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Editorial

संघीय व्यवस्था संग खिलवाड़

मेरी बात

भारत एक गणराज्य है। इस गणराज्य का एक लिखित संविधान है। यह संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इस संविधान में विस्तार से यह उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार के मामले केवल केंद्र सरकार के दायरे में आते हैं और कौन-से मामलों में राज्य सरकारों का हक है। पहले मामलों की बकायदा एक सूची है जिसे केंद्रीय सूची (Union list) कहा जाता है। दूसरी सूची को राज्य सूची (Concurrent List) कहा जाता है। इन दो के अतिरिक्त एक अन्य सूची भी है जिसमें उन मुद्दों को रखा गया है जिनमें केंद्र एवं राज्य सरकारों का बराबरी का दखल होता है। इस सूची को समवर्ती सूची (Concurrent List) नाम दिया गया है। संविधान निर्माताओं ने तीन बरस की कड़ी मशक्कत के बाद इस संविधान को बनाया। इसे बनाते समय हरेक मुद्दे पर संविधान सभा के 299 सदस्यों के मध्य विचार-विमर्श, बहस, यहां तक की कई बार तीखे संवाद तक हुए। गहन चिंतन-मंथन के बाद तैयार संविधान निश्चित ही इस गणराज्य की एक बहुमूल्य धरोहर समान है। यह संविधान देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद को जनहित में कानून बनाने का अधिकार देता है। इस पंचायत द्वारा बनाए गए कानून की व्याख्या का अधिकार न्याय पालिका को इसी संविधान ने दिया है। संविधान निर्माताओं की भावना यही रही कि संसद द्वारा बनाए गया कानून संविधान अनुसार है अथवा नहीं यह उच्चतम न्यायालय तय करेगा। बीते पखवाड़े दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र को लेकर उच्चतम न्यायालय का फैसला और उस फैसले को एक अध्यादेश के जरिए पलटा जाना गंभीर सवाल खड़े करता है। यह मुद्दा केंद्र बनाम दिल्ली सरकार, उपराज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री, भाजपा बनाम आप अथवा मोदी बनाम केजरीवाल से कहीं अधिक गंभीर है, बेहद चिंतनीय है और पूरी संघीय व्यवस्था को कमजोर करने की ताकत रखने वाला है।

