अकाली दल को कमजोर करने के लिए भिंडरावाला को आगे बढ़ाने वाले ज्ञानी जैल सिंह लाला जगतनारायण की हत्या, भिंडरावाला के समर्थकों द्वारा निर्दोष हिंदुओं का कत्लेआम और इंडियन एयर लाइंस के विमान अपहरण सरीखी घटनाओं के बावजूद भिंडरावाला की पैरवी करते रहे। जैल सिंह ने संसद में बयान दे डाला कि लाला जगतनारायण हत्याकाण्ड से भिंडरावाला का कोई सम्बन्ध नहीं है। उनके इस बयान के बाद मात्र 25 दिनों बाद ही 15 अक्टूबर, 1981 को इस आतंकी को जेल से रिहाई मिल गई, जिसने सिख समुदाय के भीतर उसका कद बढाने का काम किया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सचिव पीसी एलेक्जेंडर के अनुसार- ‘जब राज्यभर में हिंसा और आतंकी गतिविधियां जंगल में आग की तरह फैल रही थीं, पंजाब के मुख्यमन्त्री दरबारा सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह के बीच व्यक्तिगत दुश्मनी बेरोक-टोक जारी थी, जिसके चलते स्थिति को प्रभावी ढंग से संभालने में गम्भीर कमी आई। दरबारा सिंह ने जैल सिंह के खिलाफ (गोपनीय रूप से) प्रधानमंत्री के समक्ष आरोप तक लगा डाला कि उन्होंने भिंडरावाला को चंदोकलां से भागने में मदद की थी। दूसरी तरफ जैल सिंह ने दरबारा सिंह पर पूरे मामले को सही तरीके से न संभाल पाने का आरोप लगाया था।’
हालात को काबू से बाहर जाते देख इंदिरा गांधी ने अकाली नेताओं के संग सीधे बातचीत का फैसला लिया। लाला जगतनारायण की हत्या के बाद अकाली नेताओं के संग केंद्र सरकार की कई बार बैठकें आयोजित की गईं। शुरुआती चरण में अकाली नेताओं ने केंद्र सरकार के समक्ष 45 मांगें रखी थीं जो बातचीत के कई चरणों के बाद घटकर चंद मांगों तक सिमट गईं। इनमें मुख्य रूप से चंडीगढ़ पंजाब के हवाले करना, अमृतसर को ‘पवित्र शहर’ का दर्जा देना, स्वर्ण मंदिर परिसर में एक रेडियो स्टेशन की स्थापना करना इत्यादि शामिल था। केंद्र सरकार और अकाली नेताओं की वार्ता को निष्फल बनाने के लिए भिंडरावाला ने बड़े पैमाने पर हिंसा पैदा करनी और आतंकी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया। भिंडरावाला के बढ़ते प्रभाव ने अकाली नेताओं को असुरक्षित और अस्थिर करने का काम शुरू कर दिया था। दूसरी तरफ भिंडरावाला ने स्वर्ण मंदिर के भीतर से अपनी आतंकी गतिविधियों को बड़े पैमाने पर बढ़ाकर अकाली नेतृत्व की खुली अवहेलना शुरू कर दी थी।
22 अप्रैल, 1983 को एक प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी ए.एस. अटवाल की स्वर्ण मंदिर परिसर में हत्या कर दी गई। अटवाल एक वरिष्ठ आईपीएस अफसर थे, जो अपनी हत्या के समय जालंधर में बतौर पुलिस उपमहानिरीक्षक (डीआईजी) तैनात थे। उनकी नृशंस हत्या ने पंजाब पुलिस के भीतर भारी असंतोष पैदा करने का काम किया। भिंडरावाला इस दौरान स्वर्ण मंदिर के परिसर में स्थित गुरुनानक निवास में रह रहा था। राज्य सरकार उसकी गिरफ्तारी को लेकर भारी जनदबाव में थी, लेकिन अकाली दल ने अपनी छोटी सोच का परिचय देते हुए स्वर्ण मंदिर परिसर में पुलिस के सम्भावित प्रवेश को बड़ा मुद्दा बनाना शुरू कर दिया। हरचरण सिंह लोंगोवाल ने अटवाल की हत्या की निन्दा करने के बजाए भिंडरावाला को पुलिस की सम्भावित कार्यवाही से बचाने के लिए अपने समर्थकों से अपील कर दी कि वे किसी भी सूरत में पुलिस को स्वर्ण मंदिर के परिसर में प्रवेश न करने दें। लौंगोवाल की इस अपील के बाद राज्य सरकार ने भिंडरावाला को स्वर्ण मंदिर में घुसकर गिरफ्तार करने का इरादा छोड़ दिया। इस घटनाक्रम ने जरनैल सिंह को पूरी तरह निरंकुश बना डाला। अब उसने सीधे अकाली नेताओं की अवहेलना करनी शुरू कर दी। वह खुद को सिखों का सबसे बड़ा नेता स्थापित करने की राह पर चल पड़ा था। अकाली दल के नेताओं ने इससे चिंतित होकर अपनी राजनीतिक गतिविधियों को तेज करने का फैसला लिया।
