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Editorial

नक्सलबाड़ी आंदोलन और दलबदल का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-72

नक्सलबाड़ी आंदोलन को तो वामपंथी समर्थन से बनी पश्चिम बंगाल सरकार ने पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों की मदद से कुचलने में तात्कालिक तौर पर सफलता हासिल तो कर ली, इस श्रमिक भूमिहीन वर्ग का असंतोष लेकिन तेजी से देश के अन्य राज्यों में फैलने लगा था। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना इलाके में नक्सलबाड़ी आंदोलन का प्रभाव सबसे पहले पड़ा। तेलंगाना वामपंथी संगठनों की मजबूत पकड़ वाला इलाका पहले से ही था। उड़ीसा से सटे आंध्र प्रदेश के जिलेे श्रीकाकुलम में भी सर्वहारा वर्ग का असंतोष हिंसक रूप लेने लगा था। नक्सल नेता चारु मजूमदार ने एक बार श्रीकाकुलम को ‘भारत का येनान’ की संज्ञा दी थी। येनान चीन के उत्तर पश्चिम में स्थित एक शहर है जहां से चीनी लाल क्रांति की शुरुआत हुई थी। नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित होकर यहां के दो वामपंथी नेताओं वी ़सत्यानारायण उर्फ सत्यम और आदिभाटला कैलाशम् ने भी हथियार बंद विद्रोह शुरू कर दिया। 31 अक्टूबर, 1967 के दिन स्थानीय जमींदारों और वामपंथियों के मध्य हिंसा में सत्यम के दो करीबी कॉमरेड मारे गए। इसके बाद स्थानीय जमींदारों के खिलाफ यहां भारी हिंसा सत्यम और उनके समर्थकों ने शुरू कर राज्य सरकार के समक्ष बड़ी चुनौती पेश कर डाली। स्थानीय आदिवासियों ने ऐसे जमींदारों की जमीन और अन्य सम्पत्ति को अपने कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर राज्य सत्ता को खुली चुनौती देने का काम कर दिखाया। इस विद्रोह को दबाने के लिए केंद्र सरकार ने भारी संख्या में सुरक्षा बलों को आंध्र प्रदेश भेजा। मई माह तक चले इस विद्रोह को अंततः कुचल दिया गया और सत्यम एवं उनके सभी साथी मारे गए। नक्सलबाड़ी से निकली आग का असर देश के अन्य हिस्सों में देखने को मिलता है। उत्तर प्रदेश के नेपाल से सटे तराई इलाके में भी बड़े जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह जून, 1968 में भारी पैमाने पर शुरू हुआ और लंबे अर्से तक चला। नक्सलबाड़ी और तेलंगाना आने वाले लंबे समय तक माओवादी विचारधारा से प्रभावित नवयुवकों को अपनी तरफ आकर्षित करते रहे। बाद के वर्षों में जब कभी भी जनआंदोलन हुए तब किसी न किसी रूप में नक्सलबाड़ी और तेलंगाना का असर ऐसे आंदोलनों में देखने को मिलता रहा है। जनकवि बल्ली सिंह चीमा का एक गीत ‘ले मशाले चल पड़े हैं’ ऐसे जनआंदोलनों में गाया जाने वाला एक प्रमुख गीत है जिसके बोल नक्सल आंदोलन की लोकप्रियता को रेखांकित करते हैं। गीत के बोल हैं-

