मेरी बात
आदरणीय हरीश रावत जी,
बाईस बरस का उत्तराखण्ड पिचहत्तर बरस के भारत के डीएनए से बना प्रदेश है, इसलिए उसमें वशांनुगत सभी खूबियों और खामियों का होना स्वभाविक है। आजादी के बाद से जिस प्रकार हमारी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था का नैतिक क्षरण हुआ, उससे भला उत्तराखण्ड कैसे अछूता रह सकता था? नतीजा हम सबके सामने है। दशकों के संघर्ष बाद बने प्रदेश में नख से शिख तक भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन बाईस बरसों के दौरान सरकार चाहे भाजपा की रही हो या फिर आपकी पार्टी कांग्रेस की, इस भ्रष्टाचार को हरेक का संरक्षण रहा। ऐसे में सरकारी पदों में नियुक्तियों का फर्जीवाड़ा सामने आने बाद आपने जो स्टैंड लिया है, उसने मेरे मन में कई सवालों को जन्म दे दिया है। आपने इस विषय पर सोशल मीडिया में कई पोस्ट लिखी हैं जिनमें आप क्रिश्चियन धर्म की पुस्तक बाइबिल में वर्णित ‘Holier-than thou’ समान स्वयं को रखने का प्रयास करते मुझे नजर आते हैं। बाइबिल में लिखा है कि पैगंबर यशायाह के समय में एक व्यक्ति ने यह कहा कि ‘Stand by thyself, come not near me, for I am holier than thou’ अर्थात् मेरे से दूर रहो क्योंकि मैं तुमसे ज्यादा पवित्र हूं। उत्तराखण्ड विधानसभा में गत् बाईस वर्षों के दौरान विधानसभा अध्यक्ष रहे सभी माननीयों द्वारा अपने नाते-रिश्तेदारों को सरकारी सेवा में लिए जाने के (कु) कृत्यों पर आपके विचारों को पढ़ मुझे ऐसा महसूस हुआ कि आप इस मुद्दे पर सीधे-सीधे कुछ कहने से बच रहे हैं, ताकि आपके मुख्यमंत्रित्वकाल में विधानसभा अध्यक्ष रहे आपके बेहद करीबी श्री गोविंद सिंह कुंजवाल के उन फैसलों को भी नैतिक ठहराया जा सके जो किसी भी दृष्टि से नैतिक नहीं हैं।
आपने राज्य के अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में भारी पैमाने पर हुए फर्जीवाड़े को लेकर भी आयोग के अध्यक्ष एस ़ राजू का बचाव करने संबंधी पोस्ट डाली है। मैं सिलसिलेवार आपकी सोशल मीडिया में डाली गई कुछ पोस्ट के जरिए भर्ती घोटाले पर आपके मनोभावों को समझने और अपनी समझ अनुसार आपकी समझ को आपके समक्ष रखना चाहता हूं। 7 अगस्त को अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष श्री एस ़राजू के इस्तीफे पर आपने एक तरह से खेद व्यक्त करते हुए लिखा-‘एक बहुत ही कर्मठ, नियमों का पालन करने वाले, ईमानदार अधिकारी श्री रुएस राजू। आपने अधीनस्थ सेवा चयन आयोग को व्यवस्थित स्वरूप देने का प्रयास किया। राज्य में प्रभावी माफिया संस्कृति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जिनमें एक सवाल आयोग पर भी उठा है। हमें गहरा दुःख है कि उत्तराखण्ड श्री एस राजू जैसे कर्मनिष्ठ अधिकारी की प्रतिष्ठा की रक्षा नहीं कर पाया। आपको सेवा काल के बीच में ही त्याग पत्र देना पड़ा, मगर अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में आपके समय में किए गए संस्थागत बदलावों को राज्य हमेशा याद रखेगा।’ इस पोस्ट से ऐसा आभास मिलता है कि आप श्री राजू को इस पूरे प्रकरण में दोष मुक्त कर रहे हैं। रावत जी यह बात कतई गले नहीं उतरती कि जिस आयोग की देख-रेख में तमाम नौकरियों के लिए सही मापदंडों के आधार पर सिलेक्शन कराए जाने की जिम्मेदारी है, आप उसी के अध्यक्ष को भारी घोटाले के बावजूद क्लीन चिट दे रहे हैं। श्री राजू के कार्यकाल के दौरान ही तमाम प्रकार की धांधलियां होने की बात सामने आई है। यदि श्री राजू कतिपय दबावों के चलते अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर पा रहे थे तो उन्हें समय रहते अपने पद से त्याग पत्र दे देना चाहिए था और स्वयं आगे बढ़कर इस पूरे गोरखधंधे का पर्दाफाश कर देना चाहिए था। लेकिन वह तो गांधी जी के तीन बंदरों की भांति बुरा न देखो, बुरा न कहो और बुरा न सुनो की तर्ज पर अपने पद पर जमे रहे और जब घोटाला सार्वजनिक हो गया तो ‘उच्च नैतिक’ मूल्यों की बात करते हुए उन्होंने त्यागपत्र दे डाला। यह कैसी अजीबो-गरीब ‘नैतिकता’ है? और क्योंकर आप इस ‘नैतिकता’ का समर्थन करते नजर आ रहे हैं? 