भिंडरावाला की निंदा करने और उसे आतंकी घोषित करने के बजाय अकालियों ने अपनी मांगों को केंद्र सरकार से मनवाने के लिए ‘रेल रोको’ आंदोलन की शुरुआत कर माहौल को ज्यादा बिगाड़ने का काम कर दिया। 17 जून, 1983 को शुरू हुए इस ‘रेल रोको-रास्ता रोको’ आंदोलन ने पूरे पंजाब में सामान्य जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर डाला था। इस आंदोलन के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सरकारी सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुंचा। पूरा पंजाब हिंसा का शिकार होने लगा था। भिंडरावाला और उसके आतंकी समर्थकों ने इस दौरान पंजाबी हिंदुओं को अपने निशाने पर लेना शुरू कर दिया। बेकसूर गैर-सिखों को हत्या कर खूनी खेल अकाली नेताओं की आंखों के सामने खेला जा रहा था, लेकिन तब उन्होंने इसकी निंदा करने का साहस नहीं दिखाया था। हालात इस कदर बिगड़े कि 5 अक्टूबर, 1983 के दिन एक यात्री बस का आतंकवादियों ने अपहरण कर उसमें सवार सभी छह हिंदुओं को गोली मार दी। इस घटना के बाद दरबारा सिंह सरकार को बर्खास्त कर पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और पूरे प्रदेश को केंद्र सरकार ने ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर वहां विशेष सैन्य कानून ‘आफस्पा’ लागू कर दिया, लेकिन हालात इसके बाद भी सुधरे नहीं। आतंकी लगातार बैंकों, पेट्रोल पम्पां और सरकारी बसों को लूटने का काम करते रहे थे। 21 अक्टूबर, 1983 को सियालदह-जम्मूतवी एक्सप्रेस ट्रेन आतंकी घटना का शिकार होकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस दुर्घटना में 19 यात्री मारे गए और कई सौ घायल हो गए थे।
खालिस्तान की मांग अब जोर पकड़ने लगी थी और उसे विदेशों में बसे धनाढ्य अप्रवासी सिखों का समर्थन भी मिलने लगा था। ऐसे अप्रवासी सिखों के एक बड़े वर्ग ने ब्रिटेन में ‘दल खालसा’ और कनाडा में ‘बब्बर खालसा’ नामक संगठनों की स्थापना कर भिंडरावाला के समर्थन में काम करना शुरू कर दिया था। इन संगठनों ने सीधे पाकिस्तान से मदद की गुहार लगाने और पंजाब में सक्रिय आतंकवादियों को हथियार और धन उपलब्ध करा भारत के खिलाफ एक तरह से युद्ध का ऐलान करने का काम किया। इन अप्रवासियों के समर्थन ने भिंडरावाला की ताकत में कई गुना बढ़ोतरी कर डाली। वह अब गुरुनानक निवास छोड़कर सीधे अकाल तख्त के परिसर में काबिज हो गया। इस दौरान अकालीनेताओं के संग केंद्र सरकार की लगातार बातचीत का सिलसिला जारी रहा था और इसमें अब सीधे राजीव गांधी हिस्सा लेने लगे थे, लेकिन इन बैठकों से कुछ हासिल नहीं हो पाया।
अकाली नेताओं की हठधर्मिता के चलते हालात दिनों-दिन खराब होते चले गए। अपनी अन्य मांगों के साथ-साथ अब अकालियों ने केंद्र सरकार के समक्ष एक बिल्कुल ही नई मांग फरवरी, 1984 में रख दी। बकौल पी.सी. एलेक्जेंडर केंद्र सरकार इस नई मांग से हतप्रभ हो उठी थी। अकालियों की यह मांग संविधान के अनुच्छेद 25 में संशोधन किए जाने की थी। इस अनुच्छेद के खण्ड (2) के उपखण्ड (ख) में कहा गया है कि- ‘हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश हैं और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा।’
