इन दिनों जब नेहरू की कश्मीर नीति को लेकर पूरी तरह भ्रामक प्रचार अपने चरम पर है, जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत लगे विलय का इतिहास गहन अध्ययन की मांग करता है। 10 अक्टूबर, 2022 को केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजु ने इतिहास को अपनी सोच अनुसार तोड़- मरोड़ कर यह दावा किया कि नेहरू कश्मीर का भारत में विलय चाहते ही नहीं थे। इससे बड़ा झूठ और कुछ हो ही सकता। नेहरू का कश्मीर के प्रति लगाव पागलपन की हद से कहीं ज्यादा था। इतना कि उनके मंत्रिमंडल में उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल अन्य ज्वलंत समस्याओं के बजाए केवल इस मुद्दे पर उलझे नेहरू से इतने नाराज हो उठे थे कि उन्होंने त्यागपत्र तक देने की धमकी दे डाली थी। स्टेनले वोलपर्ट के अनुसार ‘Nehru remained obsessed with Kashmir. His frustation and anger grew daily. He felt thwarted, surrounded by enemies or nay sayers. His passion for Kashmir appeared to blind Nehru to every other problem that plaqued the new born nation over which he presided. Vallabh Bhai Patel was the only cabinet minister strong enough to warn Nehru against wasting so many precious resources on Kashmir, and several times that December Vallabh Bhai nearly resigned. But Gandhi always talked the Sardar in to staying, for the sake of India'(नेहरू कश्मीर के लिए दीवाने बने रहे। उनकी कश्मीर को लेकर निराशा ओर क्रोध प्रति दिन बढ़ता गया। वे खुद को नाकामयाब और विरोधियों और दुश्मनों से घिरा महसूस करने लगे थे। कश्मीर के प्रति दीवानगी ने उन्हें देश की अन्य गंभीर समस्याओं के प्रति अंधा बना दिया था। वल्लभ भाई पटेल उनके मंत्रिमंडल में अकेले ऐसे नेता थे जो उन्हें कश्मीर में इतना बेतहाशा खर्चा करने और संसाधन झोंकने से रोकने की सलाह देने की ताकत रखते थे। कई बार इस मुद्दे को लेकर उस दिसंबर (दिसंबर, 1947) में सरदार ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा तक दे डाला था लेकिन हमेशा गांधी ने उन्हें देश का वास्ता दे रोक दिया)।
सर्दियों के दौरान सैन्य कार्यवाही रोक दी गई थी। पाकिस्तान की शह पर कबिलाई पठानों द्वारा कब्जाए गए हिस्से को ‘आजाद कश्मीर’ का दर्जा दे वहां एक स्वतंत्र सरकार का गठन कर लिया गया। इस बीच एक जनवरी, 1948 को लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह मान भारत आजाद कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में ले गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विलय बाद उसके उत्तरी हिस्से पर हमला कर उसे आजाद कश्मीर का नाम देना पूरी तरह से अवैध था। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में इस मसले की सुनवाई के दौरान ही नेहरू को अपनी गलती का एहसास हो गया। अमेरिका और ब्रिटेन ने इन बैठकों के दौरान पाकिस्तान के पक्ष संग हमर्ददी दिखा यह साबित कर डाला कि निष्पक्ष तरीके से इस मुद्दे को सुलझाने के बजाए सुरक्षा परिषद के देश इसे अपने-अपने हितों की रक्षा की दृष्टि से तोल रहे हैं। जनवरी एवं फरवरी, 1948 में इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कई बार बैठकें हुईं। भारतीय पक्ष का नेतृत्व नेहरू मंत्रिमंडल में बगैर विभाग के मंत्री गोपाल स्वामी अयंगर ने किया। पेशे से आईसीएस अफसर रह चुके अयंगर 1937 से 1943 तक राजा सर हरि सिंह के प्रधानमंत्री रहे थे जिस कारण उन्हें जम्मू-कश्मीर का विशेषज्ञ माना जाता था। संविधान सभा के सदस्य अयंगर को संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मुद्दे पर भारत के प्रतिनिधि मंडल का नेता बनाया गया था। पाकिस्तान की तरफ से सर जफरउल्लाह खान थे। सर खान लियाकत अली सरकार में विदेश मंत्री होने के साथ-साथ पाकिस्तान के उन प्रबल पैरोकारों में एक थे जिनकी गिनती ‘पाकिस्तान के जनकों’ में की जाती है। इतिहासकारों का मानना है कि ब्रिटेन और अमेरिका का कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष में आने के साथ-साथ भारतीय पक्ष का सुरक्षा परिषद में कमजोर प्रदर्शन और पकिस्तान का कहीं बेहतर तरीके से अपने पक्ष को रखना भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में पाकिस्तान को मिले समर्थन का कारण रहा- ‘The support for Pakistan that developed in the Security Council in January 1948 was mainly the result of British lobbying based on the argument that since J&K had a 77 percent Muslim population, it should ‘naturally’ go to Pakistan. The views of the ex colonial powers were given due weight by the western member of the Seurity Council.The performance of the Indian delegate at the Security Council also swung opinion in favour of the accused. Gopal swamy Ayanger thought that ‘high statesmanship’ required him not to condemn Pakistan directly for aggression. He took pains to differenciate between ‘the raiders’ and the armed forces of Pakistan, focussing on the former. In a further