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Editorial

असल मुद्दों पर मोदी भारी

पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने मेरी दृष्टि से जिस एक बात को प्रमाणित करने का काम किया है वह है चौतरफा हिंदुत्व का प्रभाव। विशेषकर उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि गांव-कस्बों, छोटे शहरों की धूल-धक्कड़, छुट्टा पशुओं का आतंक, युवाओं में नौकरी न मिल पाने चलते उपजी हताशा, अल्पसंख्यकों का अपने ही वतन में बेवतन होने का भय, कोरोना काल में गंगा में बहते शवों की दुर्गंध, किसानों का आक्रोश इत्यादि सारे जमीनी मुद्दे इन चुनावों में मुद्दे बने ही नहीं। वोटर केवल दो बातों से प्रभावित रहा। पहला हिंदुत्व तो दूसरा केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों की लाभार्थी नीतियां। विपक्ष की सारी गणित धरी की धरी रह गई। एनआरसी और सीएए के जरिए पैदा किया गया धार्मिक उन्माद काम, भव्य राम मंदिर का निर्माण इत्यादि फैक्टर जमीनी मुद्दों पर भारी पड़े। जरा सोचिए, आखिरकार ऐसा चमत्कार हो कैसे गया? ‘मोदी है तो मुमकिन है’ पर आंख मूंद विश्वास करने वालों के लिए इसके क्या मायने हैं? क्या वर्ष अंत में प्रस्तावित दो राज्यों-गुजरात और हिमाचल के नतीजों पर इसका असर इस कदर पड़ेगा कि यहां भी विपक्ष की वापसी स्वप्न बनकर रह जाएगी। क्या 2023 में प्रस्तावित नौ राज्यों तेलंगाना, राजस्थान, मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों तक इसका असर दिखाई पड़ेगा? और सबसे बड़ा प्रश्न कि क्या 2024 में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए इन पांच राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश के नतीजों बाद, जीत पाने आसान हो चले हैं? और इन सबसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न कि क्या अब भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव होने जा रहा है जिसमें चुनाव धर्म, जाति और लाभार्थी योजनाओं पर केंद्रित होकर रह जाएगा? प्रश्न कई हैं, उत्तर तलाशने होंगे। जरूरी नहीं सभी प्रश्नों के उत्तर इन चुनाव नतीजों के जरिए तलाशे जा सकें लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि बुनियादी सवालों को ढापने का खेल ज्यादा समय तक चल नहीं सकता। ठीक वैसे ही जैसे पीतली सोने की कलई खुल ही जाती है। 2004 के लोकसभा चुनाव का मंजर याद करें और उसे 2022 के इन विधानसभा चुनावों संग तौलें तो बहुत सी समानताओं के मध्य छिपे वे समीकरण स्पष्ट हो जाएंगे जिन्हें धुआंधार परशेप्शन मैनेजमेंट के जरिए छिपाने का प्रयास किया गया और जो जमकर सफल रहा। 2004 में चारों तरफ ‘उदित और मुदित’ भारत की धूम दिखाई जा रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का ऐसा महिमा मंडन बजरिए कॉरपोरेट स्टाइल चुनावी कम्पैन के सहारे किया गया जिसमें भारत का कहीं नामोनिशान नहीं बचा था, वह इंडिया में बदल दिया गया था। वह इंडिया जो शाइनिंग था, राइजिंग था। फील गुड वाली इस इलेक्शन कैम्पेन में ऐसे सपनों की महफिल सजा दी गई थी जिनका हकीकत से दूर-दूर तक कोई वास्ता न था। सपने देखने के हम सभी आदि होते हैं। सपनों में हम हर उस संभावना को हकीकत में बदल देते हैं जिसकी हमें चाह होती है। राजनीति भी सपनों से ही चलती है। यूं भी कहा जा सकता है कि राजनीति सपने बेचने का धंधा है। 