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Editorial

लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई

 पिचहत्तर बरस का भारत -2

इतिहास का ईमानदार मूल्यांकन भविष्य के लिए स्पष्ट  संकेत पाने का शर्तिया सही तरीका है। जरूरत लेकिन निष्पक्ष मूल्यांकन की है। ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहे भारत के लिए क्या 1947 में मिली आजादी अमृत लेकर आई? मेरी समझ से अमृत इसमें कम था, विष की अधिकता ज्यादा थी जिसका नतीजा हैं वर्तमान समय की त्रासद स्थितियां। लोकतंत्र के चारों स्तंभ इस समय मजबूती से खड़े हुए तो नजर आते हैं, दीमक लेकिन इनको पूरी तरह खोखला कर चुकी है। इतना खोखला कि एक जोर का धक्का लगा नहीं कि चारों भरभरा कर गिर जायेंगे। इन चारों स्तंभों, न्याय पालिका, कार्यपालिका, विधायिका और प्रेस को खोखला करने वाली दीमकें है तो कई प्रकार की हैं, सबसे ज्यादा खतरनाक हैं भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता। दोनों ही हमें आजादी के साथ विरासत में मिली। इन दो में भी जिससे वर्तमान में सबसे ज्यादा खतरा है, जो सबसे ज्यादा घातक है, वह है साम्प्रदायिकता, जिसका सबसे विभस्त रूप हम 1947 में बंटवारे के रूप में देख-भुगत चुके हैं। पिछहत्तर बरस के भारत की यात्रा में इस सांप्रदायिकता का लगातार विस्तार हुआ है और वर्तमान में यह अपने चरम् पर पहुंच चुकी है। आजादी मिलने से पहले के एक दशक में धर्म आधारित विभाजन का मुद्दा कांग्रेस और मुस्लिम लीग की राजनीति ने परवान चढ़ाया जरूर, इसकी जड़े मजबूत इसी एक दशक में हुई किंतु बीज इसके दशकों पहले पड़ चुके थे। द्विराष्ट्र सिद्धांत (Two nation  theory) आजादी के आंदोलनकाल से पहले भी मौजूद था, आंदोलन के दौर में यह सक्रिय रहा और इसके समर्थन और विरोध के स्वर दोनों तरह से बराबर उठते रहे हैं। अपनी सत्ता को हर कीमत पर बचाए रखने की नीयत चलते अंग्रेज साम्राज्य ने हमेशा भारत के लोगों की बात करी, लेकिन कभी भी भारत को एक राष्ट्र उसने नहीं माना। अंग्रेज सत्ता का स्पष्ट मानना था कि भारत कभी भी एक राष्ट्र नहीं था। इसे ही अपना सिद्धांत बना उन्होंने हम पर दो सौ बरस तक राज किया। इतिहास का सही अध्ययन न करने के कारण अधिकांश भारत के विभाजन के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह पूरी तरह सच नहीं, अर्द्धसत्य अवश्य माना जा सकता है। जिन्ना शुरुआत में कट्टर राष्ट्रवादी थे। अधिकांश को इल्म नहीं होगा कि जिन्ना कांग्रेस के उन प्रभावशाली नेताओं में से एक थे जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई के शुरुआती दौर में हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए सबसे ज्यादा काम, सबसे ज्यादा प्रयास किए। द्विराष्ट्र सिद्धांत के असली जनक जिन्ना नहीं, बल्कि सर सैय्यद अहमद खान और विनायक दामोदर सावरकर रहे जिन्होंने पहले से ही बोए जा चुके बीज में जमकर खाद पानी डाला। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जनक सैय्यद अहमद खान ने 1883 में ही पटना में एक भाषण के दौरान धर्म आधारित दो राष्ट्रों की बात कह डाली थी। हालांकि इस भाषण में उनकी भाषा पूरी तरह से विभाजन की नहीं थी। उन्होंने कहा था ‘friends, in india, there are two prominent nations which are distinguished by the names of Hindus and musalman. Just as a man has some principle organs, similarly these two nations are like principal limbs of india’ (दोस्तों, इंडिया भीतर दो राष्ट्र मौजूद हैं। एक का प्रतिनिधित्व हिन्दू करते हैं तो दूसरे का मुसलमान। जैसे एक व्यक्ति के शरीर में कई महत्वपूर्ण अंग होते हैं, उसी प्रकार ये दो राष्ट्र इंड़िया के दो महत्वपूर्ण अंग हैं) 1885 में अखिल भारतीय कांग्रेस के गठन बाद लेकिन सर सैय्यद की भाषा पूरी तरह बदल गई। 