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Editorial

टूटने लगा है तिलिस्म

अरबी भाषा का एक शब्द है ‘तिलिस्म’। इसका अर्थ है ‘मायारचित वह विचित्र स्थान जहां अजीबों -गरीब व्यक्ति और चीजें दिखाई पड़े और जहां जाकर आदमी खो जाए। फिर उसे घर पहुंचने का रास्ता न मिले।’ इस अर्थ को यदि प्रधानमंत्री मोदी की करिश्माई छवि से जोड़कर जरा 2013 का समय याद किया जाए तो बहुत कुछ साफ हो जाता है। 2009 में भाजपा लाल कृष्ण आडवाणी जी के चेहरे को आगे कर बड़ी शिद्दत से चुनावी समर में उतरी थी। तब भाजपा ने आडवाणी की तुलना लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल से करते हुए नारा दिया था ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार।’ भारतीय चुनावों में नारों का खासा महत्व रहता आया है। 2009 के आम चुनाव में जहां सत्तारूढ़ कांग्रेस ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ को चुनावी नारा बना लड़ी थी, भाजपा ने एक के बाद एक कई नारों को आजमाया था। पहले ‘दमदार सरकार’, फिर ‘देश का गौरव भाजपा’ और उसके बाद ‘आपका अधिकार, दमदार सरकार’ को मैदान में परखा गया। भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों ने बकायदा एक सर्वे तब कराया था जिसमें सबसे ज्यादा पसंद ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ को  किया गया। इसी नारे को आगे कर आडवाणी जी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया लेकिन नतीजा भाजपा के खिलाफ गया। 2013 आते-आते देश की राजनीतिक फिजा बदलने लगी थी। अन्ना आंदोलन ने सत्तारूढ़ यूपीए सरकार की चूलें हिलाने का काम कर डाला था। भाजपा खुद को सत्ता के करीब आते देख रही थी। पार्टी भीतर ‘ओल्ड बनाम यंग’ की जंग शुरू हो चली थी। आडवाणी जी एक बार फिर से 2014 के चुनाव में भाजपा का नेतृत्व करने के लिए लालायित थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का लेकिन अपने गढ़े इस लौह पुरुष से मोह भंग हो चुका था। नतीजा रहा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्रीय राजनीति में उतारा जाना। टीम मोदी ने नरेंद्र भाई की छवि को अपने आकर्षक नारों और मीडिया मैनेजमेंट के जरिए ‘तिलिस्मी’ बना डाला। बतौर गुजरात सीएम उनके द्वारा राज्य के विकास का बढ़-चढ़कर बखान किया गया। शुरूआत 1996 में भाजपा के चुनावी नारे ‘अबकी बारी अटल बिहारी’ से प्रेरणा लेते हुए ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे से हुई। जनता यूपीए-2 के आकंठ भ्रष्टाचार से त्रस्त हो ही चुकी थी। उसने गुजरात के ‘विकास मॉडल’ और वहां के ‘विकास पुरुष’ की तिलिस्मी छवि को हाथों हाथ लिया। नतीजा रहा 2014 में मोदी सरकार का गठन। टीम मोदी ने इसके बाद एक से बढ़कर एक ‘तिलिस्मी जुमलों की बाढ़ लगा डाली। ‘56 इंच का सीना’,‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’, ‘हर खाते में 15 लाख’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ इत्यादि जुमलों ने प्रधानमंत्री की छवि को दिनों दिन निखारने के साथ-साथ उसे और ‘तिलिस्मी’ बनाने का काम किया। 2016 में पीएम मोदी ने एक बड़ा कदम उठाते हुए नोटबंदी कर डाली। इस नोटबंदी से जनता कराह उठी, अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठ गया। फिर आया राफेल लड़ाकू विमान सौदे में भ्रष्टाचार का मुद्दा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ के सहारे इस मुद्दे पर मोदी की छवि को ध्वस्त करने का खासा प्रयास किया। 