2015 में आम आदमी पार्टी प्रचंडतम् बहुमत के साथ दिल्ली में दोबारा सत्तारूढ़ हुई थी। तभी से दिल्ली की नौकरशाही पर नियंत्रण के मुद्दे को लेकर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के मध्य टकराव शुरू हो गया था। सामान्यतः राज्य की नौकरशाही पर अधिकार राज्य सरकार का होता है। दिल्ली को चूंकि पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है इसलिए समय-समय पर यहां की चुनी हुई सरकार और केंद्र सरकार के मध्य अधिकारों को लेकर मतभेद होते रहे हैं। हालात लेकिन इतने खराब कभी नहीं थे जितने 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद देखने को मिल रहे थे। सत्ता संभालने के साथ ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग के साथ टकराव की राजनीति शुरू कर दी थी। नजीब जंग के बाद आए उपराज्यपाल अनिल बैजल संग भी केजरीवाल के रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं रहे। वर्तमान उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के साथ तो आप सरकार के संबंध निम्नतम् स्तर पर जा पहुंचे हैं। सक्सेना केंद्र सरकार के प्रतिनिधि हैं, आचरण लेकिन वे किसी चुने हुए मुख्यमंत्री समान कर रहे हैं जिस चलते दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई है। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार दिल्ली की शासन व्यवस्था का मुखिया जनता द्वारा चुना गया व्यक्ति है। जनता ने एक नहीं बल्कि दो बार अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में भरोसा जताते हुए उन्हें दिल्ली की सत्ता सौंपी है। इस जनविश्वास का सम्मान किया जाना संघीय व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है। दिल्ली में लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। यहां बजरिए उपराज्यपाल भाजपा दखलअंदाजी करती बीते कई वर्षों से स्पष्ट नजर आ रही है। संविधान के अनुच्छेद 239-एए में दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) की बाबत विशेष व्यवस्था है जिसके अनुसार कानून व्यवस्था, पुलिस बल और जमीनी मसलों पर सीधे केंद्र सरकार का अधिकार रहेगा। इन तीन को छोड़ राज्य सरकार के पास बाकी सभी विषयों पर कानून बनाने और उन्हें लागू करने का अधिकार है। 2015 में केजरीवाल सरकार के गठन पश्चात् केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए नौकरशाही का सीधा नियंत्रण उपराज्यपाल के हाथों में सौंप दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि नौकरशाहों ने अपने विभाग के मंत्रियों को दरकिनार करना शुरू कर दिया। सचिव स्तर के अधिकारी दिल्ली सकार के मंत्रियों द्वारा बुलाई गई बैठकों में भाग नहीं लेने लगे और विभाग की बाबत आदेश सीधे उपराज्यपाल से प्राप्त करने लगे। गृह मंत्रालय के इस आदेश से त्रस्त केजरीवाल सरकार ने 2015 में दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 2016 में उच्च न्यायालय ने इस बाबत फैसला सुनाते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा नौकरशाही का नियंत्रण उपराज्यपाल को दिए जाने को सही करार दे दिया। यह केजरीवाल सरकार के लिए बड़ा आघात था। अब दिल्ली की नौकरशाही के हांसले और बुलंद हो गए। मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों की खुली अवहेलना की जाने लगी। इससे भारी अराजकता पैदा हो गई। दिल्ली सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष लगभग सात वर्षों तक सुनवाई चली। गत् 11 मई को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने दिल्ली सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया और नौकरशाही को राज्य सरकार के अधीन करते हुए उनके ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार राज्य सरकार को सौंप दिया। सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने एकमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि दिल्ली के सभी प्रशासनिक मामलों पर फैसला लेने का अधिकार उपराज्यपाल के पास नहीं हो सकता और चुनी हुई सरकार के अधिकारों पर उपराज्यपाल की दखलअंदाजी नहीं हो सकती है। संविधान पीठ ने कहा कि ‘भूमि, लोक व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर सेवाओं से जुड़े सभी फैसले, अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले का अधिकार दिल्ली सरकार के पास ही होगा।’ सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में कहा कि ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में असली शक्ति जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में ही होनी चाहिए। अगर किसी राज्य में कार्यकारी शक्ति केंद्र और राज्य के मध्य बंटी होती है तो यह देखा जाना जरूरी है कि राज्य के कामकाज पर केंद्र हावी न हो जाए, यदि ऐसा होता है तो यह संघीय प्रणाली और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत होगा।’ सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में नौकरशाही को दिल्ली सरकार के अंतर्गत करते हुए कहा कि ‘आदर्श स्थिति तो यही होनी चाहिए कि सेवाओं से जुड़े मामले दिल्ली सरकार के पास रहे। अगर मंत्रियों का नीतियों को लागू करवाने वाले अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं होगा तो वे काम कैसे करवा पाएंगे?’
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश लेकिन केंद्र सरकार को खास नागवार गुजरा है। इस आदेश का अभी दिल्ली सरकार अनुपालन करवा भी नहीं पाई थी कि आनन- फानन में राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी कर ‘सेवाओं’ पर अधिकार वापस उपराज्यपाल के हवाले कर दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र सरकार के पास यह संविधान प्रदत्त शक्ति है कि वह किसी भी मसले पर संसद में कानून बना सकती है और इस कानून के जरिए सुप्रीम कोर्ट के किसी भी आदेश को प्रभाव शून्य कर सकती है। यह भी संवैधानिक व्यवस्था केंद्र सरकार के पास है कि वह संसद सत्र से पहले आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति के माध्यम से किसी भी विषय पर अध्यादेश के जरिए कानून बना सकती है। ऐसे अध्यादेश को 6 माह के भीतर संसद से मंजूरी मिलना जरूरी होता है। तकनीकी दृष्टि से दिल्ली सरकार के पास ‘सेवाओं’ से जुड़े अधिकारों की बाबत सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को अध्यादेश के जरिए केंद्र सरकार बदल सकती है। उसने ऐसा ही किया भी। आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को एक अध्यादेश के द्वारा प्रभाव शून्य करने का यह फैसला भले ही तकनीकी दृष्टि से केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता हो, ऐसा कर उसने सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ को चुनौती देने का काम किया है जो लोकतंत्र के लिए, उसकी गरिमा के लिए और संघीय व्यवस्था के लिए किसी भी दृष्टि से हितकर और जायज नजर नहीं आती है। केंद्र सरकार के इस फैसले ने अब एक नया मोर्चा न्यायपालिका बनाम विधायकी का खोल दिया है। यदि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के इस अध्यादेश को रद्द नहीं करती है तो प्रश्न उठेंगे कि ऐसा न कर उसने केंद्र सरकार को मनमानी करने की खुली छूट दे दी है। यह आशंकाएं भी बलवती होंगी कि भविष्य में सुप्रीम कोर्ट के हर आदेश को अध्यादेशों के जरिए प्रभाव शून्य किया जाने लगेगा। दूसरी तरफ यदि सुप्रीम कोर्ट इस अध्यादेश को खारिज कर देती है तो विधायकी और न्यायपालिका के मध्य पहले से ही खासे तनावपूर्ण चल रहे संबंधों में कड़वाहट गहराएगी। इसलिए मैंने इस आलेख की शुरुआत में लिखा है कि यह मुद्दा आप बनाम भाजपा अथवा मोदी बनाम केजरीवाल तक नहीं सीमित है। इस अकेले अध्यादेश में इतनी ताकत है कि आने वाले दिनों में यह पूरी संघीय व्यवस्था को चरमराने और न्यायपालिका बनाम केंद्र सरकार की जंग शुरू करवा सकता है। केंद्र सरकार का यह फैसला एक और आशंका को जन्म देता है कि दिल्ली सरीखे छोटे से राज्य में चुनी हुई सरकार को किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर पा रही। भाजपा यदि 2024 के आम चुनाव हार जाती है तो क्या वह आसानी से सत्ता हस्तांतरण हो जाने देगी? यह बेहद गंभीर प्रश्न है। कम से कम इस अध्यादेश को जिस तरीके से लाया गया, उससे तो यही संकेत मिलते हैं कि वर्तमान सत्ताधीशों की आस्था लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति कमजोर है। कमजोर आस्था बड़ी दुर्घटनाओं को जन्म देती है।

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