पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-69
वर्ष 1957 में हुए दूसरे आम चुनावों में केंद्र की सत्ता पर तो कांग्रेस भारी बहुमत के साथ दोबारा काबिज हुई थी लेकिन केरल विधानसभा में उसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा था। आजाद भारत में वामपंथी दलों को पहली बार सरकार बनाने का मौका मिला और कांग्रेस की जड़ें राज्य में बुरी तरह कमजोर हो गईं। वामपंथी सरकार की कमान ईएमएस नम्बूदिरीपाद के हाथों में थी। बतौर मुख्यमंत्री नम्बूदिरीपाद ने व्यापक स्तर पर सुधारवादी कार्यक्रम शुरू किए जिनकी जद में राज्य के बड़े जमींदार और पूंजीपति थे। जमींदारी उन्मूलन कानून को नम्बूदिरीपाद सरकार ने अमली जामा पहना जहां एक तरफ जमींदारों के मध्य भारी हाहाकार पैदा करने का काम किया तो दूसरी तरह राज्य में गहरी जड़ें जमा चुके निजी शिक्षण संस्थाओं पर नकेल कस धार्मिक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे इस तंत्र को ध्वस्त करने का बड़ा कदम उठा इस प्रभावशाली तबके की नाराजगी भी मोल ली। नम्बूदिरीपाद सरकार के खिलाफ चर्च, मुस्लिम लीग और केरल के धनाढ्य नायर समाज ने एकजुट हो मोर्चा खोल दिया। बतौर कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी का एक अलग ही रूप इस मुद्दे पर उभर कर सामने आता है। वामपंथी सरकार को अस्थिर करने के लिए उन्होंने साम्प्रदायिक ताकतों संग गठजोड़ तक करने से गुरेज नहीं किया। उनके इस रुख की आलोचना उनके पति और कांग्रेस सांसद फिरोज गांधी ने बेहद कड़े और कटु शब्दों में करते हुए कहा था- ‘कांग्रेस के सिद्धांत कहां गायब हो गए हैं?…क्या कांग्रेस का स्तर इतना गिर गया है कि हमें साम्प्रदायिक और जातिवादी ताकतों के कहे अनुसार चलना होगा?….केरल में कांग्रेस ने अपने पतन की पटकथा लिख दी है।’ इंदिरा लेकिन किसी प्रकार की आलोचना के समक्ष झुकीं नहीं और अंततः उनके भारी दबाव में आए नेहरू ने जुलाई, 1959 में नम्बूदिरीपाद सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इतिहासकारों और राजनीति विश्लेषकों की दृष्टि में इंदिरा गांधी के चरित्र में तानाशाही का यह पहला उदाहरण था। आने वाले समय में लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वाली इंदिरा का एक तानाशाह में बदलना इस विश्लेषण की पुष्टि करता है। केरल सरकार की बर्खास्तगी को नेहरू की बड़ी भूल बतौर भी याद किया जाता है। पूरे विश्व में लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी गई पहली वामपंथी सरकार के पतन की पटकथा में एक अदृश्य हाथ होने की भी बात भी कही जाती है। यह अदृश्य हाथ अमेरिका का था। कहा जाता है कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डेविड आइजनहावर के निर्देश पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की नम्बूदिरीपाद सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन को उग्र करने में विवादास्पद भूमिका रही। भारत में अमेरिका के तत्कालीन राजदूत एल्सवर्थ बंकर ने सीआईए की भूमिका को स्वीकारते हुए कहा था कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सोवियत संघ इस पूरे प्रकरण में सक्रिय हो वामपंथी सरकार की मदद कर रहा था।
