पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-38
गांधी एक बार फिर से असहयोग आंदोलन शुरू करने की बात करने लगे। नेहरू ने इस मुद्दे पर अपनी असहमति दर्ज कराई जिसके फलस्वरूप गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का फैसला लिया और अपने शिष्य आचार्य विनोबा भावे को इसके लिए आगे कर दिया। भावे को गिरफ्तार कर लिया गया। नेहरू ने इस प्रकार का कठोर कदम उठाने के लिए समय को प्रतिकूल मानते हुए महात्मा से आग्रह किया था कि वे कुछ अर्से तक इस प्रकार के आंदोलन को स्थगित रखें। कांग्रेस भीतर बड़े नेताओं के मध्य आंतरिक रार-तकरार इस समय अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। सुभाष चंद्र बोस को किनारे लगाया जा चुका था और द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग न करने के फैसले से नाराज चक्रवर्ती राजगोपालाचारी बागी रूख अपना चुके थे। कांग्रेस के आंतरिक मतभेदों से व्यथित महात्मा गांधी ने नेहरू संग अपने अंतर्विरोधों को एक झटके में समाप्त करने के उद्देश्य से 25 जनवरी, 1942 को हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में जो कहा वह काबिल-ए- गौर है। गांधी ने इस बैठक में पहली बार अपना राजनीतिक वारिस जवाहरलाल को घोषित कर डाला। उन्होंने कहा ‘…Do not please go away with the idea that there is rift in the Congress Lute. As Maulana saheb has said, the working commitee has functioned like members of a happy family. Somebody suggested that Pandit Jawahar and I were estranged. This is baseless. Jawahar Lal has been resisting me ever since he fell in to my net. You can not divide water by repeatedly striking it with a stick. It is just as difficult to divide us. I have always said that not Raja ji, nor Sardar Vallabhbhai, but Jawaharlal with be my successor. He says whatever is uppermost in his mind but he always does what I want. When I am gone he will do what I am doing now. Then he will speak my Language too. After all he was born in this land. Everyday he learns some new thing. He fights with me because. I am there. Whom will he fight when I am gone? And who will suffer his fightings? Ultimately, he will have to speak my language. Even if this does not happen, I would atleast die with this faith’ (कृपया इस विचार के साथ मत जाइए कि कांग्रेस की वीणा में कोई बेसुर है। जैसा मौलाना साहब ने कहा कांग्रेस कार्य समिति एक सुखी परिवार की तरह काम करती है। किसी ने सुझाया है कि मेरे और जवाहरलाल के मध्य तनावपूर्ण रिश्ते हैं। यह पूरी तरह आधारहीन है। जवाहरलाल तब से मेरा विरोध कर रहे हैं जब वे मेरे संपर्क में आए थे। जैसे आप पानी को लाठी मार-मार कर विभाजित नहीं कर सकते वैसे ही आप हम दोनों को अलग नहीं कर पाएंगे। मैंने हमेशा से कहा है कि न तो राजा जी, न सरदार वल्लभ भाई मेरे वारिस बनेंगे। जवाहरलाल ही मेरे वारिस हैं। वह वही कहते हैं जो उनके दिमाग में होता है लेकिन करते वह वहीं हैं जो मैं चाहता हूं। जब मैं नहीं रहूंगा तब जवाहर वही करेंगे जो अभी मैं कर रहा हूं। प्रत्येक दिन वे एक नई चीज सीखते हैं। वह मुझसे झगड़ते हैं क्योंकि मैं अभी हूं। तब किससे झगड़ेंगे जब मैं नहीं रहूंगा? अंततः वह मेरी ही भाषा बोलेंगे। यदि ऐसा नहीं भी हुआ तब भी मैं इसी विश्वास के साथ मरूंगा) महात्मा का यह कथन