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Editorial

न्याय मर गया है, न्यायाधीश अमर रहें

‘राजा मर गया है, राजा अमर रहे’ अंग्रेजी की प्रसिद्ध सूक्ति है जो राजा के निधन बाद नए राजा की ताजपोशी के समय कही जाती है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के खिलाफ लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों के बाद बनाई गई न्यायमूर्ति ए़.के. पटनायक कमेटी की रिपोर्ट स्वीकारते हुए 18 फरवरी के दिन सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्ययीय बेंच ने इस पूरे प्रकरण को स्थाई रूप से ‘दाखिल  दफ्तर’ करने का फैसला सुनाया है। इस फैसले ने मुझे उक्त सूक्ति की याद दिला दी। न्यायमूर्ति गोगोई उन चार न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने 12 जनवरी, 2018 के दिन एक अत्प्रत्याशित कदम उठाते हुए प्रेस कांफ्रेंस कर डाली थी। इस प्रेस कांफ्रेंस में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश कुरियन जोजेफ, जे . चेलमेश्वर, रंजन गोगोई और मदन बी. लोकूर ने लोकतंत्र के खतरे में होने की बात कही थी। मुख्य रूप से उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा द्वारा संवेदनशील मामलों की सुनवाई एक खास बेंच से करवाने, न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली के सही नहीं होने और केंद्र सरकार द्वारा इस प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप की बात पर अपना रोष जताया था। बड़ा हंगामा तब मचा था। इन चारों न्यायमूर्तियों की प्रशंसा में कसीदे भी खूब पढ़े गए। इस प्रेस कांफ्रेंस ने केंद्र में काबिज मोदी सरकार और भाजपा को खासा विचलित कर डाला था।

