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Editorial

लाज़िम है कि हम देखेंगे!

लाज़िम है कि हम देखेंगे!

भाजपा के लिए वर्ष 2019 विशेष उपलब्धि लिए आया जरूर, लेकिन जाते-जाते तगड़ा झटका भी दे गया। 2017 के अंत में देश के 71 प्रतिशत भू-भाग पर राज करने वाली भाजपा 2019 के अंतिम महीने में मात्र 40 प्रतिशत तक सिमटकर रह गई। एनआरसी, एनपीआर और सीएए पर चल रहे भारी बवाल से भाजपा नेतृत्व अपने घोषित एजेंडे यानी हिंदुत्व को लेकर बैकफुट में आता नजर आने लगा है। ‘आजतक’ न्यूज चैनल के मंच से केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का यह कहना है कि भाजपा भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में नहीं देखती, इस बात की पुष्टि करता है कि झारखंड में मिली करारी पराजय के बाद अब पार्टी भीतर उन मुद्दों पर पुनः चिंतन-मंथन शुरू हो चुका है जो पूरे देशभर में धरने-प्रदर्शन का कारण बन चुके हैं।

भाजपा अध्यक्ष का बयान और प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर दिया गया वक्तव्य इस मायने में खासा महत्वपूर्ण है। संकट लेकिन भाजपा के समक्ष यह 2020 में बना रहेगा कि यदि धर्म के आधार पर वोट बैंक साधने के मार्ग से वह पीछे हटती है तो जनसामान्य के जीवन को स्त-व्यस्त-त्रस्त करने वाले मुद्दे सिर उठा खड़े हो जाएंगे। पिछले 6 सालों से बेरोजगारी, चौपट होते उद्योग-धंधे, लगातार गिर रही आर्थिक स्थिति, महंगाई और छिनती जा रही नौकरियां जैसे अहम मुद्दों को भाजपा राष्ट्रवाद और उग्र हिंदुत्व के सहारे दबाने का प्रयास करती रही है।

वर्ष 2014 में अच्छे दिनों की जिस आस ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाया वह आस 2019 में धूमिल हो चली है। अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार पाए अभिजीत बनर्जी कहते हैं कि पिछले पांच सालों में गरीब और गरीब हो चुका है। भले ही मोदी सरकार की वित्तमंत्री कुछ भी दावे करें, स्वयं पीएम 2024 में देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन बनाने का स्वप्न दिखाएं, आज का सच यही है कि देश में हाहाकार है। यह हाहाकार थामे नहीं थम रहा। नोटबंदी का फैसला हर दृष्टि से देश के लिए हानिकारक साबित हुआ है और जीएसटी के चलते व्यापारियों की दुश्चिन्ता में इजाफा हुआ है। बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं के पास ऋण देने के लिए धन नहीं है, साथ ही सीबीआई, सीवीसी का डर उन्हें नए ऋण देने से रोक रहा है। निवेशक भारत में निवेश करने से घबरा रहे हैं।

प्रधानमंत्री के लच्छेदार भाषण अब अपना प्रभाव छोड़ते नजर नहीं आते। जहां-जहां प्रधानमंत्री ने पिछले कुछ महीनों में चुनावी रैलियां की, वहां भले ही प्रायोजित भीड़ ने उन्हें गद्गद् किया हो, लेकिन रहा असर सुखान्तो सुहाय ही। महाराष्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा सभी ऐसे स्थानों पर भाजपा को करारी हार का मिलना मोदी के तिलिस्म के दरकने की तरफ इशारा करता है। 2018 के पूर्वार्ध में तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा का सत्ता से बाहर होने के पीछे एक बड़ा फैक्टर इन्हीं मुद्दों का रहा। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों में इन तीन राज्यों में मिली जीत ने जान फूंकने का काम किया।