2017 में हुए गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान  नोटबंदी के आफ्टर इफैक्ट्स ने भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था। इसकी काट के लिए स्वयं पीएम मोदी को मैदान में नए नारे ‘मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं’ के सहारे उतरना पड़ा। इसके बाद 2018 के मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ का जुमला उछाला। नतीजा रहा दोनों ही राज्यों में काबिज भाजपा की हार और कांग्रेस सरकारों का गठन। 2019 में भाजपा ने पहले नारा दिया ‘एक बार फिर मोदी सरकार।’ इसके बाद आया ‘मोदी है तो मुमकिन है।’ यह नारा हिट रहा। 2014 से कहीं ज्यादा बहुमत से मोदी दोबारा सत्ता में काबिज हुए। इस नारे ने प्रधानमंत्री की छवि को ज्यादा ‘तिलिस्मी’ बनाया। इतना जबरदस्त इस नारे का प्रभाव रहा कि मोदी के प्रशंसकों के साथ-साथ उनके विरोधी भी स्वीकारने लगे हैं कि मोदी जो चाहे कर सकते हैं। लेकिन अब यही नारा प्रधानमंत्री की करिश्माई छवि को ध्वस्त करने और ‘तिलिस्म’ को तोड़ने का काम करता नजर आने लगा है। समझिए कैसे? तीन कृषि कानूनों को लेकर भक्तगण खासे आश्वस्त थे कि येन-केन-प्रकारेण प्रधानमंत्री किसानों को समझाने में सफल हो ही जाएंगे। भाजपा भीतर भी यही माहौल था। सबका मानना था कि पीएम कुछ-न- कुछ ऐसा अवश्य करेंगे कि किसान अपने घर लौटने पर मजबूर हो जाएंगे और यह आंदोलन भाजपा का बगैर कोई खास नुकसान किए जीरो हो जाएगा। प्रधानमंत्री लेकिन पीछे हट गए। उनका यही कदम भक्तों पर भारी गुजरा है और ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का भ्रम थोड़ा दूर हुआ है। मोदी कुछ भी कर सकते हैं, सोचने के कई वाजिब कारण भी हैं। सीएए के मुद्दे पर भी जबरदस्त जनआंदोलन चला। केंद्र सरकार लेकिन टस से मस नहीं हुई। केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर जमकर बवाल मचता रहा है। विशेषकर सरकारी प्रतिष्ठानों की बिक्री पर। ऐसे सभी संस्थानों के कर्मचारी केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार धरने पर बैठे लेकिन सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं। पेट्रोल, डीजल और खाने की गैस के दाम आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गए लेकिन सरकार पीछे नहीं हटी। सरकारी कंपनियों के निजीकरण के चलते पहले से चरम पर पहुंची बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी होने लगी है। सरकार की इस नीति का चौतरफा विरोध है लेकिन एक के बाद एक ऐसे प्रतिष्ठान चुनिंदा उद्योगपतियों के हवाले किए जा रहे हैं। भारत की सबसे ज्यादा साख वाली जीवन बीमा निगम तक की हिस्सेदारी बेची जा रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी लंबे अर्से से भाजपा और पीएम पर तंज कसते हुए कहते आ रहे हैं ‘हम दो-हमारे दो।’ उनका इशारा प्रधानमंत्री संग देश के दो बड़े उद्योगपतियों, मुकेश अंबानी और गौतम अडानी की कथित निकटता को लेकर होता है। मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी की राफेल डील में इंट्री और गौतम अडानी समूह को देश के हवाई अड्डों से लेकर हरेक सरकारी नीति के चलते मिलता फायदा, इन आरोपों की पुष्टि करता है। कुछ अर्सो पहले ही अड़ानी समूह द्वारा संचालित एक बंदरगाह से खरबों की ड्रग्स का भारत में प्रवेश करने की खबर आई है। कल्पना कीजिए यदि यह बंदरगाह अडानी का न होकर किसी और का होता तो ईडी, सीबीआई, एनआईए किस एक्शन मोड में नजर आतीं? केंद्र सरकार बीएसएनएल, एमटीएनएल, बीपीसीएल और बचे-खुचे सरकारी बैंकों में से चार को बेचने की तैयारी कर रही है। चौतरफा चर्चा है कि इनमें से कई इन दो उद्योगपतियों की झोली में जाने वाले हैं। इस चौतरफा चर्चा के बावजूद ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के तिलिस्म चलते ऐसा होना तय था। अब लेकिन बहुत कुछ बदल रहा है। तीन कृषि कानूनों की वापसी ने इस ‘मोदी है तो मुमकिन है’ की छवि को दरका दिया है। अब यह निगेटिव रूप में कहा जाने लगा है। गौतम अड़ानी एशिया के सबसे अमीर आदमी बने हैं तो कहा जा रहा है ‘मोदी है तो मुमकिन है।’ महंगाई बढ़ रही है तो सोशल मीडिया में ट्रेडिंग हो रहा है ‘मोदी है तो मुमकिन है।’

कुल मिलाकर अब तिलिस्म टूटने लगा है। इससे बड़ा लाभ है अंधभक्ति का टूटना। यह आज की सबसे बड़ी जरूरत है। यदि तिलिस्म टूटेगा तो भक्ति टूटेगी। तब 2024 की रायशुमारी असल मुद्दे पर होगी। मोदी सरकार के दस सालों का असल लेखा-जोखा परखा जाएगा और उसके नतीजों को परख जनता अगली सरकार चुनेगी। ऐसी सरकार जिसके चुनते समय कोई तिलिस्म जनता पर नहीं छाया होगा। भाजपा भी इस तिलिस्म के टूटने को महसूस रही है। वर्तमान भाजपा का बड़ा संकट एक कॉडर आधारित पार्टी से एक व्यक्ति केन्द्रीत पार्टी बनना है। भाजपा पूरी तरह मोदी मैजिक भरोसे हो चली है। जनता के साथ-साथ पूरी पार्टी इस तिलिस्म की शिकार है। अब इसके टूटने से दो बड़े खतरे उभरने की पूरी संभावना है। पहला जिन राज्यों में 2022 और 2023 में चुनाव होने हैं, वहां भाजपा का डाउनफॉल और दूसरा इस डाउनफॉल के चलते स्वयं पीएम मोदी के मोदी-शाह युग से पहले वाली भाजपा के कई कद्दावर नेता इस युग में हाशिए पर डाल दिए गए हैं। ये नेता लंबे अर्से से अपनी दूसरी पारी के इंतजार में शांत बैठे हैं। अब इन नेताओं को मौका मिलेगा। वे पार्टी भीतर आंतरिक लोकतंत्र की बात उठाएंगे। उन मुद्दों पर भी पार्टी फोरम पर चर्चा शुरू होगी जिन्हें लेकर संगठन में बैचेनी तो है लेकिन बोलने का साहस कोई कर नहीं रहा है। कहने का आशय यह कि बहुत कुछ अब भाजपा और देश भीतर बदलने के आसार हैं। एकाधिकार पर भाजपा भीतर बगावत के आसार। मोदी-शाह युग से पहले वाली भाजपा के कई कद्दावर नेता इस युग में हाशिए पर डाल दिए गए हैं। ये नेता लंबे अर्से से अपनी दूसरी पारी के इंतजार में शांत बैठे हैं। अब इन नेताओं को मौका मिलेगा। वे पार्टी भीतर आंतरिक लोकतंत्र की बात उठाएंगे। उन मुद्दों पर भी पार्टी फोरम पर चर्चा शुरू होगी जिन्हें लेकर संगठन में बेचैनी तो है लेकिन बोलने का साहस कोई कर नहीं रहा है। कहने का आशय यह कि बहुत कुछ अब भाजपा और देश भीतर बदलने के आसार हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इस तिलिस्म से पैदा हुई अंधभक्ति का भाव किस तेजी से और कब तक पूरी तरह टूटेगा। हाल- फिलहाल तक तो भाजपा और जनता, दोनों इसकी चपेट में हैं, हां कृषि कानूनों की वापसी बाद यह जकड़न थोड़ी कम अवश्य हुई है।

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