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के
अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के।
कह रही झोपड़ी और पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के।
बिन लड़े कुछ भी यहां मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के।
हर रुकावट चीखती है ठोकरों की मार से,
बेड़िया खनका रहे हैं लोग मेरे गांव के।
एकता से बल मिला है झोपड़ी की सांस को,
आंधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के।
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गांव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गांव में।
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल।
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गांव के।
कुछ इसी प्रकार का एक जनगीत शलभ श्रीराम सिंह का भी खासा लोकप्रिय रहा है जिसके बोल हैं-
‘नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम
बस एक फ़िक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद, ज़िन्दाबाद इन्क़लाब… ’
नक्सल आंदोलन के दौर में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर- देवरिया-बस्ती से लेकर वर्तमान उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्र में एक गीत खासा लोकप्रिय हुआ था जिसके बोल थे-
‘जन का राज नहीं बनता है
हिजड़ो के सुरताल से
राज शक्ति निकला करती है
बंदूकों की नाल से…’
आमजन की बेचैनी और लोकतंत्र के प्रति आस्था इस दौर में तेजी से दरकने लगी थी। चौतरफा फैले भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को कांग्रेस का संरक्षण अब खुलेआम मिलने लगा था। इस दौर का साहित्य गवाही देता है कि आजादी के मात्र 20 बरस के भीतर-भीतर भारतीय गणतंत्र की दशा और दिशा डगमगाने लगी थी। प्रसिद्ध लेखक व व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अपने एक व्यंग ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ में 1967-68 के भारत पर लिखते हैं-
‘स्वतंत्रता दिवस भीगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है ‘‘घोर करतब-ध्वनि हो रही है।’’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं होता। हाथ अकड़ जाएंगे लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र से उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है।…. ़इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं।
सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं।
समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं।’
श्रीलाल शुक्ल का कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ इसी दौरान की कहानी रहता है। यह उपन्यास 1964 के अंत में शुरू हुआ और अपने अंतिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। कहानी शिवपालगंज नामक एक गांव के ईद-गिर्द घूमती है जहां वैध जी नामक राजनेता का हर क्षेत्र में दबदबा है। वैध जी एक तरह के माफिया हैं जो स्थानीय छंगामल इंटरमीडिएट कॉलेज की प्रबंधन समिति के अध्यक्ष भी हैं। कॉलेज के शिक्षकों का एक वर्ग वैध जी की मुखालफत कर कॉलेज में एक उपप्रधानाचार्य की नियुक्ति चाहता है क्योंकि प्रधानाचार्य पूरी तरह से वैध जी का आदमी है और उन्हीं के इशारे पर कॉलेज को चला रहा है। असंतुष्ट शिक्षकों का गुट विद्यालय प्रबंधन समिति के उपाध्यक्ष गयादीन की शरण में जाता है। गयादीन सांसरिक आदमी हैं जो किसी भी प्रकार के बखेड़े में पड़ना नहीं चाहते। श्रीलाल शुक्ल गयादीन के माध्यम से मात्र 17-18 बरस पहले आजाद हुए देश की असली तस्वीर सामने रखने का काम इस उपन्यास में करते हैं। छंगामल कॉलेज के शिक्षकों को गयादीन यथास्थिति बनाए रखने की सलाह देते हैं। शिक्षक जब उन्हें ऊंच-नीच समझाते हैं और कॉलेज में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो गयादीन कहते हैं…मास्टर साहब, मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो हूं नहीं पर अच्छे दिनों में कलकत्ता-मुम्बई देख चुका हूं। थोड़ा- बहुत मैं भी समझता हूं जनता के रुपये पर इतना दर्द दिखाना ठीक नहीं। वह तो बर्बाद होगा ही…जनता के रुपए के पीछे इतना सोच-विचार न करो, नहीं तो बड़ी तकलीफ उठानी पड़ेगी।…खन्ना मास्टर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने फिर कहा ‘तुम तो इतिहास पढ़ाते हो न मास्टर साहब? सिंहगढ़-विजय कैसे हुई थी?’ खन्ना मास्टर सोचने लगे। गयादीन ने कहा, ‘मैं ही बताता हूं। तानाजी क्या लेकर गए थे? एक गोह। उसको रस्से से बांध लिया और किले की दीवार पर फेंक दिया। अब गोह तो अपनी जगह चिपक कर बैठ गई। साथ वाले सिपाही उसी रस्से के सहारे सड़ासड़ छत पर पहुंच गए।….. ़वहीं हाल अपने मुल्क का है, मास्टर साहब। जो जहां है, अपनी जगह गोह की तरह चिपका बैठा है। टस से मस नहीं होता। उसे चाहे जितना कोंचो, चाहे दुरदुराओ, वह अपनी जगह चिपका रहेगा और जितने नाते- रिश्तेदार हैं, सब उसकी दुम के सहारे सड़ासड़ चढ़ते हुए ऊपर तक चले जाएंगे। कॉलेज को क्यों बदनाम करते हो, सभी जगह यही हाल है।’
1967 के आम चुनाव बाद भले ही केंद्र में कांग्रेस अपनी सरकार बना पाने में सफल रही, कई राज्यों में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा था। नौ राज्यों, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य
प्रदेश, मद्रास, (अब तमिलनाडु) और केरल में विपक्षी दलों की सरकार स्थापित होने से कांग्रेस भीतर चल रहा आंतरिक संघर्ष तेजी से गहराने लगा था। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार में इन चुनाव बाद कांग्रेस अपनी सरकार बना पाने में सफल रही थी लेकिन भारी दलबदल चलते चारों ही राज्यों में उसकी सरकारें मात्र कुछ ही दिनों में अपदस्थ हो गईं। इन राज्यों में दलबदलुओं ने ‘संयुक्त विधायक दल’ गठित कर अपनी सरकार बना भारतीय राजनीति में निजी महत्वाकांक्षा और धन-बल के सहारे जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त को नया आयाम दे डाला जिसके दुष्परिणाम आज अपने चरम पर देखने को मिल रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेता चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में कई कांग्रेसी विधायकों ने दलबदल कर भारतीय जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी संग गठबंधन कर सरकार बना डाली तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेता राजमाता विजयराजे सिंधिया और उनके पुत्र माधव सिंधिया ने बगावत कर कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर करने का काम किया। वर्तमान दौर में बागी विधायकों को रिसॉर्ट आदि में एक साथ रखने का जो ‘खेला’ रोज होता है, उसकी शुरुआत 1967 में मध्य प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी गोविंद नारायण सिंह ने की थी। उन्होंने 28 विधायकों को विधानसभा में बहुमत परीक्षण से पहले अपने घर में एक तरह से नजरबंद रखा ताकि कांग्रेस नेतृत्व उनसे सम्पर्क ही न साथ पाए।

 
क्रमशः 

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