1973-75 तक अमेरिका के भारत में राजदूत रहे डेनियल पैट्रिक मोयनिहाल ने अपनी पुस्तक ‘ए डेंजरस प्लेस (A Dangerous Place) में इस बाबत एक कदम आगे बढ़कर यह आरोप लगाया है कि सीआईए ने इस काम के लिए इंदिरा गांधी को आर्थिक मदद भी दी थी।’ इंदिरा गांधी का बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पहला कार्यकाल मात्र दस महीनों का रहा। उन्होंने जनवरी 1960 में पद से इस्तीफा दे दिया था। सितम्बर 1960 में हृदयगति रुक जाने चलते फिरोज गांधी की असमय मृत्यु हो गई। हालांकि दोनों के मध्य रिश्ते अलगाव के करीब पहुंच चुके थे लेकिन फिरोज की मृत्यु से इंदिरा को भारी मानसिक आघात पहुंचा। वे कुछ अर्से तक पूरी तरह एकान्त वासी हो गई थीं। 1961 में इंदिरा फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं। उन्हें कांग्रेस वर्किंग कमेटी का पुनः सदस्य बनाया गया। 1962 में हुए दूसरे आम चुनाव में इंदिरा ने पार्टी के प्रत्याशियों का चयन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1962, चीन के हाथों मिली पराजय के बाद नेहरू शारीरिक और मानसिक रूप से खासे कमजोर हो चले थे। 1963 का पूरा साल वे अस्वस्थ ही रहे। इस दौरान उनके उत्तराधिकारी को लेकर सार्वजनिक चर्चाओं का दौर शुरू हो चला था। ‘इंडियन इंस्टिटयूट ऑफ पब्लिक ओपिनयन’ द्वारा 1964 की शुरुआत में कराए गए एक सर्वेक्षण में तब नेहरू के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी बतौर पहले स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री फिर के ़ कामराज, इंदिरा गांधी और अंत में मोरारजी देसाई जनता की पसन्द बतौर उभरे थे। शास्त्री ही अन्ततः नेहरू के बाद प्रधानमंत्री चुने गए। इंदिरा गांधी उनके मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की कैबिनेट मंत्री बनी। इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में भारी विरोधाभाष इस दौर में देखने को मिलता है। एक तरफ वह लगातार अपनी मित्र डोरथी नोरमन को पत्र लिखकर राजनीति और सार्वजनिक जीवन से अपने मोहभंग और सब कुछ त्याग एकांत वास में जाने की बात करती रहीं तो बतौर मंत्री उनकी सक्रियता चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री संग उनके रिश्ते तनावपूर्ण होते चले गए। 1965 में जब दक्षिण भारत भाषाई विवाद चलते सुलगने लगा था, इंदिरा गांधी शास्त्री और कामराज की सलाह दरकिनार कर आंदोलरत छात्रों संग बातचीत करने मद्रास चली गईं। इंदिरा के करीबी रहे पत्रकार इंदर मल्होत्रा के अनुसार जब उन्होंने प्रधानमंत्री की नाराजगी का जिक्र किया तो इंदिरा का जवाब था-‘I do not look upon myself as a mere Minister for Information and Broadcasting but as one of the leaders of the country. Do you think this government can survive if I resign today? I am telling you it won’t. Yes, I have jumped over the Prime Minister’s head and I would do it again whenever the need arises’ (मैं स्वयं को केवल सूचना एवं प्रसारण मंत्री बतौर नहीं देखती हूं, बल्कि देश की एक नेता होने के नाते कार्य करती हूं। क्या आपको लगता है कि मेरे बगैर यह सरकार बनी रह पाएगी? यदि मैं आज त्यागपत्र दे दूं तो यह सरकार भी गिर जाएगी। यहां यह सही है कि मैंने प्रधानमंत्री को दरकिनार किया। आगे भी आवश्यकता पड़ने पर मैं ऐसा ही करूंगी)। शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल के पूरे दौर में दोनों के संबंध तनावपूर्ण ही बने रहे। सार्वजनिक जीवन से बाहर निकलने की बात करने वाली इंदिरा की राजनीतिक महत्वकांक्षाएं अब परवान चढ़ने लगी थी। पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमले के दौरान वे एक बार फिर से शास्त्री की सलाह दरकिनार कर सैन्य बलों का मनोबल बढ़ाने के लिए कश्मीर जा पहुंची। प्रेस ने उन्हें बतौर नायिका बना ‘शास्त्री के बूढ़े मंत्रिमंडल में एक मात्र पुरुष’ की संज्ञा दे शास्त्री को कमतर करने का काम किया था। शास्त्री से इंदिरा की नाराजगी का एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री की तेजी से बढ़ रही लोकप्रियता थी। इंदिरा को लगने लगा था कि शास्त्री जानबूझकर नेहरू की बनाई नीतियों से