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Editorial

जानिए क्या है किसानों का दर्द /भाग तीन

केंद्र सरकार और देश अन्नदाता के बीच जिन तीन संशोधित कृषि कानूनों को लेकर तकरार चल रही है, उनमें सबसे पहले और सबसे ज्यादा विवाद  MSP (Minimum Support Price) यानी न्यून्तम मूल्य दर को लेकर चल रहा है। तो चलिए, आज इस पर कुछ बातें करते हैं। यह कानून है The Farmers Empowerment And Protection Agreement On Price Assurance And Farm Services Act 2020 गौर करें कानून के नाम पर किसान (सशाक्तिकरण और सरक्षंण) एवं मूल्य आश्वासन कानून 2020। नाम पर मत जाइये। नाम से तो लगता है यह किसानों की मजबूती और उनकी संपन्नता के लिए बनाया गया है। असल में यह निजी क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों को संरक्षण देने वाला कानून है। कैसे? ऐसे कि इस कानून में कहीं पर भी एमएसपी को कानूनी जामा नहीं पहनाया गया है।
क्या यह एमएसपी?
यह अपना भारत वर्ष, हिंदुस्तान, इंडिया कृषि प्रधान देश है। सबसे ज्यादा रोजगार कृषि से हैं। यही कारण था कि देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया था ‘जय-जवान जय-किसान’ का। 1962 में चीन से पराजित होने के बाद हमारी सेना का मनोबल टूट गया था। और अकाल चलते खेती बबार्द थी। शास्त्री ने दोनों किसान और जवान के मनोबल को बढ़ाने के लिये नारागढ़ा। शास्त्री ने तत्कालीन कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम से सलाह मांगी। अपने कृषि मंत्री के साथ बात-चीत के बाद उन्होंने कृषि में सुधारों की जरूरत को तय करने के लिए अपने सचिव एल-के-झा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। 24 सितम्बर-1964 को इस कमेटी ने अपनी रिर्पाेट सरकार को सौंपी। इस रिर्पोट के आधार पर 13 अक्टूबर 1964 के दिन एमएसपी प्रणाली को केंद्र सरकार ने स्वीकार लिया। 1966-67 में पहली बार गेहूं की खरीद एमपीएस  के आधार पर की गई। इस योजना को लागू करने के पीछे सरकार का किसान की  लागत का कम से कम इतना मूल्य देना था जिससे उसकी आजीविका चलती है। यदि कभी अन्न ज्यादा मात्र में पैदा होने के चलते उसका मूल्य बाजार में कम हो जाएं तो भी किसान को घाटा न हो। इसके साथ ही Essential commodities act के जरिए सरकार ने सरकारी एजेंसियों  जैसे FCI And NAFED (National Agricultural Cooperative Marketing Federation Of India)  को किसानों से अन्न खरीदने और उसका भंडारण करने का काम दिया। 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की फसल पर यह एमएसपी लागू हुई। इसका पाजिटिव और निगेटिव, असर देखने को मिला। किसानों ने गेहूं की फसल बोनी शुरू कर दी, अन्य अनाज की पैदावार कम होने लगी। तब सरकार ने अन्य कुछ फसलों पर भी एमएसपी की घोषणा कर डाली। वर्तमान में 23फैसलों में एमएसपी लागू है। यह हैः
अनाज: धान, गेहूं, गन्ना, ज्वार, बाजरा, जौ, जई और रागी
दाल: चना, मूंग, उड़द, अरहर और मसूर
तेल: मूंगफली, सरसो, सोयाबीन, शीशम, सूरजमुखी, कुसुम और नाइजर
अन्य: कपास, जूट, गन्ना और गकी।
कैसे तय होती है एमएसपी?
