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Editorial

सवालों के घेरे में न्याय व्यवस्था

मेरी बात
 

बीते लंबे अर्से से केंद्र सरकार और देश की शीर्ष न्यायपालिका के मध्य न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर तनाव लगातार बढ़ने की खबरें आती रही हैं। हालिया दिनों में यह तनाव तब अपने चरम पर पहुंच गया जब उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न उच्च न्यायालयों के लिए उसके द्वारा चयिनत नामों को केंद्र सरकार द्वारा अस्वीकृत किए जाने के कारणों का खुलासा सार्वजनिक पटल पर रख दिया। इनमें से एक नाम वरिष्ठ वकील सौरभ कृपाल का है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने दिल्ली उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने संबंधी प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था। केंद्र ने सौरभ कृपाल के समलैंगिक होने के चलते उनकी बतौर जज नियुक्ति का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इसी प्रकार मुंबई हाईकोर्ट में बतौर न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील सोमशेखरन् सुन्दरेशन का नाम प्रस्तावित किया जिसे केंद्र सरकार ने यह कहते हुए अस्वीकृत कर दिया कि वे अदालतों में लंबित मामलों को लेकर सोशल मीडिया में टिप्पणी करते रहते हैं। मद्रास उच्च न्यायालय के लिए बतौर जज कॉलेजियम ने वरिष्ठ वकील आर जॉन सैथयान का नाम केंद्र सरकार को भेजा था। सैथयान के नाम पर केंद्र सरकार की आपत्ति का कारण उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लेख लिखना रहा है। सरकार के रुख से नाराज उच्चतम न्यायालय ने 18 जनवरी को अपनी वेबसाइट पर केंद्र सरकार द्वारा भेजी गई आपत्तियों को सार्वजनिक कर विधायकी और न्यायपालिका के मध्य तनाव को गहराने का काम कर डाला। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने उच्चतम न्यायालय को सीधे निशाने पर लेते हुए केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा एकत्रित की गई संवेदनशील जानकारी को सार्वजनिक किए जाने की कठोर शब्दों में निंदा कर इस तनाव को बढ़ा दिया। इसके बाद तो मीडिया, विशेषकर सोशल मीडिया में पूरे प्रकरण को लेकर घमासान-सा मच गया है। बगैर पूरी कॉलेजियम प्रणाली को समझे सुप्रीम कोर्ट को एक बड़े वर्ग द्वारा निशाने पर लिया जाने लगा है तो दूसरी तरफ वर्तमान सत्ता व्यवस्था के विरोधी भी मैदान में उतर केंद्र सरकार पर न्यायपालिका को अपने कब्जे में लिए जाने का आरोप लगाने में जुट गए हैं।