2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एनडीए के कई घटक दलों का गठबंधन से बाहर होना विपक्षी खेमे में आए उत्साह का परिणाम था। लेकिन पुलवामा में 14 फरवरी की आतंकी घटना ने देश का मिजाज और भाजपा का भाग्य बदल डाला। भारतीय वायुसेना का पाक सीमा में घुसकर कार्यवाही करना, वायुसेना के पायलट विंग कमांडर अभिनंदन को पाक सेना द्वारा पकड़ लेना, उनकी रिहाई आदि ने छप्पन इंच का सीना होने का अहसास हर भारतीय को करा दिया। नतीजा तमाम राजनीतिक आकलनों को धता बताते हुए नरेंद्र मोदी का करिश्मा भाजपा की अभूतपूर्व जीत का कारण बन गया। इसके बाद मोदी फुल एक्शन मोड में आ गए। तीन तलाक, धारा 370 और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त होना स्पष्ट रूप से भाजपा के हिंदू राष्ट्र का एजेंडा आगे बढ़ने की दिशा में उठे कदम हैं।

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर केंद्र सरकार का निर्णय पासा पलटने वाला साबित हो रहा है। ऐसे में अमित शाह का कथन कि भाजपा भारत को हिंदू राष्ट्र की तरह नहीं देखती है, वर्तमान परिस्थितियों में मजबूरीवश दिया गया बयान प्रतीत होता है। 2020 में भाजपा के पास वापस अपने एजेंडे पर लौटने के सिवा कोई मार्ग है नहीं। अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट में सुधार के लक्षण नहीं हैं। ऐसे में जनसामान्य के बुरी तरह प्रभावित-प्रताड़ित करने वाले मुद्दे को हाशिए में डालने के प्रयास भाजपा की मजबूरी हैं। अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण एक ऐसा इमोशनल तीर भाजपा के तरकश में है जिसका इस्तेमाल इस वर्ष किया जाएगा।

भाजपा अध्यक्ष कह चुके हैं कि चार माह में भव्य राम मंदिर बनकर तैयार हो जाएगा। संकट लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश अनुसार बनाए जाने वाले राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट का है जिसको लेकर केंद्र सरकार संकट में फंस चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन माह के भीतर इस ट्रस्ट के निर्माण का अदेश दिया है। आधे से अधिक समय निकल चुका है, लेकिन ट्रस्ट के पदाधिकारियों का नाम सरकार तय नहीं कर पा रही है। असल संकट इस ट्रस्ट के अध्यक्ष पद को लेकर है जिसके दावेदार अनगिनत हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इस ट्रस्ट को जिम्मेदारी दी गई है कि मंदिर निर्माण उसकी देखरेख में होगा। साथ ही कोर्ट ने रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े निर्मोही अखाड़े को भी ट्रस्ट में जगह दे दी है।

भाजपा और आरएसएस पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि वे सीधे तौर पर ट्रस्ट का हिस्सा नहीं बनेंगे। केंद्र सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से राज्यपाल और मुख्यमंत्री बतौर सलाहकार ट्रस्ट के मानद सदस्य होंगे। बताया जा रहा है कि ट्रस्ट के पदाधिकारियों, अध्यक्ष को लेकर संघ और भाजपा के भीतर गंभीर चिंतन जारी है। जाहिर है चौतरफा दबाव का सामना कर रही केंद्र सरकार और भाजपा मंदिर निर्माण का कार्य तेजी से पूरा करने का प्रयास करेगी ताकि इन मुद्दों से उसे निजात मिल सके। प्रश्न यह कि मंदिर निर्माण के बाद क्या? यदि 2020 के अंत तक केंद्र सरकार इन महत्वपूर्ण मुद्दों का उत्तर तलाश पाने की दिशा में कुछ पॉजीटिव कदम उठा पाती है तो इसका सीधा असर बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन पर पड़ेगा, लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है तो भाजपा के हाथ से बिहार निकलने का खतरा मुंह बाए खड़ा है।