यह काम केंद्र सरकार की ऐजेन्सी ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ (Commission For Agricultural Costs And Prices) करता है। 1965 में ऐजेन्सी को बनाया गया था। यह ऐजेन्सी हर वर्ष खेती के निम्न आकड़े इक्ट्ठा करती है। उनका अध्ययन कर एमएसपी तय करती है।
1. देश के अलग-अलग इलाकों में किसी खास फसल की प्रति हेक्टेयर लागत।
2. खेती के दौरान होने वाला खर्च और आने वाले अगले एक साल में होने वाला बदलाव।
3. देश के अलग-अलग क्षेत्र में प्रति क्विंटल अनाज को उगाने की लागत।
4. प्रति क्विंटल अनाज उगाने के दौरान होने वाला खर्च और आने वाले अगले एक साल में होने वाला बदलाव।
5. अनाज की प्रति क्विंटल बाजार में कीमत और आगे एक साल में होने वाला औसत बदलाव।
6. किसान जो अनाज बेचता है उसकी कीमत और जो चीजें खरीदता है उसकी कीमत।
7. सरकारी और सार्वजनिक एजेंसियों जैसे एफसीआई और नफेड की स्टोरेज क्षमता।
8. एक परिवार पर खपत होने वाला अनाज और एक व्यक्ति पर खपत होने वाले अनाज की मात्र।
9. अंतरराष्ट्रीय बाजार में उस अनाज की कीमत, आने वाले साल में कीमत में होने वाला बदलाव।
10. विश्व के बाजार में उस अनाज की मांग और उसकी उपलब्धता।
11. अनाज के भंडारण, उसको एक जगह से दूसरी जगह पर लाने-ले जाने का खर्च, लगने वाला टैक्स, बाजार की मंडियों का टैक्स और अन्य फायदा।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग देश के अलग-अलग हिस्सों से इन आंकड़ों को इकटठा करता है। इन आंकड़ों को इकट्ठा करने के लिए सीपीएसी हर राज्य की सरकारों से मदद लेता है- इसके अलावा अलग-अलग राज्यों के कृषि वैज्ञानिक, किसान नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की जाती है। इसके अलावा केंद्रीय मंत्रालयों, केंद्रीय  मंत्रालयों के विभागों, एफसीआई, नफेड- कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, जूट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और व्यापारियों के संगठनों से बातचीत कर आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं। इसके बाद केंद्र सरकार को यह ऐजेन्सी अपना प्रस्ताव भेजती है जिस पर राज्य सरकारों से बातचीत कर केंद्र सरकार एमएसपी घोषित करती हैै।
फिर क्यों किसान आजतक हैरान- परेशान है, बिचौलियों का क्या है रोल?
जनाब बिचौलिए हमारे मुल्क के, समाज के डीएनए में जबरदस्त तरीके से मौजूद हैं। सरकार 23 फसलों पर एमसएपी हर बरस लाती है। लेकिन हर फसल खरीदती नहीं हैं। सरकार केवल गेहूं और चावल जिसे वह सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों के जरिए बेचती है, इन दो फसलों को ही जमकर खरीदती है। इसलिए अन्य फसलों की खरीद को लेकर राजनीति जरूर होती है, खरीद नहीं।
सरकार देश भर में अपने केंद्रों के द्वारा एमएसपी पर अनाज खरीदने का काम करती है लेकिन मात्र 6 प्रतिशत किसान है इसका लाभ ले पाते हैं। ऐसा इसलिए कि कृषि क्षेत्र में भी मूलभूत सुधार जो जमींनदारी उन्मूलन कानून लागू होने के बात हो जाने चाहिए थे, वो हुए नहीं। नतीजा 94 प्रतिशत ऐसे लोग खेती करते हैं जो बंटाई में होती हैं। यानी जमीन बड़े जमीनदारों की, मेहनत बगैर जमीन वाले की। सरकारी खरीद के लिए किसान को बही खाता (खसरा-खतौनी) इन केंद्रों में दिखाना पड़ता है। जमीन के कागजात चूंकि उसके नाम होते नहीं इसलिए ‘बिचौलिए भैया’ मदद के लिए आते हैं जो दूसरे नामों पर सरकार को अनाज एमपीएस पर बेचते हैं, अपना मोटा कमीशन रखते है, खेतीहर किसान को बहुत कम मूल्य देते हैं।
हर राज्य में एक ही एमएसपी क्यों है गलत 
ऐसा इसलिए क्योंकि हर राज्य में लागत अलग-अलग आती है। उदाहरण के लिए बिहार में गेहूं या धान कम लागत में पैदा होता है क्योंकि पानी की कमी यहां नहीं है। दूसरी तरह यूपी में किसान को पानी के लिए पंप चाहिए, पंप चलाने के लिए डीजल चाहिए, बिजली चाहिए इसलिए लागत बढ़ जाती है। बेचते वक्त लेकिन एक ही दर लागू होने के चलते अधिक लागत लगाने वाला किसान घाटे में रह जाता है। इतना ही नहीं सरकारी सेंटरों में भारी भष्ट्राचार है। अनाज की क्वालिटी के नाम पर किसानों से वसूली की जाती है। उनके अनाज को कम तोला जाता है। तत्काल पैसा नहीं मिलता है इसलिए किसान सस्ते में ही सही बिचौलिए को माल नगद में बेचने पर मजबूर हो जाता है।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें 