1887 में उनके एक भाषण से इसकी पुष्टि होती है। उन्होंने पूरा यूर्टन लेते हुए कहा ‘Now suppose that all the english were to leave india then who would be rulers of india? Is it possible that under these circumstances two nations, mohammedan and Hindu, could sit on the same throne and remain equal in power? Most certainly not, it is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and inconceivable’ (मान लीजिए अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने को तैयार हो जाएं तो क्या वर्तमान स्थितियों में यहां दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान एक शासन के अंतर्गत रह सकते हैं? क्या दोनों के पास समान अधिकार होंगे? कत्तई नहीं। होगा यह कि एक पर दूसरा कब्जा कर उसे गुलाम बना लेगा। यह आशा रखना व्यर्थ है कि दोनों एक साथ रह सकते हैं। यह असंभव है और गैर यर्थातवादी है।)
कुछ इसी तरह हिन्दू संगठन और विचारकों ने भी द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर अपनी बातें आजादी से काफी पहले ही रखनी शुरू कर दी थी। ऑस्ट्रेलियन इतिहासकार इयान कापलैंड अपनी पुस्तक ‘The princes of India in the endgame of empire’ में लिखते हैं कि ‘उन्नीसवीं शताब्दी में आर्य समाज के उदय ने मुस्लिमों में असुरक्षा की भावना को गहरा करने का काम किया जिसका सीधा असर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर पड़ा। नतीजा रहा 1947 का विभाजन।’ इस विभाजन की बुनियाद भले ही आजादी के दशक से कहीं पहले पड़ गई थी जिसका संक्षिप्त उल्लेख मैंने किया, असल मजबूती 1937 से 1947 के मध्य इसे मिली। यही कारण है कि आजाद भारत को समझने के लिए कम से कम इस दशक की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर नजर डालना आवश्यक है।
1937 में ब्रिटिश सरकार ने अपने अधिपत्य वाले भारत में चुनाव कराने का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे मंशा दिनों-दिन तेज हो रहे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की तीव्रता को कम करना था। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि भारत के 11 प्रांतों में चुनाव करा कर वहां स्थानीय सरकार बना दी जाए ताकि जनता में उनकी हुकुमत के खिलाफ बढ़ रहा असंतोष कम हो और यह संदेश दिया जा सके कि ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर रहते हुए भी सत्ता भारतीयों के हाथों में ही है। कांग्रेस ने इन चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया। ग्यारह प्रांतों की 1585 विधानसभा सीटों में से 711 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई। पांच प्रांतों जिनमें मद्रास, यूनाईटेड प्रोविन्स, बिहार, सेन्ट्रल प्रोविन्स और उड़ीसा शामिल थे, उसे पूर्ण बहुमत मिल गया। बॉम्बे राज्य में कांग्रेस को आधे से अधिक सीटों पर विजय मिली तो असम और नॉर्थ-वेस्ट फन्ट्रियर प्रोविन्स में वह सबसे बड़ी पाटी बनकर उभरी। केवल बंगाल, पंजाब और सिंध में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा और वह इन प्रांतों में दूसरे नंबर की पार्टी ही बन पाई। बंगाल में वहां के दिग्गज नेता फजहुल हक की कृषक समाज पार्टी पहले स्थान पर रही तो पंजाब में सिकंदर खान हयात के नेतृत्व वाली यूनियनिस्ट पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग का प्रदर्शन खासा निराशाजनक रहा था। मुस्लिमों के लिए आरक्षित 485 सीटों तक में वह सफलता न पा सकी। उसे केवल 108 सीटों में विजय मिली थी। कांग्रेस इस जीत के बाद बड़ी भूल कर बैठी। इतिहास का निर्मम मूल्यांकन एक बड़े सच को सामने लाता है। वह सच है कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता। मुस्लिम लीग, विशेषकर मोहम्मद अली जिन्ना को इन चुनावों से गहरा झटका लगा था। जिन्ना मानकर चल रहे थे कि मुस्लिम बाहुल्य और मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों पर लीग का प्रदर्शन शानदार रहेगा। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। मुसलमानों के लिए 485 सीटें आरक्षित होने के बावजूद मुस्लिम लीग का प्रदर्शन जिन्ना के लिए व्यक्तिगत तौर पर बेहद शर्मनाक और सदमे वाला रहा था। कांग्रेस के समक्ष उस समय सुनहरा मौका मौजूद था कि वह एक धर्मनिरपेक्ष दल के रूप में स्वयं को स्थापित कर लीग की तरफ आकर्षित हो रहे मुसलमानों को वापस अपनी तरफ खींच ले। ऐसा लेकिन कर पाने में वह विफल रही। उसका हिंदुवादी चरित्र यहीं बेनकाब हो गया। उदाहरण के लिए बॉम्बे प्रांत में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी थी। वहां एक पारसी समाज के नेता नरीमन पारसी मुख्यमंत्री पद के सबसे काबिल दावेदार थे लेकिन सरदार बल्लभ भाई पटेल ने यह कहकर कि बॉम्बे प्रांत हिन्दू बाहुल्य है इसलिए मुख्यमंत्री हिन्दू ही होना चाहिए, नरीमन पारसी को मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया। ठीक इसी प्रकार बिहार में उस समय कांग्रेस के कद्दावर नेता डॉ ़ सैय्यद महमूद मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे जिन्हें डॉ ़ राजेन्द्र प्रसाद ने मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया और उनके स्थान पर अपनी जाति के नेता कृष्ण सिन्हा को शपथ दिला दी। इन घटनाओं का विस्तार से वर्णन मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने अपनी पुस्तक ‘India wins freedom’ में खुलकर किया है। नेहरू भी पीछे नहीं रहे। यूनाईटेड प्रोविन्स में कांग्रेस और लीग की गठबंधन सरकार बन सकती थी लेकिन नेहरू ने इस गठबंधन के लिए एक ऐसी शर्त रख दी जिससे मुस्लिम लीग कत्तई सहमत नहीं हुई। इतिहासकार के ़के ़अजीज अपनी पुस्तक Muslims under congress rule : 1937-1939′ में लिखते हैं कि नेहरू ने गठबंधन सरकार बनाने के लिए मुस्लिम लीग को जो मसौदा भेजा उसमें कहा गया था कि ‘The muslim league group in the united provinces would cease to function as a seperate group. The existing members of the muslim league party in the united Provinces Assembly shall become part of congress party and would fully share with ofter members of the party their privileges and obligations as members of the congress party. They will be subject to control and decipline of the congress party… (मुस्लिम लीग के सदस्यों को कांग्रेस पार्टी में शामिल होना होगा और वे अलग समूह के रूप में कार्य नहीं कर सकेंगे। उन पर कांग्रेस पार्टी का अनुशासन और नियम लागू होंगे) कांग्रेस का यह अहंकार और हिन्दू प्रेम मुस्लिम लीग को उससे पूरी तरह दूर करने और दो राष्ट्र की उसकी मांग को प्रमुखता से उठाने का कारण बन उभरा जिसकी परिणति 1947 के त्रासद विभाजन से हुई। आज जब मुख्यधारा की राजनीति में भाजपा का वर्चस्व हो चुका है और कांग्रेस पूरी तरह हाशिए पर जा चुकी है। वह भले ही भाजपा को सांप्रदायिक राजनीति के लिए कितना ही क्यों न कोस ले, इतिहास में उसकी गलतियां दर्ज हैं जो उसे भारत के वर्तमान के लिए उतना ही दोषी करार देती हैं जितना उग्र हिन्दुत्व के लिए दोष संघ और भाजपा को दिया जाता है।
क्रमश :

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