इस बीच एक और चिंता में डालने वाला समाचार सामने आया है। देश के अग्रणी शिक्षण संस्थानों की फिजा में भी हिंदू-मुस्लिम का राग जहर फैलाने लगा है। कानपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने प्रख्यात शायर फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म ‘हम देखेंगे’ को हिंदू विरोधी मानते हुए एक जांच बैठा दी है जो यह तय करेगी कि छात्रों द्वारा गायी जा रही यह नज्म हिंदू विरोधी तो नहीं। 17 दिसंबर को जब आईआईटी कानपुर के छात्रों ने कैंपस में प्रदर्शन किया तो वे गा रहे थे-‘हम देखेंगे/लाजिम है कि हम देखेंगे/वो दिन कयामत का जिसका वादा है/जो लोह-ए- अजल (विधि के विधान) में लिखा है/जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गंका (पहाड़) रूई की तरह उड़ जाएंगे/हम महकूमों (सत्ता) के पांव तले/ये धरती धड़-धड़ धड़केगी/ और अहल-ए-हाकिम (शासक) के सर ऊपर/जब बिजली कड़-कड़ कड़ेगी/जब ऊर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे/हम अहल-ए-सफा (ईमानदार लोग)/मनसद पर बैठाए जाएंगे/सब ताज उछाले जाएंगे/सब तख्त गिराए जाएंगे/बस नाम रहेगा अल्लाह का/जो गायब भी है हाजिर भी/जो मंजर भी है/नाजिर भी/ उठेगा अन-अल-हक का नारा/जो मैं भी हूं और तुम भी हो/और राज करेगी खल्क-ए -खुदा (जनता)/जो मैं भी हूं और तुम भी हो।’

फैज ने यह नज्म पाकिस्तान के जालिम तानाशाह जनरल जियाउल हक के खिलाफ 1979 में लिखी थी। नज्म के बोल किसी भी प्रकार की तानाशाही के खिलाफ लिखे गए हैं। इसमें धर्म कहां से आया यह केवल और केवल आईआईटी का प्रबंधन बता सकता है। मुझे आशंका है कि इन्हीं सबके चलते आने वाले समय में धर्म को आधार बना समाज के विभाजन का काम जोरों से परवान चढ़ेगा। फैज की इस नज्म को उत्तराखण्ड में चले शराब विरोधी आंदोलन ‘नशा नहीं रोजगार दो’ के दौरान आंदोलनकारी गाया करते थे। तब कभी यह प्रश्न नहीं उठा कि यह हिंदू विरोधी है। दरअसल, तब हिंदू-मुसलमान की बात भी हम लोगों के जेहन में नहीं थी।

पिछले तीन दशक, विशेषकर राम मंदिर आंदोलन के दौरान धर्म के नाम पर विभाजन हमारे दिमाग में स्लो प्वाइजन की भांति ठूंसा गया जो आज एक कयामत के रूप में सामने है। एक निर्दयी तानाशाह के खिलाफ लिखी गई नज्म को हिंदू विरोधी बताया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। पाकिस्तान के ही एक अन्य मशहूर शायर हबीब जालिब की नज्म ‘दस्तूर’ भी इन दिनों हमारे यहां गायी जा रही है। हबीब जालिब ने यह नज्म 1962 में तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खान के खिलाफ लिखी थी। इसके बोल हैं-‘तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकूं/अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फसूं (जोर)/चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूं/तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर/मैं नहीं मानता/मैं नहीं मानता।’ तो कुल मिलाकर यह वर्ष सत्ता के साथ आमजन के संघर्ष का वर्ष हो सकता है। ऐसे समय में जरूरत है, हम सबका कर्तव्य है कि हम अपने संवैधानिक दायरे में रहकर संघर्ष करें और किन्हीं हालत में भी देश की फिज़ा को बिगड़ने न दें अन्यथा उनकी जीत हो जाएगी जो हर कीमत पर ऐसा ही चाहते हैं।

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