मेरी बात
उत्तराखण्ड एक बार फिर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र इन दिनों बन चुका है। फिर से चर्चा का कारण नकारात्मक है, हमेशा की तरह। स्मरण रहे 2013 में केदारनाथ आपदा के दौरान इस हिमालयी प्रदेश को पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र बना दिया था। इस बार जोशीमठ नाम का एक छोटा सा कस्बेनुमा शहर विश्व भर का ध्यान अपनी तरफ खींच रहा है। कारण है पूरे शहर के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा। लगभग 17 हजार की जनसंख्या वाले इस शहर की इमारतों, सड़कों पर गहरी दरारें पड़ चुकी हैं। पूरा शहर कभी भी जमींदोज हो सकता है। जाहिर है ऐसा यकायक तो हुआ नहीं होगा। यह भी जाहिर है कि इस शहर पर मंडरा रहे खतरे के संकेत अरसा पहले से मिलने लगे होंगे। जोशीमठ का यह हश्र क्यों हो रहा है, इसे समझने से पहले थोड़ा इस कस्बेनुमा शहर के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व को समझना जरूरी है।
समुद्र तट से 6 हजार 150 फीट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ उत्तराखण्ड के चमोली जिले में आता है। सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य इस इलाके में कत्यूरी वंश का राजा था। प्रसिद्ध इतिहासकार बद्रीदत्त पाण्डे ने अपनी पुस्तक ‘कुमाऊं का इतिहास’ में लिखा है कि जोशीमठ कत्यूरी वंश की पहली राजधानी थी। कत्यूरी वंश की स्थापना वासुदेव कत्यूरी ने की थी। इन्हीं के नाम पर जोशीमठ में वासुदेव मंदिर स्थापित है। राजा वासुदेव बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। आदि शंकराचार्य के संपर्क में आने के बाद कत्यूरी राज परिवार हिंदू धर्म को मानने लगा था। आदि शंकराचार्य ने इसी स्थान पर ज्योर्तिपीठ नाम से एक मठ स्थापित किया। इसी ज्योर्तिपीठ के कारण यह स्थान जोशीमठ कहलाया जाने लगा। कत्यूरी वंश ने कालांतर में यहां से अपनी राजधानी कुमाऊं क्षेत्र के कार्तिकेयपुर (वर्तमान में बैजनाथ, जिला बागेश्वर) में स्थानांतरित कर ली थी। इस स्थानांतरण के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। राजा वासुदेव भगवान विष्णु के अवतार नरसिंह के भक्त थे। एक दिन जब राजा शिकार पर गए थे तब भगवान नरसिंह एक संन्यासी का वेश धर राजमहल पहुंचे जहां उनका यथोचित स्वागत सत्कार वासुदेव की पत्नी ने किया। संन्यासी भोजन इत्यादि के पश्चात राजा वासुदेव की पलंग पर सो गया। जब राजा वापस लौटे तो वे एक अंजान आदमी को अपने शयनकक्ष में पा क्रोधित हो उठे। उन्होंने सोते हुए भगवान नरसिंह का बायां हाथ अपनी तलवार से काट डाला। कथानुसार भगवान के कटे हाथ से रक्त के बजाए दूध की धारा निकलती देख राजा वासुदेव समझ गए कि यह व्यक्ति स्वयं भगवान हैं। नरसिंह ने राजा को माफ तो करा लेकिन श्राप भी दे डाला कि अब उसे यह इलाका छोड़ कहीं अन्यत्र अपनी राजधानी बनानी पड़ेगी। नरसिंह ने यह भी आदेश दिया कि राजा उनका एक मंदिर का यहां निर्माण करेगा जिसमें भगवान की जो मूर्ति स्थापित होगी उसका बायां हाथ कमजोर दिखाया जाएगा। जब कभी भी यह हाथ मूर्ति से टूट कर गिर जाएगा, कत्यूरी वंश उसी दिन समाप्त हो जाएगा। कथानुसार ऐसा ही हुआ भी और ग्यारहवीं शताब्दी में कत्यूरी वंश के स्थान पर इस क्षेत्र में पंवार वंश की सत्ता स्थापित हो गई। जगत्गुरु आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में