की हत्या बाद सावरकर इस हत्याकांड में ‘संदिग्ध’ होने के चलते गिरफ्तार किए गए थे। भले ही फरवरी 1948 में उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन गांधी हत्याकांड की जांच करने वाले एक सदस्यीय जीवन लाल कपूर आयोग ने सावरकर की भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठाए थे। आजादी के महानायक गांधी के साथ आज यदि सावरकर की तस्वीर 75वीं वर्षगांठ पर चौतरफा नजर आ रही है तो इसके लिए संघ-भाजपा से कहीं ज्यादा दोषी कांग्रेस है। बहरहाल अभी का मुद्दा सावरकर और आजादी के आंदोलन में अथवा गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में उनकी भूमिका पर चर्चा करना नहीं, बल्कि वर्तमान भाजपा नेतृत्व की उस सजगता पर चर्चा करना है जिसके चलते वह नाना प्रकार की विसंगतियों से जूझ रहे देश का फोकस ऐसे मुद्दों पर केंद्रित कर देता है जिनका सीधे तौर पर हमसे कोई रिश्ता दूर-दूर तक नहीं होता। कोरोना संक्रमण का खतरा अभी बरकरार है। इस महामारी ने मुल्क की बदहाल-फटेहाल स्वास्थ्य व्यवस्था का सच तो सामने लाने का काम किया ही, समूचे देश के सरकारी तंत्र की काहिली, अदूरदर्शिता और संवेदनहीनता को भी बेनकाब कर डाला। अर्थव्यवस्था का बंटाधार हो चुका है।

बेरोजगारी चरम पर है। महंगाई ने आम से लेकर खास तक को त्राहिमाम-त्राहिमाम की स्थिति पर ला खड़ा किया है। लोकतंत्र की बुनियाद कहलाई जाने वाली हर संस्था बर्बाद होती स्पष्ट नजर आ रही है। धीरे-धीरे यह देश ‘पुलिस स्टेट’ में बदलता जा रहा है, लेकिन कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं। कोई प्रतिकार का स्वर नहीं। किसान पिछले डेढ़ बरस से आंदोलनरत हैं। उनकी कोई सुनवाई नहीं। संविधान की रक्षा करने का दायित्व जिनके कंधों पर है वे किसानों का सिर फोड़ने का आदेश देते सुनाई दे रहे हैं। पुलिस का डंडा हर ऐसे का सिर फोड़ने को तत्पर है जिसे वर्तमान व्यवस्था से हल्की सी भी नाराजगी हो। कृषि प्रधान देश में यदि किसानों को लहुलूहान करने का साहस सत्ता रखती हो तो इसका सीधा अर्थ एक ही निकलता है कि उसने जनता की ऐसी नब्ज को पकड़ लिया है जिसके चलते उसे अपनी सत्ता के चिर स्थाई होने पर पूरा भरोसा है। यह नब्ज है धर्म की नब्ज। इसमें इतनी शक्ति है कि इसे दबाते ही चौतरफा मचा हाहाकार, चौतरफा गूंज रहे चीत्कार के स्वर तत्काल खामोश हो जाते हैं। सारा आक्रोश समाप्त करने की क्षमता रखने वाली इस नब्ज पर भाजपा ने अद्भुत पकड़ बना डाली है। भाजपा नेतृत्व आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को इसी नब्ज सहारे फतह करने की तैयारी करने में जुट गया है। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल अभी तक गहन निंद्रा में हैं। उन्हें इल्हाम तक नहीं कि पिछले सात बरस के मोदी शासन की जिन विफलताओं को हथियार बना वह भाजपा को इन चुनावों में परास्त करने का सपना देख रहे हैं वह हथियार तेजी से कुंद होता जा रहा है। उसकी तीखी धार को कुंद करने के लिए इस बार भाजपा राम भरोसे नहीं बल्कि तालिबान भरोसे है। वह नया नैरेटिव गढ़ने लगी है। नैरेटिव गढ़ने में उसकी अकल्पनीय, अतुलनीय क्षमता है। तालिबान, अफगानिस्तान पर पूरी तरह काबिज तक नहीं हो पाया है, उसके नाम की गूंज काबुल की गलियों से कहीं ज्यादा भारत के ‘चारणी’ मीडिया के जरिए भारत की गलियों में गूंजने लगी है। ऐसा क्यों? कोई सोचने तक को तैयार नहीं। बस चौतरफा चर्चा है कि तालिबान के आतंक को रोकने की तैयारियां भारत ने शुरू कर डाली हैं। संदर्भ है उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का प्रदेश के ‘संवेदनशील’ इलाकों में विशेष आतंक रोधी दस्तों की तैनाती का निर्णय। जहां कहीं भी मुसलमान ज्यादा तादात में हैं वहां तालिबान न पहुंचे इसके लिए ‘एटीएस’ कमांड सेंटर बनाए जा रहे हैं। गजब! अद्भुत! लोकतंत्र में लोक के एक बड़े हिस्से पर सत्ता का ऐसा अविश्वास पहले कभी इतना खुलकर देखा नहीं। माहौल रचा जाने लगा है कि देश की मुसलमान कौम गद्दार है, आतंकी है इसलिए तालिबानी है। चारण- भाट परंपरा का खेवनहार मुख्यधारा का मीडिया इस पर चर्चा करने को तैयार नहीं कि अमेरिका ने क्योंकर ऐसा आत्मघाती निर्णय लिया? और क्यों नहीं भारत ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जरिए अमेरिका पर ऐसा न करने के लिए दबाव बनाया? इसमें कोई शक नहीं कि