70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा बुलंद कर एक सपना ही तो दिखाया था। ऐसा सपना जो आज तक सपना ही बना हुआ है। अटल जी की सरकार में भी भारत के उदित होने के चलते मुदित होने का भ्रमचाल रचा गया था जिसे जनता ने नकार दिया। नकारा इसलिए था क्योंकि जिस भारत के उदित होने की बात कही जा रही थी वह दरअसल भारत नहीं, बल्कि उसका एक छोटा सा हिस्सा इंडिया था जो शाइन करने लगा था। उसकी हिस्सेदारी इतनी कम थी कि उसका समर्थन और वोट अटल सरकार को अटल रखने में सफल हो ही नहीं सकता था। हालात तब से लेकर 2022 तक यथावत हैं। मोदी जी जन अपेक्षाओं का पहाड़ चढ़ 2014 में देश के प्रधान सेवक बने। उन्होंने सपनों का ऐसा भ्रमजाल रचा कि क्या भारत, क्या इंडिया, सभी उसमें खो गए। प्रधान सेवक बनने की उनकी यात्रा, पूरी यात्रा, इन्हीं सपनों, इसी भ्रमजाल, इसी परशेप्शन मैनेजमेंट का कमाल थी जिसका साथ उन्होंने अपने लक्ष्य को पाने के बाद भी नहीं छोड़ा। छोड़ना संभव है भी नहीं क्योंकि उन्हें इस परशेप्शन मैनेजमेंट की लत लग चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने सपनों को धरातल पर उतारने के बजाए, नया स्वप्न लोक गढ़ने में महारथ पाने का लक्ष्य रख अपनी प्रधान सेवकी की यात्रा को विस्तार देना ज्यादा बेहतर समझा। बरस दर बरस वे नए सपने, उन सपनों के लिए जुमले गढ़ते चले गए, गढ़ते जा रहे हैं। उन्होंने 2014 की अपनी चुनावी कम्पैन ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ से की थी। 2015 में बतौर पीएम उन्होंने नया जुमला उछाला ‘जीरो डिफेक्ट, जीरो इफैक्ट।’ पन्द्रह अगस्त, 2015 को लाल किले की प्राचीर से अपने 65 मिनट लंबे भाषण में उन्होंने इसे देश की जनता को परसा था। तब देश के लघु और मध्यम उद्योगियों का आह्नान करते हुए पीएम ने ऐसा सामान तैयार करने को कहा जिसमें कोई कमी न हो और जो विदेशी बाजार में भारत का नाम चमका दे। इससे पहले सितंबर, 2014 में वे ‘मेक इन इंडिया’ का नारा दे चुके थे। 2015 में ही उन्होंने ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ का जुमला उछाल दिया। हर गली-मौहल्ले में इस जुमले के साथ उनकी तस्वीर लगते देर नहीं लगी। इस जुमले की चमक तब फीकी पड़ गई जब 2017 में उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगा रही पीड़िता ने न्याय न मिलता देख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सरकारी आवास के सामने आत्मदाह का प्रयास किया। 2020 में हुए हाथरस कांड के बाद तो इस जुमले पर यकीं करना वाला कोई बचा नहीं, ऐसा मुझ सरीखों को लगने लगा था। यह अजब इत्तेफाक है कि प्रधानमंत्री के सभी वायदे, सभी जुमले उस उत्तर प्रदेश में सुपर फ्लॉप साबित हुए हैं जहां  से स्वयं वे सांसद हैं और भाजपा की हिंदुत्व फैक्ट्री की जहां सबसे बड़ी प्रयोगशाला है। फिर चाहे वह ‘सबका साथ-सबका विकास’ का जुमला हो या फिर ‘पहले शौचालय-फिर देवालय।’ इसके बावजूद उनका मैजिक बरकरार है। कम से कम चार राज्यों के चुनाव नतीजे यही दर्शा रहे हैं।

दरअसल, प्रधानमंत्री के वायदे, उनके जुमले और उनके द्वारा दिखाए गए सपने इसलिए हकीकत का रूप ले पाने में विफल रहे हैं क्योंकि जिनके लिए उन्होंने वायदे किए, जुमलों की बौछार की, सपनों का महल खड़ा किया, उसमें से अधिकतर भारत का हिस्सा हैं। उस भारत का जिसे शेयर बाजार की तेजी से अथवा विदेशी मुद्रा के लगातार बढ़ रहे भंडार से, विदेशी पूंजी निवेश से, यहां तक की आर्थिक सुधारों तक से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। वह आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश की लगभग 80 प्रतिशत उस आबादी का हिस्सा हैं जो आज भी दो वक्त की रोटी पाने के लिए जूझ रहा है। वह शाइनिंग- राइजिंग वाले इंडिया से इतना दूर है कि उसे इस इंडिया के बाशिंदे समझ नहीं सकते। इंडिया की जमात के लोग इस बदरंग-बदहाल भारत के साथ अपनी संपन्नता बांटने को कतई तैयार नहीं होते हैं। यही कारण है कि भारत आज भी दुर्दशा के दलदल में गहरा धंसा पड़ा है। यही कारण है कि तमाम सपनों और जुमलों से वह जल्द प्रभावित भी होता है और असलियत समझ आते ही इन सपनों के सौदागारों को नकार भी देता है। प्रश्न उठता है, उठना लाजिमी भी है कि ऐसा इन चुनावों में क्योंकर नहीं हुआ?