यहां ज्योर्तिपीठ नाम से मठ की स्थापना की जो शंकराचार्य के द्वारा स्थापित चार मठों में से एक है। जोशीमठ अपने धार्मिक महत्व से इतर सामरिक दृष्टि से भी खासा महत्वपूर्ण है। भारतीय थल सेना की यहां बड़ी छावनी है। गढ़वाल राइफल्स की स्कॉउट बटालियन ‘गढ़वाल स्कॉउटस्’ का यहां मुख्यालय है। भारत-तिब्बत अंतरराष्ट्रीय सीमा पर थल सेना का सबसे बड़ा ठिकाना जोशीमठ में ही है। यहां स्थापित नरसिंह मंदिर के बारे में मान्यता है कि भगवान नरसिंह की मूर्ति का दायां हाथ लगातार कमजोर होता जा रहा है और जिस दिन यह हाथ मूर्ति से अलग हो जाएगा, उसी दिन बद्रीनाथ मार्ग पर पड़ने वाले दो पर्वत जय-विजय आपस में जुड़कर एक हो जाएंगे और उसी दिन बद्रीनाथ एवं केदारनाथ मंदिर भी गायब हो जाएंगे तथा केदारनाथ में स्थापित शिवलिंग एक नए स्थान जिसे ‘भविष्य केदार’ कहा जाता है, में प्रकट हो उठेगा। यह ‘भविष्य केदार’ जोशीमठ में स्थित है। इसी प्रकार से मान्यता है कि जोशीमठ से 10 किलोमीटर की दूरी पर ‘शालीग्राम’ के रूप में बद्री भगवान प्रकट होंगे। इस स्थान को ‘भविष्य बद्री’ कह पुकारा जाता है।
ऐसे पौराणिक-धार्मिक और सामरिक महत्व वाले जोशीमठ का अस्तित्व आज खतरे में है तो इसके पीछे किसी भगवान का, दैवीय शक्ति का श्राप नहीं है। दैवीय शक्तियों ने तो इस स्थान को ‘भविष्य बद्री’ और ‘भविष्य केदार’ बनने का आशीर्वाद दिया है। मनुष्य ने लेकिन अपने लालच और कथित विकास के नाम पर इस दिव्य क्षेत्र में ताबाही लाने का काम कर डाला है। इस इलाके में दशकों पहले से ही भूस्खलन की घटनाएं होने लगी थी। 1976 में एक अठारह सदस्यीय कमेटी ने इस पूरे क्षेत्र को ‘अतिसंवेदनशील’ घोषित करते हुए यहां बड़े निर्माण कार्यों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए जाने, वृक्षों का कटान रोकने और जोशीमठ कस्बे में बारिश के पानी को नियंत्रित करने के लिए उचित नाली निकासी व्यवस्था बनाए जाने की सिफारिश की थी। इस कमेटी के अध्यक्ष गढ़वाल कमीशनरी के तत्कालीन आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा थे। इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया ‘Joshimath is situated on a deposit of sand and stone, and is not suitable for a township. Vibrations caused by blasting and hcavy traffic, will also lead to disequilibrium in natural factors…heavy construction work should only be alllowed after examining the load bearing capacity of the soil. For road repair and other construction work, it would be advisable not to remove boulders by digging or blasting the hillside. In the landslide prone areas, stones and boulders should not be removed from the bottom of the hill, as it will cause loss of support’. (जोशीमठ बालू और पत्थर के ढेर पर बसा हुआ है यह इस दृष्टि से किसी टाउनशिप के लिए उपयुक्त नहीं है। धमाकों और भारी यातायात से पैदा होने वाले कंपन यहां पर प्राकृतिक असंतुलन पैदा करने का काम करेंगे…भारी निर्माण कार्य की अनुमति केवल मिट्टी की भार वहन करने की क्षमता के दृष्टिगत् ही दी जानी चाहिए। सड़कों की मरम्मत एवं अन्य प्रकार के निर्माण कार्य किसी भी स्थिति में पहाड़ों को खोदकर अथवा विस्फोट कर नहीं किए जाने चाहिए। भूस्खलन प्रभावित इलाकों में पत्थरों और बड़े शिलाखण्डों को पहाड़ी की तलहटी से नहीं हटाया जाना चाहिए क्योंकि इससे पहाड़ को मिलने वाली मजबूती प्रभावित होती है।) 