अकाली अब इस बात पर अड गए कि उन्हें हिंदू धर्म का हिस्सा न माना जाए और इस अनुच्छेद को संशोधित करते हुए उन्हें अलग धर्म के रूप में परिभाषित किया जाए। यह एकदम नई मांग थी, यहां तक कि अकाली दल द्वारा प्रस्तावित विवादित आनंदपुर साहिब संकल्प में भी इस मांग का कोई जिक्र नहीं था। उन्होंने अपनी इस नई मांग को मनवाने के लिए बड़े स्तर पर धरने-प्रदर्शन करने शुरू कर दिए। इन प्रदर्शनों में भारतीय संविधान को जमाए जाने का ऐलान कर अकाली नेताओं ने बतौर राष्ट्र भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का काम कर डाला था।
27 फरवरी, 1984 को दिल्ली में अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल ने अनुच्छेद 25 की प्रति जला डाली। चंडीगढ़ में सुरजीत सिंह बरनाला और गुरशरण सिंह तोहडा ने भी ऐसा ही किया। इन सभी नेताओं को संविधान का अपमान करने के आरोप में लम्बे अर्से तक कैद में रखा गया था। केंद्र सरकार अकालियों के हठयोग के बावजूद भी शांतिपूर्ण तरीके से समस्या का समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करती रही थी। जेल में बंद अकाली नेतृत्व के संग केंद्र सरकार के मंत्रियों का समूह लगातार बातचीत में जुटा रहा। पी.सी. एलेक्जेंडर के अनुसार- ‘हमने अकाली नेताओं को बेहद अस्थिर मस्तिष्क वाला पाया। भिंडरावाला को युवा सिखों से मिल रहे समर्थन के चलते ये अकाली नेता अपने कहे पर टिके रहने के लिए आशंकित दिखाई देते थे। सम्भवतः उन्हें भय था कि भिंडरावाला उन पर ‘सिख हितों के साथ विश्वासघात करने वाले’ सरीखा कोई आरोप न चस्पा कर दे। इस आशंका के चलते हरेक मुद्दे पर उन्होंने बहुत ही अड़ियल रवैया अपनाया।’
पंजाब में इस दौरान हिंसा का तांडव अपने चरम पर पहुंचने लगा था। 12 मई, 1984 को आतंकवादियों ने ‘हिंद समाचार’ के सम्पादक और शहीद लाला जगतनारायण के पुत्र रोमेश चंद्र की जालंधर में दिन-दहाड़े हत्या कर दी। रोमेश चंद्र भी अपने पिता की तरह भिंडरावाला की आतंकी गतिविधियों के खिलाफ ‘हिंद समाचार’ में लगातार समाचार प्रकाशित कर रहे थे। उनकी हत्या ने देशभर में भारी आक्रोश पैदा करने का काम किया था। अब आम जनता केंद्र सरकार पर सिख आतंकवादियों के खिलाफ नरम रुख अपनाने की बात खुलकर कहने लगी थी। भिंडरावाला पृथक राष्ट्र ‘खालिस्तान’ की मांग उठाकर अकाली नेताओं को पूरी तरह हाशिए पर डाल सिखों के एक बड़े वर्ग का नेता बन चुका था। लांगोवाल और उनके साथी अकाली नेताओं ने अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार के खिलाफ ‘असहयोग आंदोलन’ की घोषणा कर माहौल को और बिगाड़ने का काम कर दिखाया। हरचरण सिंह लौंगोवाल ने ऐलान किया कि 3 जून, 1984 से पंजाब के सिख सरकारी लगान, बिजली बिल का भुगतान, सिंचाई के पानी का भुगतान इत्यादि देना बंद कर देंगे। सबसे घातक बात उन्होंने पंजाब से देश के अन्य राज्यों को दिए जाने वाले अन्न की सप्लाई रोक देने का भी ऐलान कर की।
अकालियों के साथ लगातार वार्ता कर पंजाब मसले का शांतिपूर्ण समाधान निकालने की सभी सम्भावनाओं को अकाली दल ने इस आन्दोलन की घोषणा कर पूरी तरह समाप्त कर डाला। अकाली नेताओं के साथ चली बैठकों का हिस्सा रहे इंदिरा गांधी के सचिव पी.सी. एलेक्जेंडर के अनुसार- ‘1981 से 1984 तक लगातार अकाली नेताओं के साथ कई दौर की बातचीत की गई थी, जिससे स्पष्ट होता है कि इंदिरा गांधी किस हद तक शांतिपूर्ण तरीकों से इस समस्या का समाधान चाहती थीं। ऐसी तीन बैठकों में वे स्वयं मौजूद रहीं, जब अकालियों ने गुप्त बैठकों के जरिए समाधान तलाशने की इच्छा प्रकट करते हुए राजीव गांधी को ऐसी बैठकों का हिस्सा बनाना चाहे तो प्रधानमंत्री ने तुरंत हामी भर दी। विपक्षी दलों ने ऐसी बैठकों का हिस्सा बनने की बात रखी तब भी प्रधानमंत्री ने अपनी स्वीकृति देने में देर नहीं लगाई। कुल मिलाकर ढ़ाई वर्षों में कुल 26 बैठकें अकाली नेताओं के साथ केंद्र सरकार ने जून, 1984 में सैन्य हस्तक्षेप से पहले की थीं।’