एक राष्ट्रीय दैनिक में आपका आलेख ‘जोशीमठ के सबक और भविष्य की दिशाएं’ पढ़ने को मिला। आपका यह आलेख उत्तराखण्ड के प्रति आपकी संवेदनशीलता और आपके असीम प्रेम का परिचय देता है। आपने स्वीकारा है कि ‘हिमालय पर्वत शृंखलाएं विश्व की कमोबेश नवोदित पर्वत शृंखलाएं हैं व भौगोलिक रूप से संवेदनशील पर्वत समूह हैं।’ आपने यह भी स्वीकारा है कि ‘दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों के भू-भागों, ढलानों में बसे हुए गांवों, कस्बों और नगरों आदि की धारणीय क्षमता सीमित होती है। समय के साथ उनके फैलाव और बढ़ाव के चलते अगर हम उनके व्यवस्थापन में धारणीय क्षमता से संबंधित तत्यों की जब-जब अनदेखी कर बैठते हैं, तब-तब हमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।’ आपके ये विचार नितांत सत्य और स्वागत योग्य हैं। आपने लिखा कि ‘मेरा यह मत और दृढ़ हुआ है कि हमारे कस्बों, नगरों की धारणीय क्षमता का समग्र वैज्ञानिक आकलन होना आवश्यक है और हम उसके लिए त्वरित कदम उठा रहे हैं।’ आपका कथन इस बात की पुष्टि करता है कि राज्य गठन के बाद की सभी सरकारों ने इन महत्वपूर्ण तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए अनियोजित विकास की वह राह पकड़ी जिसका नतीजा विनाश के रूप में आज हमारे सामने है।
मुख्यमंत्री जी, आपने पहाड़ों की धारणीय क्षमता के वैज्ञानिक आकलन का मुद्दा उठाया है। ऐसे में मेरे मन में पहला विचार यह जन्मा है कि क्या आप कथित विकास के नाम पर राज्य में चल रही विभिन्न विनाशकारी परियोजनाओं का पुनआर्कलन कराएंगे? करा पाऐंगे? बीते कुछ सालों से राज्य में स्थित हिंदू धर्म के चार महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में सुगम और सुचारू आवागमन के लिए केंद्र सरकार द्वारा पोषित ‘ऑल वेदर रोड’ का कार्य चल रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस परियोजना के प्रबल समर्थक और प्रर्वतक हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ब्लास्टिंग के जरिए काट कर चौड़ी की जा रही सड़कों से हमारे पहाड़ कमजोर हो रहे हैं, दरक रहे हैं। जिसे ‘ऑल वेदर रोड’ कहा जा रहा है वह असल में ‘ऑल टाइम एक्सिडेंट रोड’ बन चुकी है। शहरों के हाइवे नुमा इन सड़कों में अधिकांश समय पहाड़ के दरकने चलते यातायात सुगम के बजाए दुर्गम और खतरनाक हो चला है। बीते दिनों मैं खटीमा मार्ग से पिथौरागढ़ कई दफे गया। यह मार्ग ‘ऑल वेदर रोड’ प्रोजेक्ट के तहत चौड़ा किया गया है। मैं स्वयं दो बार इस मार्ग में भू-स्खलन के चलते फंसा। हल्की-सी बारिश आते ही मेरे सामने ही पहाड़ से बड़े पत्थर गिरने शुरू हुए और देखते-देखते ‘ऑल वेदर रोड’ गायब हो गई। मुझे कई किलोमीटर वापस जा चंपावत में रात्रि विश्राम करना पड़ा और अगले दिन पुराने सड़क मार्ग से वापसी करनी पड़ी थी। पर्यावरणविद् लगातार इस प्रोजक्ट से होने वाले नुकसानों की बाबत चेतावनी देते आ रहे हैं लेकिन उनकी बातों पर ध्यान देने की जरूरत किसी ने भी नहीं समझी-महसूसी। ठीक इसी प्रकार कर्णप्रयाग रेल परियोजना का पुनर्मूल्यांकन कराया जाना जरूरी है। ब्रिटिश शासकों को भारत वर्ष में रेलवे नेटवर्क बनाने का श्रेय जाता है। उनके समय में इस क्षेत्र को रेल मार्ग से जोड़ने की मांग पहली बार उठी थी लेकिन मध्य हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक संरचना को हमसे बेहतर समझने वाली ब्रितानी हुकूमत ने इस मांग को नहीं स्वीकारा था। वर्तमान में तेजी से बन रही इस परियोजना के अंतर्गत 125 किलोमीटर सिंगल ट्रेक रेल बिछाई जा रही है। परियोजना की कुल लागत 16,200 करोड़ की है। 35 पुल और 17 सुरंगों का निर्माण इस परियोजना के तहत किया जाना है। बताया जा रहा है कि इसमें से एक सुरंग 15 ़1 किलोमीटर लंबी है जो तैयार हो जाने के बाद देश की सबसे बड़ी सुरंग होगी। जाहिर है इन सुरंगों को बनाने के लिए पहाड़ों को काटा जाएगा। उन पहाड़ों को जिन्हें आप स्वयं स्वीकारते हैं कि नवोदित और भौगोलिक रूप से संवेदनशील हैं। 