सरकार और न्यायपालिका के मध्य टकराव के मूल में है उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति किए जाने वाले न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया। इस प्रक्रिया के अंतर्गत भारतीय न्याय व्यवस्था में उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों का चयन वर्तमान न्यायाधीशों की एक कमेटी जिसे कॉलेजियम कहा जाता है, के द्वारा किया जाता है एवं इसमें केंद्र अथवा राज्य सरकारों की भूमिका नगण्य होती है। इस व्यवस्था के चलते न्यायपालिका पर लंबे अर्से से न्यायाधीशों की नियक्ति में भाई-भतीजावाद और अपारदर्शिता के आरोप लगते रहे हैं। 2014 में मोदी सरकार के गठन के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाए जाने संबंधी कानून संसद में पारित किया गया था जिसमें कॉलेजियम प्रणाली को हटा एक आयोग के जरिए न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं एक हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के स्थानांतरित किए जाने की बात कही गई थी। यह कानून दिसंबर 2014 में अस्तित्व में आया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2015 में इसे न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण मानते हुए असंवैधानिक करार दे वापस कॉलेजियम प्रणाली को बहाल करने का आदेश दे डाला। उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने चार-एक के बहुमत से यह फैसला दिया था। इस पीठ में शामिल न्यायमूर्ति जस्ती चलमेश्वर एकमात्र ऐसे न्यायाधीश थे जिन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन को विधिसम्मत करार दिया था। केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के मध्य तभी से न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर गतिरोध चला आ रहा है। वर्तमान में यह गतिरोध अपने चरम पर पहुंच चुका है। हालिया समय में तीन वकीलों को सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग उच्च न्यायालयों में बतौर न्यायाधीश नियुक्त किए जाने की सिफारिश की जिसे खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार ने अस्वीकृत कर शीर्ष न्यायपालिका को इतना नाराज कर डाला कि कोर्ट ने खुफिया रिपोर्ट तक को सार्वजनिक करने का फैसला ले डाला। इन तीन वकीलों की बाबत केंद्र सरकार की आपत्तियों को जगजाहिर करने के पीछे सुप्रीम कोर्ट की मंशा शायद पारदर्शिता की रही होगी। यह भी संभव है कि कोर्ट का उद्देश्य केंद्र सरकार की समझ को निशाने पर रखने की हो। यदि केंद्र सरकार किसी चयनित व्यक्ति की नियुक्ति को उसके समलैंगिक होने अथवा प्रधानमंत्री के विरोध में लेख लिखने या फिर सोशल मीडिया में टिप्पणी करने के चलते स्वीकार नहीं करती है तो निश्चित ही इसे स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं करार दिया जा सकता। प्रश्न लेकिन कॉलेजियम प्रणाली की खामियों को लेकर उच्चतम न्यायालय के रुख पर उठते हैं। मद्रास हाईकोर्ट में एक ऐसे न्यायाधीश की नियुक्ति का  प्रस्ताव इसी कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र सरकार को भेजा जाना खासा चिंताजनक है जिसकी वैचारिक प्रतिबद्धता घोर अल्पसंख्यक विरोधी हो। 17 जनवरी 2023 को सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यीय कॉलेजियम ने तमिलनाडु की एक वकील चंद्रा विक्टोरिया गौरी को मद्रास हाईकोर्ट में न्यायाधीश बनाए जाने संबंधी सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी। केंद्र सरकार ने बगैर किसी ना-नुकुर इस सिफारिश को स्वीकार लिया और गत सप्ताह 7 फरवरी के दिन विक्टोरिया गौरी ने बतौर न्यायाधीश शपथ भी ले ली।
विक्टोरिया गौरी भाजपा की सक्रिय कार्यकर्ता होने के साथ- साथ अल्पसंख्यकों को लेकर समय-समय पर दिए अपने विवादित बयानों के लिए कुख्यात रही हैं। ईसाई समाज को लेकर उनके विचार हैं- ‘As far as India is concerned, I would like to say Christian groups are more dangerous than Islamic groups. Both are equally dangerous in the context of conversion, especially Love Jihad.’ (जहां तक भारत का सवाल है, मैं कहना चाहती हूं कि ईसाई समूह इस्लामी समूहों की बनिस्पत कहीं ज्यादा खतरनाक है। दोनों ही धर्मांतरण और लव- जिहाद के मसले पर समान रूप से घातक हैं।) उनका यह भी कथन है -‘If the Islamic terror is green terror, the Christian terror is white terror.’ (यदि इस्लामी आतंकवाद हरा आतंकवाद है तो ईसाई आतंकवाद सफेद आतंकवाद है।) विक्टोरिया गौरी के ऐसे एक नहीं अनेकों वीडियो और इंटरव्यू उपलब्ध हैं जिनमें इस्लाम और ईसाई धर्म के खिलाफ कठोरतम भाषा में अपनी बात कहती सुनी -पढ़ी जा सकती हैं। गौरी के नाम की सिफारिश बाद मद्रास हाईकोर्ट बार के कुछ वकीलों ने राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को पत्र भेज अपनी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। इन पत्रों में कहा गया कि इस प्रकार के विचारों वाली वकील की बतौर जज हाईकोर्ट में नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को कमजोर करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने लेकिन अपनी सिफारिश वापस नहीं ली और केंद्र सरकार ने भी तत्काल गौरी को जज बनाए जाने संबंधी स्वीकृति दे डाली। 7 फरवरी के दिन गौरी जब चैन्नई में बतौर जज शपथ ले रही थीं, ठीक उसी समय उनकी नियुक्ति को रोके जाने संबंधी याचिका की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चली। कोर्ट ने इस याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि विस्तृत आदेश में ‘इस याचिका के खारिज किए जाने के कारणों की व्याख्या की जाएगी।’ अब तक यह विस्तृत आदेश सामने नहीं आया है। सुप्रीम कोर्ट के पास निश्चित ही किसी धर्म के प्रति पूर्वाग्रसित व्यक्ति को हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनाए जाने के अपने कारण होंगे। प्रश्न लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था के जरिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर उठते हैं। कॉलेजियम प्रणाली पूरी तरह अपारदर्शी व्यवस्था है। हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने की बात दंभ के साथ करते हैं लेकिन अन्य लोकतांत्रिक देशों की स्वस्थ परंपराओं और प्रणाली को अपनाने से हिचक जाते हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में न्यायाधीशों के नियुक्ति किए जाने से पहले उनके नामों को सार्वजनिक कर उन पर चर्चा कराए जाने की व्यवस्था है। यदि हमारे यहां भी ऐसा होता तो शायद गौरी विक्टोरिया सरीखा विवाद पैदा ही नहीं होता। ऐसा लेकिन हुआ नहीं क्योंकि कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत नियुक्ति का फैसला हो जाने बाद ही चयनित व्यक्ति का नाम सार्वजनिक किए जाने की व्यवस्था है।
जाहिर है कि कॉलेजियम व्यवस्था में खासी खामियां हैं जिन्हें दुरुस्त किया जाना बेहद जरूरी है। यह व्यवस्था राजनीतिक हस्तक्षेप से परे नहीं है। यदि होती तो तीन वकीलों का नाम केंद्र सरकार इस आधार पर निरस्त नहीं कर पाती कि उनका वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति विरोधी रूझान है, या फिर इनमें से कोई एक समलैंगिक है। ठीक इसी प्रकार यदि यह प्रणाली पारदर्शी और राजनीतिक हस्तक्षेप से परे होती तो वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ी एक ऐसी वकील जो अल्पसंख्यकों को लेकर पूर्वग्रहों से ग्रसित है, हाईकोर्ट की न्यायाधीश नहीं बनाई जाती। अब समय आ गया है कि उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सही प्रणाली विकसित की जाए और न्यायपालिका तथा केंद्र सरकार अपने घोषित स्टैंड में लचीलापन लाते हुए इस दिशा में आगे बढ़ें। अन्यथा आने वाले समय में लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण स्तंभों के मध्य टकराव गहराएगा जिसका सीधा असर लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने का काम करेगा।

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