47 बरस पहले की इस रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने लेकिन गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा जिन-जिन गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की बात इस रिपोर्ट में कही गई थी, हर उस गतिविधि को बढ़-चढ़कर परवान चढ़ाया गया। चमोली जिला प्रशासन के अनुसार यहां वर्तमान में 3 हजार 900 आवासीय भवन एवं 400 व्यावसायिक भवन हैं जिनमें से मात्र 1 हजार 790 घर सरकार से इजाजत लेकर बनाए गए हैं बाकी सारा निर्माण बगैर किसी इजाजत किया गया है। नतीजा आज सबके सामने है एक ऐतिहासिक, धार्मिक और सामरिक महत्व का शहर विध्वंस के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। फरवरी, 2021 में इसी इलाके में भारी बाढ़ का भयंकर मंजर पूरे विश्व ने देखा था। जोशीमठ से मात्र 22 किलोमीटर दूरी पर बसे गांव रैणी, जोशीमठ, नंदा देवी नेशनल पार्क और यहां बन रही तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना को इस बाढ़ ने तबाह करने का काम किया था। इस तबाही में 200 लोगों की जान चली गई थी। मारे गए लोगों में अकेले 140 तपोवन विष्णुगाड़ विद्युत परियोजना के वर्कर थे। पर्यावरणविद् लंबे अर्से से सरकारों को इस संपूर्ण क्षेत्र (पूरे उत्तराखण्ड) की भौगोलिक संवेदनशीलता को लेकर चेताते रहे हैं लेकिन कथित विकास के नाम पर सरकारों ने अपनी आंख-कान मूंद रखे हैं। 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्ति की गई एक वैज्ञानिक कमेटी ने इस क्षेत्र में बड़े डैम और बड़ी विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकारा नहीं। देहरादून स्थित ‘पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट’ के निदेशक डॉ. रवि चोपड़ा जो इस समिति के सदस्य थे, इस बाबत लगातार अपना प्रतिरोध दर्ज कराते रहे हैं। डॉ. चोपड़ा ने भारत सरकार द्वारा चारधाम की सड़कों के चौड़ीकरण (ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट) को भी इस इलाके के लिए अति घातक करार दिया है लेकिन सरकार अपने हठ पर कायम है। नतीजा इस कथित ऑल वेदर रोड में लगातार हो रहे भूस्खलन के बतौर हर वर्ष देखा जा रहा है।
कितनी अजब बात है, बात क्या त्रासदी है कि जिन हिंदू तीर्थ स्थलों के नाम पर यह सब किया जा रहा है, उन तीर्थ स्थलों का अस्तित्व ही इस कथित विकास के चलते खतरे में पड़ चुका है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय ऐसा आने वाला है जब बद्रीनाथ और केदारनाथ अपने स्थलों से गायब हो जोशीमठ के निकट ‘भविष्य बद्री’ और ‘भविष्य केदार’ के रूप में उभरेंगे। ऐसा स्वयं भगवान के कहे अनुसार होगा। लेकिन उसी भगवान के अनुयायी इसे गलत साबित करने की ठाने हैं। जोशीमठ का वजूद आज मनुष्य जनित कारणों के चलते खतरे में है। ऐसे में ‘भविष्य बद्री’ और ‘भविष्य केदार’ की भविष्यवाणी का क्या होगा? यह तय है कि सरकारें, चाहे किसी भी दल, किसी भी विचारधारा की क्यों न हो, इस कथित विकास के प्रति सभी का दृष्टिकोण एक समान रहा है। उत्तराखण्ड को यदि ऐसे विनाशकारी विकास से बचाना है तो एक बार फिर से जनता को ही पहल करनी होगी। अन्यथा आज जोशीमठ खतरे में है, कल यही हश्र नैनीताल का होगा और भविष्य में पूरे हिमालयी क्षेत्र का।