दूरी बना रहे हैं। यह किसी भी कीमत पर नेहरू की बेटी को मंजूर नहीं था। प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद ही शास्त्री को दूसरी बार हृदयघात हुआ था। उनके प्रेस सलाहकार कुलदीप नैयर के अनुसार जब उन्होंने शास्त्री से जानना चाहा कि उनके बाद कौन देश का प्रधानमंत्री बनेगा तो शास्त्री का जवाब था- ‘यदि एक या दो बरस के भीतर मेरी मृत्यु हो जाती है तो इंदिरा गांधी, लेकिन यदि मैं तीन या चार बरस तक जिंदा रहा तो मेरे बाद यशवंत राव भाऊराव चव्हाण प्रधानमंत्री बनेंगे।’ ठीक ऐसा ही हुआ भी। शास्त्री मात्र पौने दो बरस ही जीवित रहे उनके बाद जैसा उन्होंने कहा था, कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को अपना नया नेता चुना।
24 जनवरी, 1966 को 49 वर्षीय इंदिरा गांधी ने भारत के तीसरे प्रधानमंत्री की शपथ लेते समय परंपरा अनुसार ‘ईश्वर’ के बजाए ‘विधि’ के नाम पर शपथ लेते समय अपने पूरे नाम का उच्चारण किया ‘इंदिरा नेहरू गांधी’। इससे पहले कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में भाग लेने जब वह पहुंचीं तो उनके शॉल में नेहरू की तर्ज पर एक लाल गुलाब टंगा था। जाहिर है वे अपनी भाषा और परिधान के जरिए कांग्रेस पार्टी और देश को जता देना चाहती थीं कि एक नेहरू दोबारा प्रधानमंत्री बन रहा है। उनके कार्यकाल की शुरुआत ‘कांटों भरी सेज’ समान थी। अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी, विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा था, पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाववाद ने तेजी पकड़ ली थी। विदेशी ताकतों का रुख भारत के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं था। अमेरिका खुलकर पाकिस्तान को सैन्य एवं आर्थिक मदद पहुंचा रहा था। चीन का रवैया पहले के समान शत्रुतापूर्ण बना हुआ था। उत्तर भारत के राज्य बिहार और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से अकाल का खतरा मंडराने लगा था।
बतौर प्रधानमंत्री पहली और ज्यादा गंभीर समस्या इंदिरा गांधी के समक्ष मिजो विद्रोह से निपटने की आई। 1987 में पृथक राज्य बनने से पहले तक मिजो क्षेत्र असम राज्य का हिस्सा था। मिजो जनजाति उत्तर पूर्व भारत, पश्चिमी म्यांमार और पूर्वी बांग्लादेश में पाई जाती है। इनकी बोली और संस्कृति असम से पूरी तरह अलग होने के कारण आजादी बाद से ही यहां अलगाव का बीज अंकुरित होने लगा था। मिजो लोगों का आरोप था कि असम सरकार उनके साथ सौतेला व्यवहार करती है और उन्हें उनकी जरूरत अनुसार संसाधन उपलब्ध नहीं कराती है। 1959 में इस इलाके में भारी अकाल पड़ा था। असम सरकार इस अकाल से निपट पाने में पूरी तरह से असफल रही। इससे मिजो लोगों के मध्य असम के प्रति भारी नाराजगी पनपी, जिसको भड़काने का काम 1960 में असम सरकार द्वारा मिजो भाषा को दरकिनार कर असमी को सरकारी भाषा बनाए जाने के आदेश ने कर दिखाया। अकाल से निपटने के लिए असम सरकार पर निर्भरता त्याग मिजो सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष लालडेंगा ने ‘मिजोरम नेशनल फेमाइन फ्रंट’ नामक संगठन की नींव रखी थी। असमी को सरकारी भाषा घोषित किए जाने के बाद अक्टूबर 1961 में इसका नाम बदलकर ‘मिजो नेशनल फ्रंट’ कर दिया गया। लालडेंगा ने इस फ्रंट के जरिए अलग मिजो राष्ट्र बनाए जाने की बात तब कही थी। लालडेंगा ने इसके लिए सशस्त्र विद्रोह का मार्ग चुना और ‘मिजो नेशनल आर्मी’ का गठन कर पाकिस्तानी सेना संग गठजोड़ किया। पाकिस्तानी सेना ने मिजो विद्रोहियों को हथियार और ट्रेनिंग देने का काम शुरू किया। लालडेंगा की सेना ने मिजो बाहुल्य इलाकों को भारत से अलग कर एक स्वतंत्र देश बनाने का लक्ष्य रखा था।
क्रमशः