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Editorial

गूंगी गुड़िया से तानाशाह बनने तक का सफर

 

अट्ठाइस फरवरी, 1966 को इस विद्रोही सेना ने सरकारी दफ्तरों, बैंकों और सुरक्षा बलों के ठिकानों पर हमला बोल दिया। इस सेना ने जल्द ही एक मुख्य शहर लुंगलेह पर अपना कब्जा कर लिया। यहां तैनात केंद्रीय अर्धसैनिक बल ‘असम राइफल्स’ को पीछे हटना पड़ा। विद्रोहियों का असल निशाना जिला मुख्यालय आइजोल था। 1 मार्च को लालडेंगा के नेतृत्व में यहां विद्रोही सेना ने धावा बोल सरकारी खजाने को लूटने के साथ-साथ सरकारी शस्त्रागार को भी अपने कब्जे में ले डाला। सभी प्रकार की संचार व्यवस्था को ठप्प कर दिया गया ताकि भारत सरकार संग स्थानीय अधिकारी सम्पर्क न कर पाएं। लालडेंगा ने आइजोल में प्रवेश करने के साथ ही मिजो इलाके को स्वतंत्र राष्ट्र बनाए जाने का ऐलान कर दिया। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद सम्भाले हुए अभी मात्र एक माह चार दिन ही हुए थे। उन्होंने मिजो विद्रोहियों को कड़ा और करारा जवाब देने का फैसला लिया। आजाद भारत के इतिहास में यह पहला और अभी तक का एकमात्र उदाहरण है कि भारतीय सेना को भारतीय इलाकों पर भी हवाई हमले करने पड़े। 4 मार्च को वायुसेना के बमवर्षक विमानों ने आइजोल पर हमला बोल दिया। 6 मार्च की शाम तक थल सेना ने आइजोल को पूरी तरह से विद्रोहियों के कब्जे से छुड़ा लिया। मिजो विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा। 1967 में इंदिरा सरकार ने मिजो नेशनल फ्रंट पर प्रतिबंध लगा दिया था। 1972 में हालांकि मिजो जनता को राहत देते हुए असम से इस क्षेत्र को अलग कर मिजोरम नाम से केंद्र शासित प्रदेश बना यहां शांति बहाल की गई थी।

बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहली विदेश यात्रा अमेरिका के दौरे से हुई। खाद्यान्न संकट लगातार बढ़ रहा था और पाकिस्तान संग युद्ध के दौरान दोनों देशों को दबाव में लेने की नियत से अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान को दी जाने वाली हर प्रकार की मदद रोक दी थी। इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन संग अपनी बैठक में भारत के खाद्यान्न संकट का मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाते हुए अमेरिका द्वारा भेजी जाने वाली मदद को तत्काल शुरू करने का आग्रह किया। अमेरिका ने भारतीय प्रधानमंत्री की आवभगत में तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन वियतनाम के प्रति भारत सरकार की नीति से नाराज राष्ट्रपति ने अमेरिकी मदद के एवज में भारत को विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सलाह अनुसार आर्थिक सुधार करने के लिए भारी दबाव बनाया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने हालांकि इंदिरा गांधी की मदद करने के लिए 30 लाख टन खाद्यान्न और 90 लाख अमेरिकी डॉलर की सहायता दिए जाने का ऐलान कर भारतीय प्रधानमंत्री की पहली अमेरिकी यात्रा को सफल बना डाला। इंदिरा आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी होने के साथ-साथ विदेशी मामलों की अच्छी जानकार भी थीं। अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के संग विदेश यात्राओं में शामिल रहने के चलते उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीतिज्ञों संग बातचीत का तरीका और सलीका बखूबी पता था। अमेरिका की यात्रा पर जाते समय वह पेरिस में फ्रांसीसी राष्ट्रपति संग मुलाकात करने के लिए रुकी थीं। राष्ट्रपति चार्ल्स आंद्रे डी गॉल को धुआंधार फ्रेंच में संवाद कर उन्होंने मोह लिया था। राष्ट्रपति डी गॉल महिला राजनेताओं पर आसानी से भरोसा नहीं करते थे। इंदिरा संग बातचीत के बाद लेकिन उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री की प्रशंसा के पुल बांध डाले-‘I do not think they have it in them, but your Prime Minister is a woman of amazing strength. She has some thing. She will make it.’ (मुझे नहीं लगता कि इनमें (महिलाओं में) वह बात होती है। आपकी प्रधानमंत्री लेकिन अद्भुत शक्तिवाली महिला हैं। उनके पास कुछ है-वह सफल होंगी)

