संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के एक राज्य ओरेगोन (Oregon) की एक गृहणी एजेंला स्कविन्डथ् (Angela schwindt) बच्चों पर अपने अध्ययन के लिए जानी जाती हैं। उनका एक कथन खासा प्रसिद्ध है-‘While we try to teach our children all about life, our children teach us what life is all about’ (हम अपने बच्चों को जीवन के बारे में सब कुछ सिखाने का प्रयास करते हैं, तो हमारे बच्चे हमें सिखाते हैं कि जीवन क्या है) एजेंला का यह कथन शत-प्रतिशत सही है। नाना प्रकार के अनुभवों का बोझ हमें पूर्वाग्रहों का कूड़ाघर बना डालता है और हम समझते हैं कि अपनी जीवन यात्रा के चलते हम अपने बच्चों से कहीं अधिक ज्ञानी हैं। उन्हें कमतर आंकते हैं, खुद को पथप्रदर्शक मान बैठते हैं। बच्चे लेकिन पूर्वाग्रहों के अंधकार से कोसो दूर हमसे यानी बड़ों से कहीं बेहतर और पारदर्शी सोच-समझ रखते हैं। गत् वर्ष मुझे अपनी चौदह बरस की बेटी से कुछ ऐसा सीखने को मिला जिसके चलते एजेंला के कथन पर मेरा विश्वास दृढ़ हुआ। मेरी बेटी का नाम हमने कात्यायनी जोशी रखा था। नवरात्रों में पैदा होने के चलते मेरे अग्रज ने यह नाम सुझाया जो घर में सभी को सुहाया था। बड़ी होने पर, शायद कक्षा तीन या चार में पहुंचते-पहुंचते कात्यायनी इस नाम से खासी नाराजगी जाहिर करने लगी। आठ-नौ बरस की बालिका को दो कारणों से ऐतराज था। पहला कि यह नाम कोई भी सही तरीके से उच्चरित नहीं करता और दूसरा नाम चुनने का अधिकार मां-बाप का नहीं, बल्कि स्वयं उसका होना चाहिए जिसका नाम हो। वह कहती मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं, न ही मुझे अपने नाम के साथ जाति लगानी है। उसके अनुसार जाति भेदभाव (Discrimination) का सबसे बड़ा कारण है। शुरू-शुरू में हमने उसे बहला-फुसला कर यथास्थिति बनाए रखी। कक्षा नौ में आने के साथ ही वह अड़ गई कि मेरा नाम बदलो। नाम भी उसने स्वयं चुना ज़ायरा। यह समझाने पर कि भविष्य में यदि तुम यूरोप अथवा अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए जाना चाहोगी तो मुस्लिम नाम होने के चलते समस्या आ सकती है, जा़यरा ने मेरी मां के नाम को अपने नाम के आगे जोड़ लिया है। अब बजाय कात्यायनी जोशी, उनका नाम हैं जा़यरा जया। इस नाम परिवर्तन की प्रक्रिया खासी जटिल और लंबी है। भारत सरकार के गजट में नाम परिवर्तन की बकायदा घोषणा होती है तब जाकर सरकारी/स्कूली दस्तावेजों में नाम बदला जाता है। बहरहाल जा़यरा ने मुझे अपने उस संकल्प की याद दिला दी जो कभी मैंने भी अपने नाम से जाति सूचक ‘जोशी’ को हटाने की बाबत लिया था। मेरा जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। बचपन तो धर्म और जाति के दुराग्रहों से कोसों दूर एक ऐसे कस्बेनुमा शहर में बीता जहां उन दिनों तक इन दोनों का ही प्रभाव कम था। या यूं भी कह सकते हैं कि हमारे घर में चूंकि माहौल वामपंथी था इसके चलते हम सबसे बचे रहे। बड़े होने पर लेकिन ‘ब्राह्मण’ की ‘श्रेष्ठता’ के साथ-साथ ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठ होने की बात हम तक पहुंचने लगी। हम से मेरा तात्पर्य अपने दो बड़े भाइयों से है। हमारा जन्म ‘ऊंची धोती वालों’ के यहां हुआ था। उत्तराखण्ड में ब्राह्मणों की दो कैटेगरी हैं। ‘बड़ी धोती’ और ‘छोटी धोती’ के ब्राह्मण। इन दोनों के मध्य विवाह
संबंध का रिश्ता नहीं हो सकता है। यानी ब्राह्मणों के मध्य भी भेदभाव। बाद में जब व्यवहारिक जीवन में प्रवेश किया, उत्तर प्रदेश के अति विकसित, मॉर्डन शहर में आ बसा तो जाति और धर्म का असल रूप सामने आया। यहां हरेक के साथ उसकी जाति उसके धर्म का बोझ है, ऐसा बोझ जो उसे न चाहते हुए भी ढ़ोना पड़ता है और जिसे वह ढ़ोते-ढ़ोते उसका शिकार हो जाता है। मुझे यह लिखते हुए भी क्षोभ हो रहा है कि हमारी मानवीय संवेदनाएं, हमारे मानवीय सरोकार इस जाति और धर्म के समस्त चारों खाने चित्त हो जाते हैं। ‘दि संडे पोस्ट’ ने अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों में एक विस्फोटक समाचार प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था ‘‘गौतमबुद्ध नगर की हत्यारी पुलिस’’। यह खोजी समाचार था जिसे मेरे सहयोगी आकाश नागर ने खोज निकाला था। ‘मॉर्डन शहर’ नोएडा की पुलिस ने तीन गरीब, कबाड़ बीनने वाले मुस्लिम बच्चों की नृशंस हत्या थाने के भीतर कर दी