पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-27
तिहत्तर बरस के गांधी तब वर्धा स्थित अपने आश्रम में स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। इस प्रस्ताव में ‘अंग्रेजों से तत्काल भारत छोड़ने का आह्नान किया गया था। नेहरू गांधी के इस प्रस्ताव से पूरी तरह सहमत नहीं हुए। उनका मानना था कि यदि कांग्रेस इस विश्व युद्ध में अमेरिका और ब्रिटेन का साथ देती है तो राष्ट्रपति रूजवेल्ट की मदद से युद्ध समाप्ति के तुरंत बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए तैयार किया जा सकता है। इससे यह संकेत मिलता है कि गांधी कांग्रेस से और कांग्रेस गांधी के बताए मार्ग से दूर होने लगी थी। इसी दौरान दो अमेरिकी पत्रकारों संग गांधी की बातचीत से भी यह साफ झलकता है कि महात्मा पाकिस्तान के सवाल पर न केवल पूरी तरह असहमत थे बल्कि जिन्ना द्वारा उन्हें हिंदुवादी नेता कहे जाने से खासे व्यथित भी थे। मुस्लिम लीग द्वारा अलग देश की मांग किए जाने के बावजूद गांधी दोनों समुदायों के मध्य एकता होने का सपना अभी तक देख रहे थे। उन्होंने अमेरिकी पत्रकारों संग अपनी बातचीत में कहा ‘Time is merciless enemy. I have without been asking myself why every whole-hearted attempt made by all including myself to reach unity has failed and failed so completely that I have entirely fallen from grace and amdescribed by some Muslim papers as the greatest enemy of Islam in India. It is a phenomenon I can only account for by the fact that the third power, even without deliberatly wishing it, will not allow real unity to take place. Therefore I have come to the resultant conclusion that the two communities will come together almost immediately after the British power comes to a final end in India’ (वक्त एक बेरहम दुश्मन है। मैं खुद से सवाल करता हूं कि क्योंकर मेरे और बहुत से अन्य लोगों द्वारा पूरे मन से एकता के लिए किए गए प्रयास नाकाम रहे हैं। ये प्रयास इस कदर नाकाम रहे हैं कि मेरी पूरी गरिमा नष्ट हो चली है। कुछ मुस्लिम अखबारों ने तो मुझे इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु तक कह डाला है। मेरा मानना है कि यदि तीसरी ताकत जान-बूझकर कोशिश न भी करे, तब भी हिंदू-मुस्लिम के मध्य सच्ची एकता वह होने नहीं देगी। इसलिए मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ब्रिटिश सत्ता का अंत होने के बाद ही दोनों समुदायों में एकता हो पाएगी।)
गांधी इसके बाद अंग्रेजों से सीधे दो-दो हाथ करने की तैयारी में जुट गए। उन्होंने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दे डाला और इसे एक बड़े आंदोलन का रूप देने के लिए अगस्त, 1942 में उन्होंने कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक बुला ली। बॉम्बे (अब मुंबई) में 8 अगस्त, 1942 के दिन बुलाई गई इस बैठक से ठीक पहले उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अपनी तरफ से एक प्रस्ताव जिन्ना को भेजा, जिसमें उन्होंने जिन्ना को भारत का सर्वेसर्वा बनाए जाने तक की बात कह डाली। गांधी ने लिखा- ‘Provided the Muslim league co-operated fully with the Congress demand for immediate Independence without the slightest reservation… the Congress will have no objection to the British Government transferring all the powers it today exercises to the Muslim league on behalf of the whole of india… And the Congress will not only not obstruct any Government that the Muslim league may form on behalf of the people, but even will join the Government in running the machinary by the free State. This is meant in all seriousness and sincerity’ (यदि मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ पूर्ण सहयोग करते हुए बिना किसी आपत्ति के कांग्रेस द्वारा भारत को तुरंत आजादी दिए जाने की मांग के लिए सहमत हो जाए तो यदि ब्रिटिश सरकार सारे अधिकार मुस्लिम लीग को देती है, कांग्रेस कोई ऐतराज नहीं करेगी। इतना ही नहीं कांग्रेस मुस्लिम लीग की सरकार के कामकाज में कोई अड़चन नहीं डालेगी और उसमें शामिल भी होगी। यह बात पूरी गंभीरता और ईमानदारी से कही जा रही है)। जिन्ना ने गांधी के इस प्रस्ताव को अनदेखा कर दिया। 