पांच राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा की चुनावी कम्पैन को जरा समझने का प्रयास करिए। यदि मोदी राज के साढ़े सात बरस और योगी राज के पांच बरस इतने ही सुनहरे, शानदार रहे जितना मोदी-योगी दावा करते हैं, तो भला क्योंकर पूरी चुनावी कम्पैन अस्थिरता का भय दिखाने, अस्सी बनाम बीस की बात करने, बुलडोजर की वापसी इत्यादि पर केंद्रित रही? ऐसा इसलिए क्योंकि अपने वायदों और अपने जुमलों की हकीकत मोदी भी समझते हैं, योगी भी। इसलिए भाजपा का पूरा प्रयास धार्मिक आधार पर धुव्रीकरण कर, एक बार फिर 2014, 2017 और 2019 की भांति जनता को लुभाने का रहा, जिसमें वे पूरी तरह सफल भी रहे। मुफ्त राशन, मुफ्त गैस सिलेंडर आदि के जरिए एक बड़े वर्ग को ‘लाभार्थी वोट बैंक’ में तब्दील करने का सफल प्रयास किया गया जो इतना सफल रहा कि तमाम असल मुद्दों पर भारी पड़ गया। कोरोना काल में अपनों को खोने का गम भूखे पेट को मिल रहे फ्री अनाज के आगे हार गया। मैं इन नतीजों से अवाक् जरूर हूं लेकिन मेरा अब भी दृढ़ मत है कि धार्मिक धुव्रीकरण भी इस देश में एक सीमा से आगे नकार दिए जाने की रवायत रही है। आपातकाल के दौरान सत्ता की निरंकुशता से उपजे जनआक्रोश को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी समझ नहीं पाई थी। नतीजा उनकी करारी हार के रूप में सामने आया था। हां एक महत्वपूर्ण बात और कि इस देश के पूरी तरह बिकाऊ हो चले मीडिया की खुमारी जो इन चुनावों में टूटने की उम्मीद मुझ सरीखे कइयों को थी, अभी टूटेगा नहीं। हालांकि उसकी खुमारी टूटने का यही सही समय है। साख तो उसकी लगभग समाप्त हो ही चली है, अब भी यदि वह नहीं चेता तो दिन ज्यादा दूर नहीं जब सड़क पर इसी भारत की जनता उसे दौड़ा-दौड़ा कर पीटेगी। 2014 के बाद से ही ईमानदार, स्वतंत्र और कठोर आलोचना के जरिए परशेप्श्न मैनेजमेंट से पैदा हुई धुंध को छांटने के बजाए मीडिया का एक बड़ा तबका सत्ता और बाजार का एजेंट हो चला है। अब भी यदि उसका यही आचरण रहा तो लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को बर्बाद होने से रोक पाना संभव नहीं रह जाएगा। नतीजा इस चौथे स्तंभ की स्वीकार्यता यह देश स्वयं नकार देगा फिर सत्ता का भोंपू बने रहने सिवा इसके पास कोई विकल्प बनेगा नहीं।

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