पिचहत्तर बरस का भारत-6
वर्तमान समय को ग्लोबलाइजेशन का, वैश्वीकरण का, दौर कहा जाता है। पूरी दुनिया के एक विशाल गांव में बदल जाने का समय। ऐसा समय जब दुनिया के किसी भी कोने में घटने वाली किसी छोटी या बड़ी घटना का प्रभाव, किसी न किसी रूप में, संपूर्ण विश्व को प्रभावित कर देता है फिर चाहे वह घटना अर्थव्यवस्था से जुड़ी हो, दो देशों के मध्य चल रहे संघर्ष की हो या फिर अमेरिका में शुरू हुए #‘मी टू’ सरीखा सामाजिक मुद्दा हो। ठीक इसी प्रकार प्रथम विश्व युद्ध ने, तुर्की आटोमन साम्राज्य ने और 1917 में शुरू हुई रूस की क्रांति ने ब्रिटिश भारत को गहरे प्रभावित करने का काम किया था। भारत विभाजन के मूल कारणों और कारकों को ठीक प्रकार से समझने के लिए प्रथम विश्व युद्ध को समझना जरूरी है। इस विश्व युद्ध के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वर्णिम काल रहा तो इसकी समाप्ति के बाद इस एकता का खण्डित होना और मोहम्मद अली जिन्ना का कांग्रेस से नाता तोड़ना अंततः जिन्ना के कट्टरपंथी मुस्लिम नेता में तब्दील होने की बुनियाद बना। इस्लाम विश्व के तीन अद्वैतवादी धर्मों में सबसे युवा धर्म है। अद्वैतवाद को सरल भाषा में केवल एक ही ईश्वर को मानने वालों का धर्म कहा जा सकता है। इस्लाम, यहूदी एवं इसाई धर्म इस सिद्धांत का कट्टरता से पालन करता है। हिंदू धर्म के भीतर भी अद्वैत की व्याख्या है। आदि शंकराचार्य ने इसकी स्थापना करते हुए ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का सिद्धांत परिपादित किया जिसका अर्थ है संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव और उसको बनाने वाला ब्रह्म एक ही हैं।
भारत में इस्लाम की पहुंच उसके अंतिम पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के लगभग अस्सी बरस बाद 712 ई ़पूर्व में हुई जब सिंध इलाके पर अरब का कब्जा हो गया था। पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु बाद उनकी नसीहतों और इस्लाम की रक्षा के लिए खलीफा संस्था का जन्म हुआ। खलीफा उनको कहा गया जो पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु पश्चात उनके द्वारा बताए गए दीन के मार्ग का प्रचार-प्रसार करने लगे। खलीफा एक तरह से इस्लाम के सबसे बड़े धर्म गुरु कहलाए गए जिनकी छत्रछाया और दिशा निर्देशों अनुसार इस्लाम धर्म का विस्तार एवं रक्षा की व्यवस्था बनाई गई। सिंध के बाद भारत में इस्लाम को विस्तार ग्यारहवीं शताब्दी के दौरान मिला जब गजनी (अफगानिस्तान की एक सल्तनत) के बादशाह महमूद ने पंजाब पर आक्रमण कर वहां के शासक को परास्त कर डाला था। इस्लाम इसके बाद भारत में तेजी से हुआ। 1192 में हुए तराइन (Tarain) के युद्ध बाद तो पूरे उत्तर भारत में मुस्लिम शासन स्थापित हो गया। इस युद्ध में गजनी के तत्कालीन शासक मोहम्मद गौरी ने अजमेर और दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर पाने में सफलता पाई थी। गौरी की हत्या के बाद उसके सेनापति कुतुबउद्दीन ऐबक ने भारत में अपने साम्राज्य को विस्तार दिया। 1206 में कुतुबउद्दीन दिल्ली का सुल्तान बना। उसने भारत में ममलुक (गुलाम) वंश की स्थापना की। बीस वर्षों के भीतर-भीतर कुतुबउद्दीन का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी तक फैल गया। 12वीं शताब्दी के अंत तक दक्षिण भारत तक मुस्लिम साम्राज्य स्थापित हो गया था। गुलाम वंश के बाद खिलजी वंश (1290-1320), तुगलक वंश (1320-1414), सैय्यद वंश (1414-1451) तथा लोदी वंश (1451-1526), खलीफा को मानते थे और उसकी धार्मिक सत्ता के साथ अपनी राजनीतिक सत्ता का तालमेल बना कर चलते थे।
भारतीय मुसलमानों के मध्य भाषाई, क्षेत्रीय, वर्गीय और सांप्रदायिक भिन्नता होने के बावजूद धर्म एकीकरण का कारक हमेशा से रहता आया है। उम्मा (Ummah) अर्थात् सबका एक धर्म इस्लाम और एक धार्मिक संस्था खलीफा। खलीफा संस्था को संरक्षण देने और इस्लाम को विस्तार देने में तुर्की के ओटोमन साम्राज्य की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है। ओटोमन साम्राज्य 14वीं शताब्दी में और उसके बाद लगातार फैलता गया था। 1517 में ओटोमन सम्राट सुल्तान खलील ने मिश्र पर अपना झंडा लहरा इस्लाम धर्म में पवित्र शहरों का दर्जा पाए मक्का और मदीना के रक्षक की (Defender of the holy city of Mecca and Medina) उपाधि हासिल कर ली और सुल्तान के लिए खलीफा की पदवी भी। धर्म और राजनीति के मध्य गर्भनाल का रिश्ता अनादिकाल से रहता आया है। धर्म को राजनीति संरक्षण देती है और राजनीति को धर्म। इसे इतिहास के गहन अध्ययन से भी समझा जा सकता है और वर्तमान दौर में हमारे मुल्क की राजनीति से भी।