8 अगस्त, 1942 को अपने बॉम्बे अधिवेशन में अंततः कांग्रेस ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित कर असहयोग आंदोलन की शुरुआत कर डाली। गांधी ने इस मौके पर अपने अनुयायियों को ‘करो या मरो’ का मंत्र देते हुए कहा कि ‘इसे अपने दिल में रखें और इसको हर सांस में जपें। हम या तो आजादी हासिल करेंगे या इसको पाने के लिए अपनी जान दे देंगे।’
ब्रिटिश सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। 9 अगस्त, 1942 की सुबह पांच बजे गांधी को गिरफ्तार कर पूना के आगा खान महल में कैद कर दिया गया। कांग्रेस के अन्य सभी बड़े नेता भी तत्काल हिरासत में ले लिए गए। कांग्रेस के इस आंदोलन को जहां आम भारतीय का अपार समर्थन मिला, वहीं मुस्लिम लीग समेत कई संगठनों ने इसके खिलाफ मुहिम छेड़ ब्रिटिश हुकूमत के साथ वफादार रहने का काम किया। ऐसे संगठनों में विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा, राजे-रजवाड़े, नवाब, कम्युनिस्ट पार्टी आदि शामिल थे। सावरकर, जो 1924 में इसी शर्त पर कालापानी की सजा से माफी पाए थे कि वे ब्रिटिश हुकूमत के वफादार बने रहेंगे, ने तो अपने संगठन के अनुयायियों को एक खुला पत्र लिखकर इस आंदोलन में शामिल न होने की बात तक कह डाली थी। बंगाल प्रांत की सरकार में मंत्री और हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो ब्रिटिश सरकार के साथ इस कदर वफादार थे कि उन्होंने जुलाई, 1942 को बकायदा बंगाल के गवर्नर को लिखित आश्वासन दे डाला कि उनकी सरकार और हिंदू महासभा हर संभव प्रयास करेगी कि यदि कांग्रेस कोई आंदोलन शुरू करती है तो उसे असफल बना दिया जाए। उन्होंने अपने इस पत्र में लिखा ‘The question is how to combat this movement (Quit India) in Bengal? The administration of the province should be carried out on such a manner that in spite of the best efforts of the Congress, this movement will fail to take root in the province’ (प्रश्न यह उठता है कि इस आंदोलन (भारत छोड़ो) को बंगाल में कैसे रोका जाए? प्रांत का प्रशासन कुछ इस प्रकार से चलाया जाना होगा ताकि कांग्रेस के तमाम प्रयास विफल हो सकें और यह आंदोलन बंगाल में अपनी जड़ें न जमा सके)। बीआर अंबेडकर ने इस आंदोलन को अपना समर्थन देने से इंकार करते हुए अपने समर्थकों से आह्नान कर डाला कि ‘सभी भारतीयों के लिए सच्ची देशभक्ति यही है कि वे ‘भारत छोड़ो’ जैसे आंदोलनों में अराजकता फैलाने से रोके क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के आंदोलन हमारे देश को जापान का गुलाम बनाने में मदद करेंगे।’ डॉ. अंबेडकर की जीवनी के लेखक, फ्रेंच राजनीतिक विज्ञानी क्रिस्तोफ जाफ्रसो ने अपनी पुस्तक ‘डॉ अंबेडकर और अस्पृश्यता (Dr. Ambedkar and Untouchability) में लिखते हैं कि ‘वायसराय काउंसिल का सदस्य होने के नाते अंबेडकर दलित उत्थान के हित में बड़े काम करना चाहते थे। शायद गांधी और कांग्रेस के प्रति द्वेष भाव रखने वाले अंबेडकर ने इसी चलते ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से दूरी बनाई।
गांधी और सभी बड़े कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी चलते यह आंदोलन नेतृत्वविहीन हो हिंसक हो गया। ब्रिटिश सरकार ने अपनी पूरी ताकत बलपूर्वक इस आंदोलन के दमन पर झोंक दी।