इंदिरा गांधी की जिस ‘अद्भुत शक्ति’ को फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने पहली ही मुलाकात में भांप लिया था, नेहरू के साथियों को उसे समझने में काफी समय लगा और जब तक वह उसे पहचान पाए तब तक खासी देर हो चुकी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी संसद में बोलने के लिए खड़ी होती थीं तो विपक्षी दलों के नेता उन्हें अपने निशाने पर रख बार-बार टोका-टाकी कर उनके आत्मविश्वास को कमजोर करने का काम करते थे। नेहरू के कभी बेहद करीबी और बाद में उनके घनघोर आलोचक बने समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने तो संसद में इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ तक कह डाला था। अमेरिका की सफल यात्रा से उत्साहित प्रधानमंत्री ने कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज से सलाह किए बगैर ही भारतीय रुपए का अवमूल्यन कर दिया। उनके इस कदम का विपक्षी दलों के साथ-साथ कांग्रेस भीतर भी भारी विरोध किया गया। कभी इंदिरा और फिरोज गांधी के राजनीतिक गुरु और लंदन में संरक्षक रहे वीके कृष्ण मेनन ने प्रधानमंत्री पर अमेरिका के अत्यधिक प्रभाव में आने तक का आरोप लगा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के .कामराज और उनके करीबी अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने शास्त्री का उत्तराधिकारी चुनते समय मोरारजी देसाई के बजाए इंदिरा गांधी पर अपना दांव इस आधार पर लगाया था कि अनुभवहीनता और नेहरू समान प्रभावशाली व्यक्तित्व की कमी के चलते वे वरिष्ठ नेताओं के गुट जिसे कांग्रेस भीतर ‘सिंडिकेट’ कह पुकारा जाता था, पर निर्भर रहेंगी। ऐसा लेकिन हुआ नहीं। इंदिरा ने ‘सिंडिकेट’ को पूरी तरह नजरअंदाज कर फैसले लेने शुरू कर दिए। भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन का फैसला एक बड़ा कदम था जिसकी बाबत प्रधानमंत्री ने ‘सिंडिकेट’ संग कोई संवाद करना उचित नहीं समझा। नेहरू के पूर्व सहयोगी इस फैसले से न केवल हत्प्रभ हो उठे बल्कि इंदिरा गांधी के खुले विरोध तक में उतर आए। कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में इस फैसले के खिलाफ प्रस्ताव लाया गया। के ़कामराज तो इस कदर नाराज थे कि उन्होंने अपनी गलती को स्वीकारते हुए तब कहा था-‘A big man’s daughter, a small man’s mistake.'(एक बड़े आदमी की बेटी, एक छोटे आदमी की गलती।)

समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने जिसे ‘गूंगी गुड़िया’ कह पुकारा था और ‘सिंडिकेट’ ने जिसे कमतर समझ प्रधानमंत्री बनाया था। अब वह एक नए रूप में उभरने लगी थीं। नेहरू से ठीक विपरीत उनकी बेटी के भीतर छिपा तानाशाह अब बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगा था। दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री रह चुके गुलजारी लाल नंदा ने जब उन पर नेहरू की नीतियों से हटने का आरोप लगाते हुए कहा कि अगले आम चुनाव बाद वे दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी तो तिलमिलाई इंदिरा ने पलटवार करने में देरी नहीं की। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए पुणे में उन्होंने कहा-‘मुझे न बताएं कि मैं नेहरू की विचारधारा नहीं समझती। हमने साथ काम किया है। मैं उनके हर विचार संग गहराई से जुड़ी हूं। लेकिन मैं खुद को नेहरू की नकलची बतौर नहीं देखती हूं यदि मुझे लगेगा कि देशहित में उनकी नीतियों से अलग हटकर फैसले लेने हैं तो मैं ऐसा करने से हिचकिचाऊंगी नहीं। हमारी आजादी के लिए विदेशी सहायता जरूरी है। मैं आज यह दृढ़ता पूर्वक कहना चाहती हूं कि न कोई देश के भीतर से या बाहर से, मेरे द्वारा चुने गए रास्ते से मुझे हटा सकता है।’
अमेरिकी इच्छानुसार मुद्रा अवमूल्यन के बावजूद राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने भारत को भेजी जा रही खाद्य मदद पर अपना अंकुश बनाए रखा था। इंदिरा गांधी को शायद इसका अंदाजा अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान हो चुका था। इस यात्रा की समाप्ति के दिन उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति से फोन पर बातचीत कर उन्हें भारत की मदद दोबारा शुरू किए जाने के लिए धन्यवाद दिया था। फोन वार्ता समाप्त होने के बाद उन्होंने वहां मौजूद अपने प्रेस सलाहकार एच ़वाई ़प्रसाद से कहा था ‘मैं भविष्य में कभी भी खुद को इस स्थिति में नहीं डालने दूंगी।’ अमेरिकी सरकार द्वारा खाद्यान्न सामग्री भेजने में जानबूझ कर की जा रही देरी से कुपित इंदिरा एक बार फिर से साम्यवादी खेमे की तरफ झुक गईं। उनकी रणनीति ‘सिंडिकेट’ पर अंकुश लगाने के साथ-साथ अमेरिकियों को भी स्पष्ट संकेत देने की रही कि वे उन्हें दबाव में नहीं ले सकते हैं। अमेरिकी सरकार को तगड़ा झटका देते हुए इंदिरा गांधी ने 1 जुलाई, 1966 को एक बयान जारी कर हनोई और हाइफांग (वियतनाम के शहर) में अमेरिकी बमबारी की कड़ी निंदा कर डाली। इतना ही मानो काफी नहीं था, अपनी सोवियत यात्रा के दौरान उन्होंने सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन संग एक संयुक्त बयान जारी कर वियतनाम पर अमेरिकी हमलों की कड़ी निंदा करते हुए उसे ‘अमेरिकी साम्राज्यवादी’ नीति करार दे दिया। इंदिरा का बदला रूप अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए स्तब्धकारी था। लिंडन जॉनसन का मानना था कि अपनी खाद्य समस्या से निपटने के लिए भारत पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर है जिसके चलते वियतनाम के मुद्दे पर वह अमेरिका का साथ देगा। जॉनसन इसी चलते खाद्य सहायता को टुकड़ों में भेज भारत पर दबाव बनाने की रणनीति चल रहे थे। इंदिरा के रुख ने उन्हें हतप्रभ करने का काम किया था। भारत में अमेरिकी राजदूत चेस्टर बाउल ने जब अपने राष्ट्रपति को याद दिलाया कि संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव यू.एन.थांट और पोप भी इस नीति के खिलाफ मुखर हैं तो जॉनसन ने चिड़चिड़ा कर जवाब दिया था कि ‘उन्हें हमारे गेहूं की जरूरत नहीं है।’
इंदिरा अब ‘सिंडिकेट’ के पूरी तरह खिलाफ हो अपने कुछ करीबी सलाहकारों की सलाह पर निर्णय लेने लगीं। इस सलाहकार मंडली को ‘किचन कैबिनेट’ कह पुकारा जाने लगा था। ‘सिंडिकेट’ के नेताओं ने 1967 में होने जा रहे आम चुनाव बाद इंदिरा के बजाए किसी अन्य को प्रधानमंत्री बनाए जाने की योजना पर काम शुरू कर दिया था। वे हर कीमत पर सत्ता में बने रहने वाली ऐसी राजनेता में तब्दील हो चुकी थीं जिसके लिए नेहरू के लोकतांत्रिक मूल्य गौण हो चले थे। ‘सिंडिकेट’ पर पहला आघात करने का मौका एक विपत्ति के रूप में उनके सामने जल्द ही आ गया।
क्रमश:

 

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