मेरी बात
बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल(यू) के सर्वोच्च नेता नीतीश कुमार इन दिनों भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्षी दलों का एक महागठबंधन बनाने की कोशिश में जुटे हैं। कांग्रेस प्रति दुराग्रह का भाव रखने वाली सभी विपक्षी ताकतों को वह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि बगैर कांग्रेस 2024 के आम चुनाव में भाजपा को शिकस्त दे पाना संभव नहीं है। बीते एक पखवाड़े के दौरान वे तृणमूल नेता ममता बनर्जी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव समेत कई विपक्षी नेताओं संग बातचीत कर विपक्षी एकता और रणनीति को पुख्ता स्वरूप देने की दिशा में आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं। उनके प्रयासों ने मुझे एक पुरानी कहावत का स्मरण करा दिया है- ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा।’ इस कहावत के जन्म की कहानी खासी रोचक है और वर्तमान परिदृश्य में नीतीश कुमार के प्रयास यदि सफल भी हो जाते हैं तो उसका अंतिम परिणाम भानुमती की कहानी समान खास उत्साहजनक होता मुझे नहीं लगता है। भानुमती काम्बोज नामक देश के राजा की अति रूपवान पुत्री का नाम था जिसके स्वयंवर के दौरान धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने जबरन उससे विवाह रचा लिया था। दुर्योधन ने इसके लिए महाबली कर्ण का सहारा लिया था और अपने इस कृत्य को यह कहकर जायज ठहराने का प्रयास किया था कि भीष्म पितामह भी अपने सौतेले भाइयों के लिए अंबा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण करके लाए थे। बहरहाल, दुर्योधन और भानुमती के इस बेमेल विवाह ने कालांतर में विचित्र परिस्थितियों को जन्म दिया। इन दोनों को दो संतानें हुईं पुत्र लक्ष्मण और पुत्री लक्ष्मणा। पुत्र अभिमन्यु के हाथों महाभारत युद्ध में मारा गया। अभिमन्यु की पत्नी का नाम वत्सला था जिसके पिता कृष्ण के भाई बलराम थे। बलराम अभिमन्यु के बजाए भानुमती पुत्र लक्ष्मण से वत्सला का विवाह कराना चाहते थे। भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा को कृष्ण का पुत्र साम्ब हरण कर ले गया था। इस तरह से एक बेमेल शादी का हश्र सुखद नहीं रहा जिसके चलते ही यह कहावत ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ प्रचलन में आई। जो नीतीश कुमार इन दिनों करते दिखाई दे रहे हैं, ठीक ऐसा ही 70 के दशक में लोकनायक जप्रकाश नारायण ने करने का प्रयास किया था। 1971 में इंदिरा गांधी का जादू देश भर में छाया हुआ था। बांग्लादेश गठन के बाद तो उन्हें मां दुर्गा का अवतार तक कह पुकारे जाने लगा था। इंदिरा इस महिमामंडन के बोझ तले ऐसा दबीं कि एक तानाशाह का जन्म हो गया। उनकी तानाशाही का चरम आपातकाल के रूप में सामने आया। जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी के विरोध में ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा बुलंद कर हर उस ताकत को एक छत के नीचे लाने का काम किया था जो वैचारिक तल पर एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत थीं। ऐसे सभी को जेपी ने इंदिरा विरोध के कामन एजेंडा तले एकत्रित कर जनता पार्टी का निर्माण 1977 में किया। जनता परिवार जयप्रकाश और आचार्य जेबी कृपलानी द्वारा जोड़ा गया भानुमती का कुनबा था जिसका बिखरना उसके गठन के दिन से ही तय था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने और जनता सरकार के गठन बाद ही यह बिखराव शुरू हो गया और मात्र ढाई बरस के बाद जनता परिवार पूरी तरह से टूट गया। बाद के वर्षों में कई मर्तबा कांग्रेस को केंद्र और राज्यों की सत्ता से अपदस्थ करने के लिए ऐसी कुनबेबाजी के बनने और टूटने का खेला होते हमने देखा। अब जबकि नरेंद्र मोदी का जादू चौतरफा छाया हुआ है और इंदिरा गांधी की तर्ज पर उन्हें भी ईश्वर का अवतार मानने वाले अंधभक्तों की फौज पैदा हो चुकी है, कांग्रेस समेत सभी भाजपा विरोधी ताकतें मोदी और भाजपा विरोध के चलते एकजुट होने का प्रयास कर जरूर रहे हैं लेकिन वैचारिक मतभेद और इन दलों के नेताओं की निज महत्वाकांक्षा ऐसे किसी भी गठजोड़ के स्थाई रहने की संभावना को न्यूनतम कर देती है। विपक्षी गठबंधन के पास वर्तमान में जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियत का भी अभाव है। जेपी चूंकि स्वयं सत्ता के आकांक्षी नहीं थे इसलिए उनके नेतृत्व को स्वीकारने में किसी को भी तब ऐतराज नहीं हुआ था। वैसे भी उस दौर में शुरू हुए बिहार छात्र आंदोलन और उसके बाद संपूर्ण देश में कांग्रेस राज के खिलाफ चले जनआंदोलन के वे एकमात्र-एकछत्र नेता थे। वर्तमान में भले ही बढ़ती महंगाई, आसमान छू रही बेरोजगारी, समेत 2014 में मोदी द्वारा किए गए अधिकांश वायदे जनअपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं, मोदी के प्रति आमजन में आकर्षण भले ही घटा हो, उसका असर बहुत कुछ बाकी है।