ब्रिटिश इतिहासकार जॉन.एफ. रीडिक (John.F. Riddick) के अनुसार 9 अगस्त, 1942 से 21 सितंबर, 1942 के दौरान यह आंदोलन सबसे ज्यादा हिंसक रहा। 550 पोस्ट ऑफिस, 250 रेलवे स्टेशन, 70 पुलिस थाने और 85 सरकारी इमारतों को इस दौरान पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। बिहार में आंदोलन का सबसे ज्यादा प्रभाव देखने को मिला, जहां आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 57 पुलिस बटालियन तैनात की थी। पूरा कांग्रेसी नेतृत्व अलग-अलग जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस पार्टी को सरकार ने प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया। एक लाख से अधिक आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी चलते 1944 आते-आते आंदोलन की गति शिथिल पड़ गई। हजारों की संख्या में आंदोलनकारी ब्रिटिश पुलिस के हाथो मारे गए। आंदोलन की व्यापकता से घबराई ब्रिटिश सरकार ने गांधी समेत कांग्रेस के सभी नेताओं को भारत से बाहर, दक्षिण अफ्रीका अथवा यमन भेजने तक की तैयारी कर ली थी लेकिन आंदोलन के ज्यादा हिंसक होने की आशंका चलते इस योजना को अमल में नहीं लाया गया। तीन बरस तक महात्मा और अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी जेल में कैद रहे। इसी दौरान कस्तूरबा गांधी और महात्मा के निजी सचिव महादेव देसाई की लंबी बीमारी बाद जेल में ही मृत्यु हो गई थी। महादेव देसाई और कस्तूरबा महात्मा गांधी के साथ ही आगा खान पैलेस, पुणे में गिरफ्तारी काट रहे थे। 15 अगस्त, 1942 को हृदयगति रूक जाने से देसाई की मृत्यु हो गई थी। कस्तूरबा जेल में लंबे अर्से तक बीमार रहीं। 22 फरवरी, 1944 को उनकी इसी जेल में मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु के बाद महात्मा के स्वास्थ में भारी गिरावट आनी शुरू हुई। इस बीच वायसराय लिनलिथगो का कार्यकाल समाप्त होने के बाद अक्टूबर, 1943 में फील्ड मॉर्शल आर्चीबाल्ड वैवेल भारत के नए वायसराय बन चुके थे। वैवल 1941 से वायसराय बनने तक भारत में ब्रिटिश सेना के मुखिया थे। वैवेल गांधी संग वार्ता करने के इच्छुक थे। वायसराय बनते ही उन्होंने चर्चिल कैबिनेट पर महात्मा की बगैर शर्त रिहाई के लिए जोर बनाना शुरू कर दिया। भारत मामलों के मंत्री लॉर्ड लियोपाल्ड एमरी को उन्होंने एक पत्र लिखा कि यदि गांधी की जेल में मृत्यु हो जाती है तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि स्वास्थ्य कारणों के चलते गांधी अब राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं रह पाएंगे। चर्चिल ने अपने वायसराय के इस पत्र को आधार बना महात्मा को बगैर शर्त रिहा करने की हामी भर दी। गांधी 5 मई, 1944 को आगा खान पैलेस की कैद से आजाद कर दिए गए। वैवल लेकिन गांधी के चरित्र और अपने लक्ष्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को समझने में भारी चूक कर बैठे। आजाद होते ही गांधी एक बार फिर से पूरी ताकत और शिद्दत के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए। जिन्ना के जीवनीकार स्टेनले वालपर्ट ने अपनी पुस्तक ‘जिन्नाह ऑफ पाकिस्तान’ में इस बाबत एक रोचक बात लिखी है। महात्मा की जेल से रिहाई के बाद राजनीतिक गतिविधियों पर लॉर्ड एमरी ने वायसराय वैवेल को ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि लॉर्ड बायरन के उस कथन की याद दिलाई जिसमें लॉर्ड बायरन ने अपनी सास के स्वास्थ्य का उपहास उड़ाया था। एमरी ने लिखा ‘Byran said my mother in law has been dangerously ill, She is now dangerously well’. I can only hope that this is not going to be true of our old friend Gandhi’ (बायरन ने कहा था मेरी सास खतरनाक रूप से बीमार थी, अब वह खतरनाक रूप से स्वस्थ हैं। मैं उम्मीद करता हूं कुछ ऐसा ही हमारे पुराने मित्र गांधी के साथ न हो।)