दीपक मिश्रा की सेवानिवृत्ति के बाद रंजन गोगोई देश के नए मुख्य न्यायाधीश बने। प्रेस कांफ्रेंस में शामिल तीन अन्य न्यायाधीश समय आने पर सेवानिवृत्त हो गए। रंजन गोगोई के शुरुआती महीने खासे रोचक कहे जा सकते हैं। राफेल और सीबीआई के शीर्ष अफसरों की लड़ाई के मामले इसी समय पर सुने गए। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट में ‘बंद लिफाफे’ के विधिशास्त्र (Sealed Covered Jurisprudence) की परंपरा जमकर चली। इसका अर्थ होता है कोर्ट के सम्मुख बंद लिफाफे में तथ्य रखे जाते हैं जिन्हें केवल संबंधित न्यायाधीश ही पढ़ते हैं। पक्षकारों को यानी जिनके मध्य मुकदमा चल रहा हो, इन रिपोर्ट अथवा तथ्यों को नहीं पढ़ने दिया जाता है। इसका एक बड़ा नुकसान संबंधित पक्षकार को अपना पक्ष नहीं पेश कर पाने का होता है। न्यायमूर्ति गोगोई के कार्यकाल में विशेषरूप से केंद्र सरकार के मामलों में ऐसा कई बार हुआ जिससे केंद्र के किसी निर्णय से पीड़ित व्यक्ति को पता ही नहीं चला कि उसकी बाबत केंद्र सरकार ने कोई और क्या जानकारी दी है।
बहरहाल न्यायमूर्ति गोगोई जिन्होंने मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में लोकतंत्र के खतरे में होने की बात कही थी खुद एक बड़ी शर्मिंन्दगी का शिकार हो गए। उनकी अदालत में काम करने वाली एक महिला क्लर्क ने उन पर यौन शोषण का गंभीर आरोप लगा डाला। महिला के आरोप और उसके बाद का घटनाक्रम पूरा फिल्मी है। महिला तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सहायक थी। उसे उनके कोर्ट चैंबर एवं उनके घर के ऑफिस  में उनकी सहायता करनी होती थी। 2018 में इस महिला की तीन बार, तीन हफ्तों के भीतर ड्यूटी बदली गई। तीनों बार उसे कार्य सही से न करने के आरोप में नोटिस भी दिए गए। जब तक इन नोटिसों का जवाब वह दे पाती सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक विभाग द्वारा उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गई। इसके बाद यकायक ही इस महिला के पति जो दिल्ली पुलिस में सिपाही थे, नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए। महिला के एक देवर जो दिल्ली पुलिस में ही सिपाही थे, उन्हें भी निलंबित कर दिया गया। इतना ही नहीं इस महिला के एक अन्य देवर विकलांग कोटे से स्वयं न्यायमूर्ति गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट में नौकरी पर रखा था, उनको भी निकाल दिया गया। बकौल महिला यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उसने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश द्वारा उसके यौन शोषण के प्रयासों का विरोध किया था। अप्रैल, 2020 में महिला ने न्यायमूर्ति गोगोई पर सार्वजनिक तौर पर आरोप लगा हंगामा बरपा डाला। उसने बाकायदा अपने आरोपों के साथ एक शपथ पत्र लगा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को भेज दिया। इसके बाद जो होना चाहिए था, नियमानुसार था, वह नहीं हुआ। न्यायमूर्ति गोगोई ने खुद पर लगे आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्य बेंच गठित कर डाली जिसके मुखिया वे स्वयं बन गए। इस बेंच को ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता को आघात पहुंचाने वाले’ इस प्रकरण की जांच का दायित्व दिया गया। यानी एक नौजवान महिला के आरोपों को न्यायपालिका पर प्रहार का मुद्दा बना दिया गया। इसके बाद बहुत कुछ ऐसा हुआ जो देश की सर्वोच्च न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षाता और नीयत पर प्रश्नचिन्ह् लगाने वाला रहा। कहा गया कि महिला के तार ऐसे अवांछनीय तत्वों से जुड़े हैं जिनका काम सुप्रीम कोर्ट में दलाली करना है। स्वयं न्यायमूर्ति गोगोई ने महिला को आपराधिक इतिहास वाली करार दिया। जब खुद के मामले की खुद ही सुनवाई करने को लेकर न्यायमूर्ति गोगोई की आलोचना होने लगी तब उन्होंने अपने नंबर दो न्यायमूर्ति एस़. ए़. बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की एक आंतरिक कमेटी यौन शोषण के आरोपों की जांच के लिए गठित कर दी। इस कमेटी ने मामले की जांच शुरू की। महिला इस कमेटी के समक्ष पेश हुई लेकिन उसे अपना वकील साथ में लाने की इजाजत नहीं दी गई। महिला ने कमेटी के कामकाज के तरीके पर आपत्ति करते हुए इस जांच प्रक्रिया में भाग लेने से मना कर डाला। सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्र चूड ने इस कमेटी से आग्रह किया कि जांच नियमानुसार की जाए।
तत्कालीन अटाॅनी जनरल के़.के . वेणुगोपाल ने भी नियमों का हवाला देते हुए एक बाहरी सदस्य को पैनल का हिस्सा बनाने की बात कही लेकिन न्यायमूर्ति बोबडे तैयार नहीं हुए। कमेटी ने सभी आरोपों को आधारहीन कह खारिज कर दिया। इतना ही नहीं अपनी रिपोर्ट को इस बेंच ने न तो सार्वजनिक किया, न ही आरोप लगाने वाली महिला को इसकी प्रति दी।
और अब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति पटनायक द्वारा पूरे प्रकरण को लेकर की गई रिपोर्ट भी सीलबंद करते हुए मामले को दफन कर डाला है। न्यायमूर्ति पटनायक को कहा गया था कि वे यह पता लगाने का प्रयास करें कि इन आरोपों का उद्देश्य कहीं न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रहार करना तो नहीं? उनकी जांच रिपोर्ट को स्वीकारते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि न्यायमूर्ति गोगोई पर लगे आरोपों के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र था। इतना कहकर कोर्ट ने इस रिपोर्ट और पूरे मामले को स्थाई तौर पर बंद करने का आदेश दे दिया। न्यायमूर्ति पटनायक की यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के पास सितंबर, 2019 से थी लेकिन इसे खोला नहीं गया। क्यों? यह अनुत्तरित प्रश्न है, शायद हमेशा के लिए। इस रिपोर्ट के कोर्ट में जमा होने के बाद एक और आश्चर्यजनक घटना हुई। जनवरी, 2020 में बर्खास्त महिला की सेवाएं पुनः बहाल कर दी गई। इतना ही नहीं उक्त महिला, उसके पति और देवर पर दर्ज मामले भी समाप्त कर दिए गए और पति व देवर का सस्पेंशन समाप्त कर दिया गया। न्यायमूर्ति गोगोई भी सेवानिवृत्त हो गए। उनकी ‘सेवाओं’ का सम्मान करते हुए उन्हें राज्यसभा का सदस्य भी बना दिया गया है।
इस पूरे प्रकरण से एक बात साफतौर पर उभरती है। या तो महिला द्वारा लगाए गए आरोप पूरी तरह झूठे थे, न्यायमूर्ति गोगोई के किन्हीं निर्णयों से नाराज पक्ष द्वारा षड्यंत्र था, या फिर आरोप सही थे। यदि आरोप झूठे थे तो फिर ऐसे घटिया आरोप लगाने वाली महिला की क्योंकर बहाली की गई? इन आरोपों के पीछे  यदि कोई बड़ा षड्यंत्र था तो उसकी जांच के व्यापक अधिकार न्यायमूर्ति पटनायक को क्यों नहीं दिए गए? और यदि महिला की बहाली उसके आरोपों को सही पाए जाने के चलते की गई है तो न्यायमूर्ति रंजन गोगोई पर अपेक्षित कार्यवाही क्यों कर नहीं की गई और उन्हें राज्यसभा का सदस्य क्यों मनोनीत किया गया? सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायमूर्ति रंजन गोगोई पर लगे आरोपों की सत्यता जांचने की पूरी प्रक्रिया को लेकर जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं वे लोकतंत्र के इस मजबूत स्तंभ के खराब होते जा रहे स्वास्थ को बयां करती हैं। रंजन गोगोई के साथ प्रेस काॅन्फ्रेंस में शामिल हुए न्यायमूर्ति मदन लोकुर का एक आलेख भारतीय न्यायपालिका की वर्तमान दशा और दिशा को साफ कर देता है। ‘दि वायर’ में प्रकाशित इस आलेख में न्यायमूर्ति लोकुर कहते हैं। ‘उच्चतम न्यायालय के कई निर्णय बहुतों को यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि आखिर चल क्या रहा है? बहुतों को यह लगने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट ऐसों के आगे झुक रही है जिन्हें न्यायालयों की स्वतंत्रता नहीं सुहाती’।
अनुत्तरित प्रश्न बहुत हैं, उत्तर की आशा न होने के चलते मुझे कहना पड़ रहा है। ‘न्याय मर गया है, न्यायाधीश अमर रहें।’

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