2014 से लगातार भाजपा हाथों परास्त होने के बावजूद विपक्षी दलों के मध्य एक सशक्त गठबंधन न बन पाने की यूं तो कई वजहें हैं, कांग्रेस के प्रति दुराग्रह का भाव सबसे बड़ी बाधा है जिसे हटाने की जिम्मेवारी अब नीतीश कुमार अपने हाथों में ले चुके हैं। उनका मुख्य लक्ष्य तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति को कांग्रेस नेतृत्व अथवा सहभागिता वाले गठबंधन का हिस्सा बनाना है। इन पार्टियों के प्रभाव क्षेत्र वाले पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, दिल्ली और पंजाब से कुल 159 सीटे संसद की हैं जिनमें से 94 में वर्तमान में भाजपा का कब्जा है। यदि इन पांच राज्यों में विपक्षी वोट बंटने से बच जाता है तो 2024 में भाजपा को यहां 25 से 40 सीटों का नुकसान हो सकता है। संकट लेकिन तृणमूल, सपा, आप और भारत राष्ट्र समिति का कांग्रेस विरोध है जो यदि नहीं थामा गया तो विपक्षी वोट एक बार फिर से बंटेगा जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलना तय है। राहुल गांधी का नेतृत्व विशेषकर इन राज्यों में मजबूत विपक्षी दलों के नेता स्वीकारने को कतई तैयार नहीं हैं ऐसे में संसद से राहुल की सदस्यता समाप्त होने चलते नीतीश कुमार के प्रयास संभवत रंग लाने में सफल हो सकते हैं। राहुल गांधी को मानहानी के मामले में सूरत की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने और उन्हें दो वर्ष कारावास की सजा सुनाए जाने का जिस तरह एक सुर में विपक्षी दलों ने विरोध किया है, उसने शायद नीतीश कुमार को प्रेरित करने का काम किया कि वे विपक्षी एकता की धुरी बनें और कांग्रेस के प्रति शाश्वत नाराजगी रखने वाले विपक्षी नेताओं को पूर्वाग्रह छोड़ और वक्त की नजाकत पहचान एक गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए तैयार करें। नीतीश की रणनीति है कि भाजपा को उसके प्रभाव वाले राज्यों में घेरा जाए। 2019 में 303 सीटें पाने वाली भाजपा को 267 सीटें 12 राज्यों से मिली थी। इनमें छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, असम, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक शिमल हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों ने शानदार प्रदर्शन कर इस भ्रम को तोड़ने का काम किया था कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हराया नहीं जा सकता। यह दीगर बात है कि इन दोनों ही राज्यों में विपक्षी दलों की सरकार को येन-केन-प्रकारेण गिरा भाजपा ने स्वयं की सरकार बना डाली, हालात 2024 में भाजपा के लिए इन राज्यों में बहुत अनुकूल नजर नहीं आ रहे हैं।
कर्नाटक में चुनाव से ठीक पहले एक पूर्व मुख्यमंत्री और एक पूर्व उपमुख्यमंत्री समेत कई भाजपा नेताओं का बागी हो कांग्रेस का दामन थामना स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि राज्य में जमीनी हालात भाजपा के लिए बहुत आश्वस्तकारी नहीं हैं। महाराष्ट्र में भी शिवसेना से बागी हुए विधायकों की मदद से भले ही भाजपा ने सरकार बना ली है, 2024 में उसे ठाकरे परिवार को मिल रही सहानुभूति चलते नुकसान उठाना पड़ सकता है।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का बढ़ रहा जनाधार भी कुछ ऐसे ही इशारे कर रहा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव यदि दलित वोट बैंक में थोड़ी भी सेंध लगा पाने में सफल होते हैं तो हिंदी पट्टी के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में भाजपा को खासा नुकसान उठाना पड़ सकता है। नीतीश इस गणित को भलीभांति समझते हुए विपक्षी एकता का सूत्रधार बनने की राह पर हैं।
यदि नीतीश इन 12 राज्यों में सभी विपक्षी दलों को एकजुट कर पाते हैं तो भाजपा के समक्ष 2024 में सत्ता वापसी का रास्ता बेहद कठिन हो जाएगा। स्मरण रहे दक्षिण के चार राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से संसद की 101 सीटें हैं जिनमें से मात्र 4 पर भाजपा 2019 में जीत दर्ज करा पाई है। नीतीश की राणनीति उस 62 प्रतिशत वोट बैंक को साधने की है जिसने 2019 में जब मोदी मैजिक अपने चरम पर था, भाजपा के खिलाफ मतदान किया। भाजपा को बीते लोकसभा चुनाव में 38 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि विपक्षी दलों को 62 प्रतिशत। नीतीश इसी 62 प्रतिशत वोट बैंक को विपक्षी एकता के जरिए साधने का प्रयास कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कर पाने में सफल रहते हैं तो 2024 में भाजपा की सत्ता वापसी का सपना धूल-धूसरित हो सकता है। प्रश्न लेकिन यह कि यदि नीतीश भानुमती का कुनबा जोड़ पाएं तो वह कितना स्थिर और टिकाऊ होगा? पर इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपा रहने देते हैं। अभी तो यह देखना दिलचस्प होगा कि कैसे यह कुनबा जुड़ता है और भाजपा इसके जवाब में क्या रणनीति बनाती है।