ओटोमन साम्राज्य में राजा ही सबसे बड़ा धर्म गुरु भी बन बैठा था। इस्लाम धर्म के अनुयायियों के लिए सुल्तान जो खलीफा भी था, का फरमान किसी पैगंबर के फरमान समान था। ओटोमन साम्राज्य संग सबसे पहले रिश्ता कायम करने वाला भारतीय शासक मोहम्मद शाह तृतीय (1453-82) था। भारतीय मुसलमानों ने ओटोमन सम्राट सुल्तान सलीम को खलीफा की पदवी मिलने के बाद अपना सरपरस्त स्वीकार करने में देर नहीं लगाई थी। यहां यह समझा जाना जरूरी है कि इस्लाम में खलीफा को वही दर्जा हासिल था जो इसाईयत में पोप को है। ब्रिटिश शासकों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के चलते ओटोमन के शासक संग मधुर रिश्ते कायम कर लिए थे। उनके लिए तुर्की के बादशाह से मित्रता का सीधा अर्थ अपनी हुकूमत वाले हिस्से के मुसलमानों को साधे रखना था। 1857 के गदर के दौरान ब्रिटिश सम्राट के आग्रह पर तुर्की के बादशाह और खलीफा ने भारतीय मुसलमानों को अंग्रेजों संग वफादार रहने का फरमान जारी किया था।
भारतीय मुसलमान इस फरमान के चलते लंबे अर्से तक भारत में ब्रिटिश हुकूमत के वफादार बने रहे थे। लेकिन जैसे ही ब्रिटिश साम्राज्य के हित ओटोमन साम्राज्य से टकराने लगे और दोनों के मध्य जंग छिड़ी, भारतीय मुसलमान का ब्रिटिश हुकूमत से मोहभंग होना शुरू हो गया। 4, अगस्त, 1914 को ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया था। जल्द ही यह युद्ध विश्व युद्ध में तब्दील हो गया जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, रूस और अमेरिका एक तरफ तो जर्मनी, ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य दूसरी तरफ थे। इस महाविनाशक युद्ध में जीत एलीड पॉवर (Allied Power) कहलाए गए ब्रिटेन और उनके साथी देशों की हुई। इस युद्ध का एक नतीजा ओटोमन साम्राज्य के ध्वस्त होने का रहा था। तुर्की का इस युद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ उतरना भारतीय मुसलमानों के लिए बड़ी मुसीबत बन कर आया। एक तरफ उनका खलीफा था तो दूसरी तरफ वह ब्रिटिश हुकूमत जिसके संग उनका रिश्ता वफादारी का था। ब्रिटेन ने इस विश्व युद्ध में भारत को भी शामिल करते हुए बड़े स्तर पर भारतीय नौजवानों की सेना में भर्ती शुरू कर दी। सेना में भर्ती के मुद्दे पर गांधी और जिन्ना खुलकर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हो गए। यह अपने आप में भारी विरोधाभासी बात है कि अहिंसा के पुजारी रहे गांधी ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों की ब्रिटिश सेना में भर्ती का खुलकर समर्थन करा। गांधी इस एक मुद्दे पर पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत के साथ मजबूती से खड़े रहे।
उन्होंने भारतीयों से इस महायुद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग करने की अपील करते हुए कहा था ‘यदि हम इस युद्ध में मित्र ताकतों के साथ मिलकर लड़ते हैं तो न केवल हम उनके लिए लड़ेंगे बल्कि ‘स्वराज’ की अपनी लड़ाई भी आगे बढ़ा पायेंगे। हम ब्रिटिश हुकूमत से स्वराज को तत्काल हासिल कर पाने की स्थिति में पहुंच जाऐंगे।’ गांधी के ठीक उलट जिन्ना ने पूरी शिदद्त से अंग्रेजों की मुखालफत इस मुद्दे पर करी। जिन्ना ने वायसराय चेम्सफोर्ड को भेजे एक तार में स्पष्ट लिखा। ‘ We cannot ask our young men to fight for principles, the application of which is denied to their own country. A subject race cannot fight for others with the heart and energy with which a free race can fight for the freedom of itself and others. If india is to make great sacrifices in the defence of the Empire, it must be a partner in the Empire and not as a dependency…Let full responsible goverment be established in India within a definite period (हम अपने युवाओं को उन उसूलों की रक्षा के लिए युद्ध में नहीं झौंक सकते जिनका पालन हमारे देश में ब्रिटिश हुकूमत स्वयं न करती हो। जिस ताकत और ईमान के साथ कोई नस्ल अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ती है, उसी ताकत और ईमान से गुलाम नस्ल किसी और के लिए नहीं लड़ सकती। पहले भारत को यह एहसास दिलाना होगा कि ब्रिटिश सम्राट के अधीन वह यह युद्ध उनके लिए नहीं बल्कि अपने लिए भी लड़ रहा है। इसके लिए निश्चित समय में ‘स्वराज’ की स्थापना की जानी जरूरी है) जिन्ना का मानना था ‘स्वराज’ पाने का यह सबसे सही समय है कि प्रथम विश्व युद्ध के बहाने मिले इस अवसर का फायदा उठा ब्रिटिश हुकूमत को स्वराज के मुद्दे पर दबाव में ले लिया जाए। गांधी लेकिन इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुए। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि यदि इस दौर में और इस मुद्दे पर गांधी और जिन्ना एकमत हो जाते तो बहुत संभावना था कि भारत को न केवल स्वराज जल्द प्राप्त हो जाता बल्कि 1947 से कहीं पहले ही संपूर्ण आजादी हासिल हो जाती।
क्रमशः