जवाहरलाल नेहरू के प्रति उनके असीम प्रेम को दर्शाता है। नेहरू ‘भारत छोड़ों आंदोलन’ के दौरान गिरफ्तार कर लिए गए थे। उन्हें सरदार पटेल और अन्य नेताओं के साथ अहमदनगर फोर्ट, गुजरात में कैद रखा गया जहां उन्होंने अपनी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘भारत एक खोज’ (Discovery of India) लिखी। गांधी द्वारा नेहरू को अपना राजनीतिक वारिस घोषित किए जाने बाद ही यह तय हो गया था कि अंतरिम/कामचलाऊ सरकार का नेतृत्व नेहरू ही करेंगे और आजादी पश्चात् वे ही देश की कमान संभालेंगे। ठीक ऐसा ही हुआ भी। ‘कामचलाऊ’ सरकार भी नेहरू के ही नेतृत्व में बनी और आजादी बाद पहली सरकार की कमान भी नेहरू के हाथों ही रही।
16 अगस्त, 1947 की सुबह आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने प्रातः लाल किले की प्राचीर पर पहली बार राष्ट्रीय ध्वज लहराया था। इस अवसर पर देशवासियों को संबोधित करते हुए नेहरू ने कहा ‘The free flag of India is the symbol of freedom and democracy not only for India but for the whole world…we had taken a pledge that we shall lay down lives for the honour and dignity of this flag… under the brilliant leadership and guidance of Mahatama Gandhi…if credit is due to any man today it is to Gandhi Ji’ (भारत का यह झंडा केवल भारत के लिए नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए आजादी और लोकतंत्र का प्रतीक है …हमने शपथ ली है कि इस झंडे की शान और सम्मान के लिए हम अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे। आज के दिन के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को इसका श्रेय जाता है तो वे हैं गांधी जी)। नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के गठन से ही यह साबित कर दिया कि वे बगैर किसी पूर्वांग्रह निजी मतभेदों को दरकिनार कर ऐसों को साथ लेकर नए भारत की बुलंद नींव रखना चाहते हैं जो भले ही उनके घोर विरोधी रहे हों लेकिन जिनकी सेवाओं और कौशल की जरूरत नए भारत की है। डॉ़. बी .आर . अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी सोच के तहत नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य बनाए गए। आधी रात को मिली आजादी अपने साथ नए भारत की आशाओं से कहीं ज्यादा आशंकाओं को लेकर आई जिनसे निपट पाना नेहरू और उनके साथियों के लिए बेहद संघर्षमय और कष्टदायक होना इस आधी रात से ही तय हो चुका था। नई सरकार के सामने एक नहीं अनेकों समस्याएं सुरसा के मुख समान सामने खड़ी थीं। इनमें सबसे ज्वलंत थी विभाजन चलते पैदा हुई साम्प्रदायिक स्थिति, राजे-रजवाड़ों का भारतीय संघ में विलय और जम्मू-कश्मीर के महाराजा की एक स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की जिद। रेडक्लिफ कमीशन की रिपोर्ट सामने आने के साथ ही पंजाब और बंगाल में भारी साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए थे जिसकी चपेट में दिल्ली तक आ गया था। बंगाल में शांति स्थापित करने में सफल रहे गांधी 7 सितंबर, 1947 को पंजाब जाने का इरादा कर जब दिल्ली पहुंचे तो उन्होंने पाया कि राजधानी पूरी तरह दंगों की चपेट में आ चुकी है। मुसलमानों के घर और धर्म स्थल भारी हिंसा के शिकार हो चुके थे और भयभीत मुसलमानों ने पुराना किला और हुमायूं के मकबरे के आस-पास शरण ले ली थी। गांधी ने पंजाब जाने का इरादा त्याग पहले दिल्ली में हालात सुधारने का निर्णय लिया। वे प्रत्येक दिन शरणार्थी कैंपों, अस्पतालों और दंगा ग्रस्त इलाकों का दौरा करते और शाम को बिड़ला भवन में अपने अनुयायियों को सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए संबोधित करते। गांधी की अपील का कोई खास प्रभाव पाकिस्तान छोड़ भारत आए सिख और हिंदू शरणार्थियों पर नहीं पड़ा। उल्टे गांधी को उनके मुस्लिम- प्रेम के लिए निशाने पर लिया जाने लगा। बिड़ला भवन में आयोजित की जाने वाली उनकी सभाओं में सभी धर्मों का पाठ किया जाता था जिसका विरोध किया जाने लगा।