17 सुरंगें कितना नुकसान इन नवोदित पर्वतों को पहुचाएंगी और इन सुरंगों के चलते कितने कस्बों-नगरों का अस्तित्व जोशीमठ की तरह संकट में आ जाएगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद् हेमंत ध्यानी का मानना है कि पहाड़ी क्षेत्र में सुरंग बनाए जाने का एक बड़ा दुष्प्रभाव ऐसे इलाके के प्राकृतिक जल स्रोतों का सूख जाना होता है। कर्णप्रयाग रेल परियोजना के चलते चमोली जिले के कई इलाकों में पानी का संकट आ खड़ा हुआ है। जोशीमठ में आई आपदा के पीछे भी इस परियोजना के लिए बनाई जा रही सुरंगों को जिम्मेवार बताया जा रहा है। निश्चित ही यह एक अति महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसके पूरा होने बाद इस क्षेत्र की आर्थिकी में बड़ा सुधार आने की पूरी संभावना है। प्रश्न मुख्यमंत्री जी लेकिन यह उठता है कि इस प्रकार का विकास भला किसके उत्थान, किसकी भलाई के लिए क्या जा रहा है? ऐसी परियोजनाओं से पानी का संकट पैदा हो रहा है, पहाड़ और शहर दरकने लगे हैं। वन्य जीवों के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। जब पहाड़ नहीं बचेंगे, शहर बर्बाद हो जाएंगे, पानी समाप्त हो जाएगा तो इस कथित विकास का लाभ लेने वाला कौन बचेगा? डॉ.ध्यानी कहते हैं ‘Such activities in the name of development not only kill the water sources used by humans but also affect wild animals, which then stray in to human habitats in search of water. Such projects also seriously hamper the capacity of the hills to absorb and vetain water. As a result, the water level in rivers no longer remain steady throughout the year. All these factors reduce the moisture content in suface soil, which further increases the risk of forest fires’Aयानी इन कथित विकास परियोजनाओं के चलते न केवल पहाड़ों की धारणीय क्षमता कमजोर होती है बल्कि इनके चलते वनाग्नि का प्रकोप भी प्रचंड रूप में सामने आता है। सारी विपदाएं कहीं न कहीं इन परियोजाओं से जुड़ी हैं, ऐसा वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का मानना है। ऐसे में क्या मुख्यमंत्री जी आप इन सभी परियोजनाओं की बाबत केंद्र से वार्ता कर इनका पुनर्परीक्षण करवाएंगे? यदि आप ऐसा कर पाएं तो निश्चित ही आपका नाम इतिहास के पन्नों में एक ऐसे राजनेता के रूप में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज होगा जिसने उत्तराखण्ड की पीड़ा को समझ उसका उपचार करने का सही मार्ग चुना।
आपने अपने आलेख में जोशीमठ से भविष्य के लिए सीख लिए जाने की बात कही है। पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री ने पूरी ईमानदारी के साथ व्यवस्था की कमियों को स्वीकारा है। आप इसके लिए साधुवाद के पात्र हैं। आपने भविष्य के लिए वैज्ञानिक विमर्श को आधार बना विकास का नया मॉडल तैयार करने का संकल्प लिया है। आप राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री हैं। आपके पास ऊर्जा भी है, समय भी है और संकल्प भी। यदि आप अपने केंद्रीय नेतृत्व को उत्तराखण्ड की भौगोलिक संरचना समझा पाने में सफल रहते हैं और यदि केंद्र सरकार अपनी परियोजनाओं का पुनर्मूल्यांकन कराने के लिए सहमत होती है तो बहुत संभव है कि हमारे पहाड़ विकास की कथित आंधी से पैदा होने वाले विनाश से बच जाएं।
आपने अपने आलेख में स्वीकारा है कि पवर्तीय क्षेत्रों के भू-भागों, ढलानों में बसे हुए गांवों, कस्बों और नगरों की धारणीय क्षमता सीमित होती है जिसकी अनदेखी के चलते प्रतिकूल स्थितियों का सामना हमें करना पड़ रहा है। मुख्यमंत्री जी इस अनदेखी के पीछे सबसे बड़ा कारण है राज्य की शासन व्यवस्था में गहरी पैठ बना चुका भ्रष्टाचार। हालात इतने खराब हैं कि राज्य के नौकरशाह सब कुछ देखते-समझते हुए भी अवैध निर्माण कार्यों की पूरी तरह अनदेखी कर रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण हल्द्वानी का है जहां के गांव देवल तल्ला में फर्जी तरीके से पहले 120 बीघा सरकारी जमीन का पट्टा हासिल किया गया फिर उस जमीन के एक हिस्से में प्लॉटिंग कर उसे बेचा गया। कृषि भूमि को आवासीय बनाए जाने की कोई इजाजत इस प्रकरण में नहीं ली गई है। सरकारी तंत्र में इस कदर उदासीनता और भ्रष्टाचार पसर चुकी है कि ऐसे प्रकरणों की रोकथाम के लिए जिम्मेवार हल्द्वानी-काठगोदाम विकास प्राधिकरण के अधिकारियों ने पूरी तरह से अवैध इस निर्माण कार्य की तरफ से आंखें मूंद रखी हैं। राजस्व विभाग के अधिकारी भी इस कृषि भूमि को खुर्द-बुर्द किए जाने के ‘खेला’ में शामिल हैं। और यह तो एक उदाहरण मात्र है। आप स्वयं स्वीकारते हैं कि ऐसी गतिविधियां पूरे राज्य में बेधड़क की जा रही हैं। यदि समय रहते इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया तो वह समय दूर नहीं जब जोशीमठ जैसा हश्र राज्य के अन्य कस्बों-नगरों का भी हो जाएगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप इस विषयक भी गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे होंगे। अब सारा दारोमदार आपके कंधों पर है। आप सफल हों और अपना संकल्प पूरा कर पाएं इस आशा-अपेक्षा के साथ आपको नववर्ष की असीम-अशेष शुभकामनाएं।