जो बायडन प्रशासन ने पूरे विश्व को बड़े खतरे में डाल दिया है। आने वाले समय में अफगानिस्तान आतंकवादियों की शरण स्थली बनना तय है। उन कठमुल्लों का आदर्श अब तालिबानी, अफगानिस्तान बन चुका है जो इस्लाम का परचम विश्व में फैलाने का ‘धंधा’ करते हैं। ‘बेबी को बेस पसंद हैं की तर्ज पर ‘कठमुल्लों को तालिबान पसंद हैं अब खूब चलेगा। तालिबान की ताकत उसकी बर्बरता है, पिशाची सोच और मूर्खता है। प्रश्न यह उठता है कि क्योंकर भारत अपने पड़ोस में लहलहा रहे ऐसे पिशाच को खत्म करने की जंग में शामिल नहीं हुआ? इस पर भी चर्चा जरूरी है कि ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की हमारी विदेश नीति कहां गायब है? चर्चा लेकिन भारतीय मुसलमान की देशभक्ति को शक की निगाहों से देखने वाली सोच को विकसित करने की हो रही है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं कि यदि तालिबान की सत्ता अफगानिस्तान में स्थाई होती है तो सबसे बड़ा खतरा हमें है। मोदी सरकार की ‘पड़ोसी पहले’ नीति पूरी तरह विफल रही है। नेपाल हमसे खफा है, चीन पुराना शत्रु है जिसने नेपाल और श्रीलंका में जबरदस्त पूंजी निवेश कर उन्हें अपनी तरफ आकर्षित कर डाला हैं पाकिस्तान से हमारी दुश्मनी ऐतिहासिक है ही है। ऐसे में अब तालिबान की सत्ता बाद अफगानिस्तान भी हमारे लिए खतरा बनना तय है। जरा अंतरराष्ट्रीय नक्शे में हमारी सीमाओं को देखिए, समझ आ जाएगा कि हम किस बम के गोले पर बैठे है। पाकिस्तान के हिस्से वाले खैबर पास पर तालिबान का कब्जा है। यह हमारी सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा संकट बनने की ताकत रखता है। विदेशी आक्रांता चंगेज खान इसी खैबर पास के रास्ते भारत आया था। मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गोरी ने भी इसी दर्रे के जरिए हम पर आक्रमण करने के लिए अपना रास्ता चुना था। पाकिस्तान ने इसी इलाके में तालिबान लड़ाकों को शरण और टेªनिंग दी है। अब तालिबान के अफगानिस्तान का भाग्य विधाता बनने के बाद निश्चित ही इस दर्रे के जरिए भारत को अस्थिर करने की साजिशों को अंजाम दिया जाएगा। इसलिए चर्चा का मुद्दा तालिबान-अफगानिस्तान से सटी हमारी सीमाओं को अभेद्य बनाने पर होनी चाहिए, चर्चा अफगान के उन बदनसीब नागरिकों को राजनीतिक शरण और हर प्रकार की मदद पर होनी चाहिए जो तालिबान की क्रूरता का शिकार होने से बचना चाह रहे हैं। माहौल लेकिन रचा जाने लगा है कि अब तालिबान से यदि कोई बचा सकता है तो वह केवल भाजपा है। योगी सरकार की तारीफों का दौर ‘वट्सअप विश्वविद्यालय’ से लेकर सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्मो में शुरू हो चुका है। जनता जनार्दन को इससे मुदित करने का प्रयास आने वाले महीनों में जबरदस्त तरीके से किया जाएगा ताकि कोरोनाकाल के दौरान हर दृष्टि से असफल योगी सरकार के प्रति जनता का आक्रोश कम किया जा सके और एक बार फिर से धर्म, राष्ट्रवाद और आतंकवाद का काढ़ा उसके जहन में उतार 2022 के विधानसभा चुनावों की वैतरणी में डगमगाती भाजपा की नाव को सकुशल किनारे लगाया जा सके। इसे कहते हैं सामने आए मौके का लाभ उठाना। कांग्रेस नेतृत्व इसमें भाजपा के समक्ष शून्य सा प्रतीत होता है। पिछले सात सालों में मोदी सरकार अपना एक भी लक्ष्य हासिल कर पाने में सर्वथा विफल रही है। कभी ‘स्वदेशी’ का नाम जपने वाली पार्टी आज पूरी तरह ‘विदेशी’ सहारे हो चली है। देश के स्तंभ माने जाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचकर सरकारी खजाने को भरने का प्रयास हो रहा है। मोद्रीकरण के नाम पर रेलवे समेत कई सार्वजनिक उपक्रमों को गिरवी रखा जा रहा है ताकि देश की गाड़ी में ईंधन डलता रहे। कोई विजन, कोई स्पष्ट नीति सरकार के पास किसी भी क्षेत्र, किसी भी समस्या के निराकरण के लिए नहीं है। चौतरफा असफल रहने के बावजूद सरकार और पार्टी का जलवा कायम है। दूसरी तरफ तमाम मौके सामने हैं, लेकिन कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष उनका लाभ लेने में कामयाब नहीं। कोरोना के दूसरे संक्रमण बाद लगने लगा था कि आगामी पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ेगा। तालिबान ने सब कुछ बदल डाला है। लगता है अब इसी सहारे भाजपा अपनी नाव किनारे लगा ही लेगी। विपक्ष कहीं का नहीं रहेगा।

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