16 अगस्त के दिन आपने अपनी एक पोस्ट लिखी- ‘#STF, भर्ती घोटाले में परत दर परत खोलती जा रही है। हाकम सिंह की गिरफ्तारी यह बताने के लिए काफी है कि कितना गहरा है यह अपराध! शाबास STF निर्भीक होकर अपने कदम बढ़ाते रहो। उत्तराखण्ड के प्रबुद्ध समाज को विचार करना चाहिए कि ‘आधी रोटी खोला अपनु राज्य बनोला’ के हृदयस्पर्शी नारे को हमने विस्मृत कर दिया और हाकम सिंह संस्कृति अब हमारी पहचान बन रही है।’ रावत जी शायद अब तक आपको आभास नहीं था कि शीघ्र ही इस घोटाले के बाद उत्तराखण्ड विधानसभा में बीते 22 वर्षों के दौरान हुए घोटालों का जिन्न भी बोतल से बाहर निकल आएगा। यदि आपको पता होता तो शायद आप ‘आधी रोटी खोला अपनु राज्य बनोला’ का जिक्र करते हुए इस नारे को विस्मृत किए जाने की बात न करते। विधानसभा भर्ती घोटाले की जद में आपके बेहद करीबी मित्र और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल का नाम सामने आते ही आप डिफेंसिव मोड में चले गए। विधानसभा भर्ती घोटाले पर आपकी पार्टी के शीर्ष नेता श्री राहुल गांधी ने जैसे ही बजरिए सोशल मीडिया टिप्पणी करी आपकी चिंताओं में भारी इजाफा हो गया। राहुल गांधी ने जब अपनी पोस्ट में लिखा- ‘उत्तराखण्ड में नौकरी माफिया का बोलबाला है। पटवारी, लेखपाल, पुलिस कांस्टेबल, फॉरेस्ट गार्ड और अन्य कई पदों पर नौकरी पाने के लिए लोग जी-तोड़ मेहनत करते हैं। लेकिन भाजपा सरकार में गरीब और मध्यम वर्ग के हिस्से की नौकरी पैसा लेकर अमीरों और सरकार के करीबी लोगों को बेची जा रही है। नौकरियों में भ्रष्टाचार उत्तराखण्ड की विधानसभा तक आ पहुंचा है। भर्ती पर भर्ती, परीक्षा पर परीक्षा रद्द हो रही हैं और मुख्यमंत्री सिर्फ जांच का आदेश देकर अपनी नाकामी से पल्ला झाड़ रहे हैं। रोजगार की आस में बैठे युवाओं के सपनों से खेलने वालों पर आखिर कार्रवाई कब होगी? ऐसी नाकाम सरकार पद पर बने रहने का अधिकार खो चुकी है। भर्तियों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस लड़ती रहेगी।’ तब शायद उन्हें भी इल्हाम नहीं रहा होगा कि भर्तियों में जिस भ्रष्टाचार की बात कह वह भाजपा पर निशाना साध रहे हैं और इस भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस के लड़ते रहने की बात कह रहे हैं, उसमें कांग्रेस भी उतनी ही गुनहगार है जितनी भाजपा को वे साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। अपने शीर्ष नेता की कठोर टिप्पणी बाद आप कुंजवाल जी के पक्ष में मैदान में उतर ऐसे-ऐसे तर्क देने लगे जिन्हें कुतर्क कह पुकारा जाना सही होगा। आपने लिखा- ‘रुभराडीसैंण में विधानसभा सचिवालय चुनाव से पहले संचालित करने की चाह में जब मैंने 150 पदों को तदर्थ रूप से भरने की स्वीकृति दी तो मैंने श्री कुंजवाल जी से कहा था, उस समय उनके विधानसभा सचिव और अन्य कुछ अधिकारी भी थे कि मैं आपको आग में झोंक रहा हूं। उत्तराखण्ड में सरकारी नौकरियों का प्रश्न हमेशा संवेदनशील बना रहेगा और हर कोई नेता से अपेक्षा करता है कि वह उसके बेटे की नौकरी लगाए। चाहे उसे कुछ भी करना पड़े और मुझे यह स्मरण है कि मेरे कार्यकाल के दौरान अंतिम दिनों में केवल 2 लोगों की शिकायतें लेकर के लोग मेरे पास आते थे, कांग्रेस के नेतागण, विधायकगण, एक व्यक्ति का तो मैं नाम नहीं लूंगा, लेकिन दूसरे विधानसभा के अध्यक्ष जी थे और उनसे हर व्यक्ति यह अपेक्षा करता था, चाहे वह पक्ष का हो या विपक्ष का हो कि उसके खास व्यक्ति