नवगठित सरकार एक तरफ विभाजन चलते पैदा हुई विभीषिका से जूझ रही थी तो दूसरी तरफ उसके सामने कश्मीर एक बड़ी मुसीबत बनते जा रहा था। जम्मू और कश्मीर रियासत उन चंद राजे-रजवाड़ों में शामिल थी जो 15 अगस्त 1947 तक भारत अथवा पाकिस्तान में शामिल नहीं हुए थे। ऐसी रियासतों में शामिल जूनागढ़ और हैदराबाद का मसला निपटाने का श्रेय नेहरू मंत्रिमंडल में उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके करीबी नौकरशाह वी.पी.मेनन को जाता है। पटेल-मेनन जोड़ी की कूटनीति चलते आजादी मिलने के दिन आने तक अधिकांश रियासतें और रजवाड़े भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार कर लिए गए थे। ब्रिटिश भारत में लगभग 700 ऐसे राजे-रजवाड़े थे जिनकी नकेल तो अंग्रेजों के हाथों में थी लेकिन वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए थे। विभाजन की घोषणा के बाद इनमें से 565 भारत तो बकाया पाकिस्तान के हिस्से वाले भूभाग में चले गए। इन 565 राजे -रजवाड़ों का भारत संघ में शामिल होना एक अलग महागाथा है जिसे अंजाम तक पहुंचाने में वी.पी. मेनन का खास योगदान रहा है। मेनन ने अपनी पुस्तक ‘Integration of Indian States’ में बहुत रोचक तरीके से इस महागाथा को बयान किया है। ऐसे राजे-रजवाड़ों और रियासतों की बाबत मेनन अपनी पुस्तक में लिखते हैं ‘देसी रियासत शब्द का अर्थ उन लगभग 700 शासकों से था जिनकी अलग- अलग विशेषताएं थीं। कुछ रियासतें पूरी तरह स्वतंत्र थी तो कुछ पर भारत सरकार का आंतरिक दखल बहुत ज्यादा था। इन रियासतों में तो कई मात्र कुछ एकड़ भूमि वाले जमींदार भी शामिल थे।’ मेनन लॉर्ड माउंटबेटन के सलाहकार थे। उन्होंने तय किया था कि आजादी पश्चात् सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति ले लेंगे लेकिन सरदार पटेल के अनुरोध पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और नवगठित सरकार में राज्य प्रशासन विभाग के सचिव बने। मेनन ने अपनी पुस्तक में विस्तार से इन ‘देसी रियासतों’ को भारतीय संघ में शामिल कराए जाने की कवायद का वर्णन किया है। जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर की बाबत उनका लिखा विशेष महत्व का है। इन तीन देसी रियासतों के चलते नवगठित सरकार भारी दबाव में थी। नेहरू दिनोंदिन गहरा रहे साम्प्रदायिक तनाव के साथ-साथ कश्मीर को लेकर खासकर गहरे तनाव में थे। अपने पैतृक राज्य को वह किसी भी कीमत में खोना नहीं चाहते थे। सरदार पटेल कुछ ऐसा ही भावनात्मक लगाव अपने पैतृक क्षेत्र कठियावाड़ के लिए रखते थे। जूनागढ़, कठियावाड़ प्रायद्वीप की एक रियासत थी। कठियावाड़ पश्चिमी भारत का वह क्षेत्र है जिनके उत्तर में कच्छ की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण-पश्चिम में खंभ की खाड़ी है। जूनागढ़ हिंदू बाहुल्य था लेकिन वहां की सत्ता नवाब के हाथों में थी। आजादी के समय वहां का नवाब महाबत खान था जिसे शासन व्यवस्था से कहीं अधिक अपनी अजीबो-गरीब आदतों के लिए जाना जाता था।
क्रमशः