effort to appear ‘objective’, Ayenger made it appear as if the accession was absolutely conditional on the result of the plebiscite. This statement was taken as an indication that the India would be willing to accomodate Pakistan. He failed to insist on a time-bound vacation of Pakistani aggression to be followed by a plebiscite and to make it clear that if the Security Council was unable to ensure such vacaion, India would be forced to do so itself. Nor did he point out that the division of India had left millions of Muslims behind in India and was essentially a political settlement. In contrast, the Pakistani delegate, Sir Jfarullah khan, accused India of obtaining the accession ‘by fraud and violence’ and went hammer and tongs to attack India on a variety of issues totally unconnected with India’s complaint, whereas the Indian delegates statement was seen as apologetic, as if India had done some thing to hide, Pakistan’s strident approach was taken as the cry of the wronged’ (जनवरी, 1948 में सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के प्रति जिस प्रकार का समर्थन बना उसके पीछे ब्रिटेन द्वारा की गई पक्षधरता थी। ब्रिटेन का मानना था चूंकि जम्मू-कश्मीर की 77 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है इसलिए वे ‘स्वाभाविक रूप’ से पाकिस्तान संग विलय चाहेंगे। पूर्व औपनिवेशिक ताकत के इस रुख का सुरक्षा परिषद के पश्चिमी सदस्य देशों द्वारा समर्थन किया गया। भारतीय दल के सुरक्षा परिषद समक्ष प्रदर्शन ने भी माहौल ‘आरोपी’ के पक्ष में कर डाला। गोपाल स्वामी अयंगर ‘उच्च स्तरीय’ मापदंडों के आधार पर पाकिस्तानी आक्रमण की निंदा करने से बचते रहे। उन्होंने आक्रमणकारियों और पाकिस्तान के मध्य अंतर बनाने का काम किया। साथ ही उनका जोर इस बात पर ज्यादा रहा कि यह विलय बशर्त है और पूरी तरह जनमत संग्रह पर निर्भर करता है। उनके बयान से ऐसा प्रतीत हुआ मानो भारत पाकिस्तान की बात को सुनने के लिए तैयार है। वे इस बात को कह पाने में भी असफल रहे कि यदि तय समय-सीमा के भीतर पाकिस्तानी घुसपैठिए को बाहर निकाल पाने में संयुक्त राष्ट्र असफल रहता है तो भारत स्वयं ऐसा करने को मजबूर हो जाएगा। न ही वह तार्किक तरीके से सुरक्षा परिषद को यह समझा पाए कि विभाजन बाद भी भारत में लाखों मुसलमान रह रहे हैं। इसके विपरीत पाकिस्तानी प्रतिनिधि सर जफर उल्लाह खान ने पूरे दमखम के साथ भारत पर ‘धोखाधड़ी और हिंसा’ का रास्ता अपना कश्मीर पर कब्जा करने का आरोप लगा डाला। जफर उल्लाह खान केवल कश्मीर मुद्दे पर ही भारत के खिलाफ नहीं बोले, उन्होंने नाना प्रकार के मुद्दे उठा भारत को घेरने का काम किया जबकि भारतीय प्रतिनिधि क्षमा याचक की भूमिका अपनाते दिखे, ऐसा लगा मानां भारत कुछ छिपाना चाहता है। पाकिस्तानी पक्ष एक ‘पीड़ित पक्ष’ बतौर अपनी बात कह पाने में सफल रहा)।
आजाद भारत, आजाद भारत की पहली सरकार, अभी विभाजन चलते विकराल होती जा रही साम्प्रदायिक समस्या, राजे-रजवाड़ों और रियासतों के विलय, जम्मू- कश्मीर चलते पाकिस्तान के साथ पैदा हुई युद्ध समान स्थिति इत्यादि से जूझ, ढाई सौ बरस की गुलामी बाद मिली स्वतंत्रता और देश की अखंडता बनाए रखने जैसे मुद्दों का समाधान खोजने में व्यस्त थी कि एक अनहोनी ने दोनों, आजाद भारत और उसकी पहली सरकार को झकझोर कर रख दिया। ताउम्र अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले और समस्त विश्व को भी इसी मार्ग में चलने की प्रेरणा देने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं हिंसा के शिकार हो गए। 30 जनवरी, 1948 की शाम 5 बजकर 5 मिनट पर दिल्ली स्थित महात्मा के अस्थाई निवास बिड़ला भवन के प्रांगण में एक धर्मांध हिंदू ने तीन गोलियां दाग महात्मा की हत्या कर दी। गांधी पूरे जनवरी माह दिल्ली में तेज होते जा रहे साम्प्रदायिक तनाव को कम करने में जुटे रहे थे। उनके तमाम प्रयासों बाद भी हालात लगातार खराब होते चले गए। 12 जनवरी, 1948 को गांधी संग नेहरू और पटेल ने लंबी वार्ता की। वार्ता में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई उनमें नेहरू और पटेल के मध्य सरकार चलाने से जुड़े मतभेद, साम्प्रदायिक तनाव को कम करने के लिए सरकार के प्रयास और विभाजन की शर्त अनुसार पाकिस्तान को दी जाने वाली राशि की दूसरी किश्त का मसला शामिल था। पहली किश्त के 20 करोड़ देने के बाद नेहरू सरकार दूसरी किश्त के 55 करोड़ कश्मीर का मुद्दा तय न होने तक रोकने के पक्ष में थी। करीबन एक घंटे चली इस बैठक के दौरान गांधी ज्यादातर खामोश रह अपने दो शक्तिशाली अनुयायियों की बात सुनते रहे। इसी शाम बिड़ला भवन में आयोजित सांध्य सभा में महात्मा ने एलान कर डाला कि साम्प्रदायिक तनाव को कम कर पाने में अपनी विफलता चलते वे उपवास करने जा रहे हैं। गांधी ने कहा ‘9 सितंबर को जब मैं कलकत्ता से दिल्ली लौटा तब मुझे पश्चिम पंजाब जाना था लेकिन ऐसा हो न सका क्योंकि दिल्ली मृतकों का शहर समान लग रहा था।
क्रमशः