को नौकरी पर लगा दे। क्योंकि उसके लिए उस व्यक्ति के ऊपर भी बहुत दबाव होता है। मैं, कुंजवाल जी से कहना चाहता हूं आपने कर्म किया है और आपको यह खुशी होनी चाहिए कि आपने दो निर्णय लिए, एक तदर्थ नियुक्तियों का और दूसरा दल-बदल के खिलाफ, दोनों को माननीय उच्च और उच्चतम न्यायालय ने सही ठहराया, बिना किसी विधिक पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति के निर्णयों को माननीय हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सही ठहरा दे तो यह बड़ी बात है, आप अपने निर्णयों के उज्ज्वल पक्ष को देखिए। आलोचना से विचलित न होइए। इस राज्य में बहुत सारी शक्तियां जो मेरी सरकार का पटाक्षेप चाहती थीं, दल-बदल के खिलाफ आपका त्वरित निर्णय उनको बहुत अखरा था, मौके की तलाश में लोगों को कुछ बहाना मिल गया। ग्लानि तो तब होती है, जब किसी गरीब से मोल-भाव कर उससे सेवा की कीमत वसूली जाती है।’
कमाल है रावत जी, सही में कमाल, नहीं बेहद दुखद है कि आप कुंजवाल जी को बचाने के लिए उनके द्वारा अपने परिजनां को नौकरी दिए जाने तक को, लचर तर्क दे सही साबित करने का प्रयास करने लगे हैं। कुंजवाल जी द्वारा की गई तदर्थ नियुक्तियों को सुप्रीम कोर्ट ने भले ही जायज ठहराया हो लेकिन कोर्ट ने तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अपने ही परिजनों को नौकरी दिए जाने को तो सही नहीं ठहराया होगा। कोर्ट ने तो उनकी इस विषयक शक्तियों बाबत अपनी व्यवस्था दी होगी। आप शब्दों के बाजीगर हैं। आप ऐसा प्रस्तुत कर रहे हैं कि देश की शीर्ष न्यायपीठ इन नियुक्तियों को जायज ठहरा चुकी है और केवल और केवल आपको टारगेट करने के उद्देश्य से कुंजवाल जी को निशाने पर लिया जा रहा है। आपके कथन में कुछ हद तक सच्चाई हो सकती है लेकिन श्री गोविंद सिंह कुंजवाल ने घोर अनैतिक काम किया, यह भी स्वीकारने का साहस आपमें होना चाहिए। आप कह रहे हैं कि उन्हें ‘अपने निर्णयों के उज्ज्वल पक्ष’ को ही देखना चाहिए। क्या आप यह कहना चाहते हैं कि उन्होंने अपने निकटतम परिजनों को तमाम नियम-कानून ताक में रखकर नौकरी दे उचित किया है? यदि ऐसा है तो माफ कीजिएगा रावत जी आप भ्रष्टाचार को शिष्टाचार में बदलने की नई इबारत लिख रहे हैं जिसके लिए इतिहास आपको माफ नहीं करेगा।
आदरणीय रावत जी मेरी और आपकी निकटता और मित्रता जगजाहिर है। मैं उत्तराखण्ड की बाबत आपके विचारों का घोर प्रशंसक रहा हूं और मेरा हमेशा से मानना रहा कि वर्तमान में आप अकेले ऐसे राजनेता हैं जो हमारे पर्वतीय प्रदेश का कायाकल्प करने की क्षमता रखते हैं। लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि जब आपको ऐसा करने का मौका 2014 में मिला तब आप अपनी ही कमजोरियों चलते मछली की आंख भेद पाने में विफल रहे। आप ही तो तब मुख्यमंत्री थे जब राज्य के कैबिनेट ने गुपचुप तरीके से रुढैंचा बीच घोटाले की जांच हेतु बने त्रिपाठी आयोग की रिपोर्ट को सिरे से खारिज करते हुए श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को सभी आरोपों से मुक्त करने का निर्णय लिया था। रावत जी यदि आप सही में राज्य के बेरोजगारों के हितों की रक्षा करना चाहते हैं तो शुद्ध अंतःकरण से आत्मचिंतन करते हुए ऐसी सभी नियुक्तियों को तत्काल प्रभाव से रद्द करने और इन नियुक्ति धारकों को दिए गए वेतन इत्यादि की भरपाई उन राजनेताओं, जिनमें आपके मित्र कुंजवाल जी भी शामिल हैं, से करवाए जाने की न केवल मांग करें बल्कि राज्य भर का दौरा कर इन मांगों को मनवाने के लिए जनआंदोलन की शुरुआत करें, तभी रसातल में पहुंच चुके उत्तराखण्ड के उबरने की राह बन सकेगी। अन्यथा आप भी इतिहास के पन्नों में ऐसे राजपुरुष के रूप में दर्ज किए जाएंगे जिसकी कथनी-करनी में जमीन-आसमान का फर्क था।
सादर आपका