18 नवम्बर 2004 को एक कमेटी कृषि क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता देखते हुई बनाई गई थी। इसके अध्यक्ष थे प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन। इस कमेटी को किसानों की परेशानी समझने और उसको दूर करने के उपाय केंद्र सरकार को सौपने का काम दिया गया। दो बरस महेनत करने के बाद इस कमेटी ने अपनी रिर्पोट केंद्र को सौंपी। 2020 तक यानी 14 बरस यानी राम भगवान का वनवास काम पूरा होने बाद भी इस कमेटी की सिफारिशों को माना-लागू नहीं किया गया है। उल्टे अब नए कानून लाकर किसान को बाजार की क्रूरता झेलने के लिए झोंक दिया गया है।
करीब दो साल बाद 2006 में कमेटी ने अपनी सिफारिशें दे दीं। जो अब तक लागू नहीं कि जा सकी। तब की कांग्रेस सरकार और अब बीजेपी सरकार ने इन सिफारिशों को सीधे तौर पर लागू नहीं किया। एक किसान नीति बनाई गई और कहा गया कि सरकार की नई योजनाएं और फैसले कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही लिए जा रहे हैं। स्वामीनाथन कमेटी की सबसे बड़ी सिफारिश ये थी कि सरकार न्यूनतम मूल्य को खत्म करें और किसनों को उनकी किसी भी फसल की लागत का डेढ़ गुना मुल्या दे। इसके अलावा समिति की और भी सिफारिशें थीं-
1. लैंड रिफार्म के लिए: किसानों को कितनी जमीन मिले, ये हमारे देश में बड़ा मसला है। खेती और बाग की जमीन को कॉरपोरेट सेक्टर या खेती के अलावा किसी भी मकसद के लिए न दिया जाए। ‘नेशनल लैंड यूज एडवाइजरी सर्विस’ बनाया जाए। जो मौसम और बिजनेस जैसे फैक्टर्स को ध्यान में रखते हुए फैसला ले सके कि जमीन को किस उपयोग में लाया जाएगा।
नियमों-कानूनों में सुधार किया जाए, ताकि किसानों को लगातार और जरूरत के मुताबिक पानी मिल सके। रेनवाटर हेविस्ट के जरिए पानी की सप्लाई अनिवार्य कर देनी चाहिए। कुओं को रीचार्ज करने का प्रोग्राम शुरू करना हो।
प्रोक्डशन के लिए: अन्य देशों के मुकाबले भारतीय किसान उपलब्ध जमीन के अनुपात में प्रोडक्शन नहीं कर पाते। इसलिए पानी निकालने, वाटर रिसर्च डिवेलपमेंट और रोड कनेक्टिविटी के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना होगा। मिट्टी के पोषण से जुड़ी कमियों को सुधारने के लिए मिट्टी की टेस्टि वाली लैबों को बड़ा नेटवर्क तैयार करना होगा।
क्रेडिट और बीमा के लिए: सरकार को क्रेडिट सिस्टम उन किसानों तक पहुंचना होगा, जो वाकई गरीब और जरूरतमंद है। सरकार की मदद से किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर सीधे 4 प्रतिशत कम की जाए। जब तक किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में न आ जाए उससे कर्ज न वसूला जाए। किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए एग्रीकल्चर रिलीफ फंड बनाया जाए। किसानों और फसल का साथ में बीमा किया जाए।
फूड सिक्यॉरिटी के लिए: यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्शून सिस्टम बनाया जाए। जिसके लिए जीडीपी के 1 प्रतिशत हिस्से की जरूरत होगी। पंचायत जैसी लोकल बॉडीज की मदद से सरकार की उन योजनाओं की री-ऑर्गनाइज किया जाए, जो कुपोषण दूर करने के लिए चलाई गई महिला स्वयंसेवी ग्रुप्स की मदद से ‘सामुदायिक खाना और पानी बैंक’ स्थापित करने होंगे, जिनसे ज्यादा से ज्याद लोगों का खाना मिल सके।
किसानों की खुदकुशी रोकने के लिए: उन्हें कम कीमत पर बीमा और चिकित्सा सुविधा दिलवाई जाएं नेशनल रुरल हेल्थ मिशन को उन हिस्सों तक पहुचना होगा, जहां किसान ज्यादा खुदकुशी करते हैं। सरकार किसानों के लिए जो काम करती है उन्हें किसनों तक पहुंचाने के लिए राज्य स्तर पर कमीयान बनाया जाए, जिसमें किसान ही सर्वेसर्वा हो। हर फसल का बीमा हो। किसानों को हर जगह सस्ती दरों पर बीज और खाद उपलब्ध कराई जाए।
कुल मिलाकर केंद्र सरकार के आश्वासन मात्र कि एमएसपी जारी रहेगी, कियसप मानने को तैयार नहीं है तो इसका एक मतलब साफ है। देश का अन्नदाता का अपने प्रधानमंत्री, उसके मंत्रियों आदि से भरोसा उठ चुका है। उसे लगता है कि यदि सरकार की बात मान वह पीछे हट गया तो आने वाले समय में निजी कारोबारियों के आगे वह बंधक बन जाएगा और किसी भी प्रकार की कानूनी मदद से वंचित हो जाएगा। इसलिए किसान अड़ गया है कि सरकार इन तीनों कानूनों को रद्द करे।

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