थी। मय प्रमाण जब यह समाचार प्रकाशित हुआ तो खासा हो हल्ला मचा। उत्तर प्रदेश में तब मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। समाचार नेशनल मीडिया की कृपा के चलते बड़ा मुद्दा बना तो सरकार हरकत में आई और आनन-फानन में संबंधित थाने के एसएचओ और कई पुलिस कर्मियों को निलंबित किया गया। उन दिनों मुझ पर बड़ा दबाव बनाया गया। नोएडा के एक ‘महत्वपूर्ण’ व्यक्ति ने मुझसे आग्रह किया कि संबंधित एसएचओ का पीछा छोड़ दूं। उनका तर्क था कि वह एसएचओ ब्राह्मण समाज से है और ब्राह्मणों को आपसी एकता बनाए रखनी चाहिए। कालांतर में ये ‘महत्वपूर्ण’ व्यक्ति राजनीति में खासे चमके। विधायक, सांसद यहां तक कि केंद्र सरकार में मंत्री भी बने। आज भी सांसद हैं। अपने लंबे पत्रकारिता जीवन में ऐसे अनुभव मुझे कई बार हुए हैं। सच तो यह कि जाति का बोझ मुझ पर भी असर दिखाने लगा है। राजनेताओं से चर्चा करते समय मैं भी उनको जातिगत चुनावी समीकरण समझाने लगता हूं। 2009 के आम चुनाव के समय मुझे एक प्रस्ताव आया। कहा गया कि मैं नैनीताल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ लूं। मुझे प्रस्ताव कांग्रेस के एक बड़े नेता ने दिया था। चयन का आधार पूछे जाने पर उन्होंने मेरी योग्यता (यदि मैं योग्य हूं तो) के बजाए जातिगत समीकरण समझा डाले। कहा कि मैं ब्राह्मण हूं और मेरी ससुराल क्षत्रियों में है इसलिए नैनीताल सीट मेरे लिए बेहद सुरक्षित सीट रहेगी। मैंने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया।
इत्तेफाकन 2009 में उत्तराखण्ड की पांचों सीटें इसी पार्टी के खाते में गई और मैं सांसद बनते-बनते रह गया। अन्ना आंदोलन के गर्भ से निकली आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल लेकिन ‘समझदार’ थे, हैं। एक दफा उनके साथ एक चंदा उगाही सभा में जाने का मौका मिला। केजरीवाल ने इस सभा में खुद को बनिया घोषित करने में देर नहीं लगाई। उनकी इस घोषणा पर तालियां जमकर बजी थीं। निश्चित ही लक्ष्मी कृपा भी बरसी होगी। मुझे लेकिन इसका कोई अफसोस नहीं कि मैं खुद को ‘ब्राह्मण’ घोषित करने से चूका और आज भी कागज काले करने का काम ही कर रहा हूं, तो मेरे साथी भौतिक तल पर जाति को आधार बना मुझसे कहीं आगे निकल गए हैं। मेरा दृढ़ मत है कि धर्म, राजनीति, व्यापार, जाति आदि सभी एकजुट हो उस कीचड़ को संजोने का काम कर रहे हैं जिसे संस्कृति कह पुकारा जाता है।
डॉ ़ लोहिया कहा करते थे-‘दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिन्दुस्तानी लोग। वे उदास हैं, क्योंकि वे ही सबसे ज्यादा गरीब और बीमार भी हैं। परंतु उतना ही बड़ा एक कारण यह भी है कि उनकी प्रकृति में एक विचित्र झुकाव आ गया है। खास करके उनके इधर के इतिहासकाल में, बात तो निर्लिप्तता के दर्शन की करते हैं पर व्यवहार में वे भद्दे ढंग से लिप्त रहते हैं। आत्मा के इस पतन के लिए, मुझे यकीन है, जाति और औरत के दोनों कटघरे जिम्मेदार हैं। इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनंद की समूची क्षमता को यह खत्म कर देते हैं। जो लोग यह समझते हैं कि आधुनिक अर्थतंत्र के द्वारा गरीबी मिटाने के साथ ही साथ ये कटघरे अपने आप समाप्त हो जाएंगे, बड़ी भारी भूल करते हैं। गरीबी और ये दो कटघरे एक-दूसरे के कीटाणुओं पर पनपते हैं।’ लोहिया ने यह बात साठ के दशक में कही थी। पांच ट्रिलियन इकोनॉमी का सपना देख रहे देश में उनका यह कथन सही साबित हुआ है। एक तरफ देश के विकसित होने का दावा है तो दूसरी तरफ जाति और धर्म के नाम पर चल रही विध्वंशकारी राजनीति का सच है। ऐसे में एजेंला का कथन कि, बच्चे हमें सिखाते हैं कि जीवन क्या है, से सहमत होते हुए मैं भी त्याग रहा हूं इस जाति के बोझ को। हालांकि मैं जानता हूं कि इससे कुछ होने वाला नहीं। मैं पहचाना जाऊंगा, कहलाया जाऊंगा ब्राह्मण ही। लेकिन इतना तो इससे होगा कि मैं स्वयं आत्मग्लानि के भाव से मुक्त हो जाऊंगा। तो दोस्तों अपनी पुत्री के चरणों पर चलते हुए मैंने भी अपने नाम के आगे से जातिसूचक शब्द ‘जोशी’ हटाने का निर्णय लिया है। इस उम्मीद के साथ कि शायद मेरा यह कदम मेरे मित्रों और पाठकों में से कुछ को अवश्य ऐसा ही करने की प्रेरणा देगा। यदि ऐसा न भी हुआ तो कोई गम नहीं, मैं स्वयं को, इस बोझ का त्याग कर खासा हल्का और ऊर्जान्वित महसूस कर रहा हूं। मेरे लिए इतना ही काफी है।