पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-68
पांच दिसंबर, 1947 को उन्होंने नेहरू को लिखे पत्र में कहा-‘Lucknow goes along its own deary way, getting gradually more and more narrow-minded. What a peculiar deadness there is in our provincial towns. And what makes the atmosphere sickening is the corruption and the slackness, the smugness of some and the malice of others. Life here has nothing to offer the not-so-intelligent (and they form the bulk of any class) middle-class young men. It is not surprising that the superficial trappings of facism attract them in their tens and thousands. The RSS are gaining strength rapidly. They have been holding very impressive rallies in Allahabad, Cawnpore, Lucknow- except for very minor details following the German model almost exactly…It is really surprising that this sort of rally is allowed when section 144 is still operating in the province- some of the ministers ignore the whole thing and others say that they have orders from Delhi not to interfare.'(लखनऊ धीरे-धीरे अधिक संकीर्ण सोच वाला होता जा रहा है। हमारे प्रदेश के शहरों में एक अजीब-सी मुर्दनी छाई हुई है। और इस माहौल को भ्रष्टाचार और सत्ता की ढिलाई, कुछ की चापलूसी और कुछ की दुर्भावना ने ज्यादा खराब कर दिया है। कम विवेकपूर्ण मध्यम वर्ग के युवाओं को देने के लिए यहां कुछ भी नहीं है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि फासीवाद ने यहां लाखों को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तेजी से यहां विस्तार पा रहा है। वे यहां के शहरों-इलाहाबाद, कानपुर और लखनऊ में धारा 144 लागू होने के बावजूद शानदार रैलियां कर रहे हैं। कुछ मंत्री यह सब कुछ देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं तो कुछ का कहना है कि उन्हें दिल्ली से इस मामले में हस्तक्षेप न करने के आदेश हैं।) उनका यह पत्र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति उनकी आशंकाओं के साथ-साथ कांग्रेसी सरकारों में तेजी से पसर रहे भ्रष्टाचार और कांग्रेसी मंत्रियों के नैतिक पतन को रेखांकित करता है।
इस काल में इंदिरा गांधी के संबंध अपने पति फिरोज गांधी संग खराब होते चले गए। नेहरू द्वारा ‘कामचलाऊ सरकार’ की कमान संभालने के बाद से ही इंदिरा का अधिकांश समय दिल्ली में पिता की सहयोगी बतौर गुजरने लगा था। नवम्बर 1946 में फिरोज लखनऊ आ गए थे। यहां उनके अनेकों महिलाओं संग संबंधों की बात सामने आती है। बकौल कैथरीन फ्रैंक इंदिरा का दिल्ली में ज्यादा समय रहने के पीछे एक बड़ा कारण फिरोज के विवाहेत्तर संबंधों का होना था। ‘नेशनल हैराल्ड’ में बतौर संवाददाता नियुक्ति की गई इंदिरा की फुफेरी बहन लेखा पंडित संग फिरोज के रिश्तों ने इंदिरा को खासा आघात पहुंचाने का काम किया था। लखनऊ में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता अली जहीर की बेटी संग तो फिरोज गांधी के संबंधों की गूंज नेहरू तक जा पहुंची थी। फिरोज इस युवती संग विवाह करने के लिए इंदिरा से तलाक तक लेने की सोचने लगे थे।’ पति के संग अलगाव का सबसे बड़ा असर इंदिरा के पूरी तरह राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होने और प्रधानमंत्री नेहरू की विश्वस्त सहयोगी बन राष्ट्रीय राजनीति में उभरने बतौर सामने आता है। वे अपने पिता संग आधिकारिक सरकारी विदेश यात्राओं में जाने लगी थीं और प्रधानमंत्री आवास की भी समस्त जिम्मेदारी उन्होंने सम्भाल ली थी। फिरोज गांधी 1952 में उत्तर प्रदेश की रायबरेली संसदीय सीट से चुनाव लड़ संसद सदस्य बन दिल्ली पहुंच गए थे। इस दौरान भी दोनों के मध्य संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे। बतौर सांसद फिरोज गांधी को सरकारी घर दिल्ली में मिल चुका था। लेकिन इंदिरा और उनके दोनों बच्चे राजीव और संजय नेहरू के सरकारी आवास में रहते थे। एक तरफ इंदिरा पारिवारिक जीवन से दूर राजनीति में रमने लगी थी तो दूसरी तरफ फिरोज भी बतौर संसद सदस्य अपनी पहचान स्थापित करने में जुट गए थे। उन्होंने कांग्रेस के करीबी उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया की भारत इंश्योरेंस कंपनी के भ्रष्टाचार को संसद में उछाल नेहरू सरकार के लिए बड़ा संकट पैदा करने का काम 1955 में किया जिसका नतीजा रहा निजी क्षेत्र की सभी जीवन बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर राष्ट्रीय जीवन बीमा निगम की स्थापना होना। 1955 में ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस की शीर्ष निर्णायक कमेटी सीडब्ल्यूसी (कांग्रेस वर्किंग कमेटी) का सदस्य नियुक्त किया गया। मात्र अड़तीस बरस की उम्र में मिली इस जिम्मेदारी ने इंदिरा गांधी के पूरे व्यक्तित्व को बदलने का काम कर डाला। कांग्रेस भीतर अभी तक उनको नेहरू की बेटी बतौर ही देखा जाता था। वर्किंग कमेटी का सदस्य बनने का एक बड़ा प्रभाव नेहरू के वरिष्ठ सहयोगियों द्वारा इंदिरा गांधी को गंभीरता से लिया जाना रहा। एक तरफ इंदिरा गांधी का राजनीतिक कद तेजी से बढ़ रहा था तो दूसरी तरफ उनका वैवाहिक जीवन पूरी तरह समाप्त होने की कगार में आ खड़ा हुआ था। उनके दोनों पुत्र देहरादून स्थित ‘दून स्कूल’ में पढ़ रहे थे और फिरोज गांधी ने अब प्रधानमंत्री आवास में रहना छोड़ दिया था। फिरोज इस काल में पूरी तरह नेहरू सरकार के विरोधी बन चुके थे। 1958 में उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू के एक अत्यंत करीबी मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला संसद में उजागर कर नेहरू के समक्ष भारी संकट खड़ा कर दिया। फिरोज ने नेहरू के वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी पर एक निजी उद्योगपति हरिदास मुद्रा को आर्थिक संकट से बचाने के लिए राष्ट्रीय जीवन बीमा निगम पर दबाव बना मुद्रा की डूब रही कंपनी के शेयर खरीदवाने का आरोप लगा संसद में सनसनी फैलाने का काम किया। फिरोज के आरोप तथ्यहीन नहीं थे। उन्होंने सारे प्रमाण संसद के समक्ष रखते हुए कहा ‘मैं समझता हूं कि मैंने जीवन बीमा निगम और हरिदास मुद्रा के मध्य दुरभि संधि को प्रमाणित कर दिया है। मुझे विश्वास है कि मैंने यह साबित कर डाला है कि किस प्रकार जनता के धन का दुरुपयोग एक निजी व्यक्ति को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया जिसका नुकसान जीवन बीमा धारकों को उठाना पड़ रहा है।’ अपने ही सांसद और दामाद के आरोपों से त्रस्त नेहरू को पूरे मामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन करना पड़ा जिसकी रिपोर्ट में फिरोज के सभी आरोप सत्य साबित हुए थे और वित्त मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था। इंदिरा हालांकि इस काल में पूरी तरह राजनीति में व्यस्त हो चुकी थीं लेकिन उनका मन खासा उचाट और व्यथित रहने लगा था। अपनी मित्र डोरथी नोरमन को लिखे पत्र में उन्होंने कहा-‘I get a tremendous urge to leave everything and retire to a far place high in mountains. Not caring if I ever did a stroke of work again.’ (मेरी तीव्र इच्छा हो रही है कि मैं सब कुछ त्याग कर कहीं पहाड़ों में एकांत वास करूं। मुझे रत्तीभर चिंता नहीं कि भविष्य में मुझे कुछ काम करने को मिले या नहीं।) इस दौरान नेहरू भी खुद को थका हुआ और ‘बाली’ महसूस करने लगे थे। इन्हीं दिनों 4 अप्रैल, 1958 को उन्होंने एक प्रेसवार्ता के दौरान अपने बाली होने जाने की बात कह 29 अप्रैल के दिन कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अपना इस्तीफा पेश कर दिया था। नेहरू और इंदिरा सार्वजनिक जीवन से सही मायनों में बाहर निकलने के लिए आतुर थे। नेहरू लंबे सार्वजनिक जीवन और 12 बरस तक प्रधानमंत्री पद संभालने चलते थकने लगे थे और इंदिरा निजी जिंदगी के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ कांग्रेस भीतर तेजी से पांव फैला रहे भ्रष्टाचार से खिन्न हो चुकी थीं। नेहरू ने जैसे ही पद त्यागने की इच्छा व्यक्त की कांग्रेस भीतर भारी अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो गया। इन पर ऐसा न करने के लिए दबाव बनाया जाने लगा। नेहरू को इस दबाव के दबाव में आता देख इंदिरा ने अपने ‘प्यारे बापू’ को 1 मई, 1958 को एक पत्र लिखा। दोनों पिता-पुत्री एक ही घर, प्रधानमंत्री आवास में रहते थे तब भी अपने पिता से सीधे बातचीत करने के बजाय इंदिरा ने उन्हें पत्र लिखकर अपनी भावनाओं से अवगत कराना उचित समझा। इंदिरा ने लिखा-‘…Having once suggested giving up the Prime Ministership and started a train of thought and discussion, is it wise to go back to the status quo? will it not have an adverse effect? so much is rotten in our politics that every body sees things through his own avricious myopic eyes and is quite unable to understand nobility or greatness.There will therefore be a feeling that you had no intention of giving up the P.M. Ship and were only bluffing. Let them try to manage by themselves, other wise they will only drag you down with their own rottenness. It you are out side, it may at least reassure the general public that you are not responsible for all the wrong doings.’ (…प्रधानमंत्री पद छोड़ने की इच्छा व्यक्त करने और इस विषय पर विचार-विमर्श की शुरुआत करने के बाद क्या यथास्थिति बनाय रखना उचित होगा? क्या इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा? हमारी राजनीति में इतना कुछ सड़ा हुआ है कि हर कोई चीजों को अपनी कमबीन निगाहों से देखता है और बड़प्पन और महानता को देख पाने में पूरी तरह असमर्थ है। इस चलते ऐसी धारणा बनेगी कि आप प्रधानमंत्री पद छोड़ना नहीं चाहते हैं और केवल नाटक कर रहे हैं। आप इन लोगों को अपने आप से व्यवस्था संभालने दीजिए अन्यथा ये लोग अपनी गंदगी से आपको गिराने का काम कर देंगे। अगर आप बाहर रहते हैं तो कम से कम जनता का तो विश्वास बना रहेगा कि इनके गलत कार्यों में आप शामिल नहीं हैं) नियति को लेकिन पिता-पुत्री के विचारों से सहमति नहीं थी। नेहरू प्रधानमंत्री पद छोड़ नहीं पाए और न ही सब कुछ त्याग इंदिरा एकांत वास के लिए निकल पाईं। 1959 में संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत की सलाह पर इंदिरा गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन ली गईं। जिस राजनीति से वह बचना चाह रही थीं, अब उसी का वह अभिन्न हिस्सा बन गईं। इंदिरा ग्यारह महीने कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। केरल में वामपंथी सरकार को बर्खास्त किए जाने चलते उनका यह कार्यकाल खासा विवादास्पद रहा। हालांकि इसी दौरान बॉम्बे प्रांत को भाषाई आधार पर बांटा गया था और 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अस्तित्व में आए थे। नेहरू भाषा के आधार पर अलग प्रदेश गठन के लिए तैयार नहीं थे लेकिन बतौर कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी ने उन्हें इसके लिए तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन इन दो राज्यों के गठन में उनकी भूमिका से कहीं ज्यादा केरल में सत्तारूढ़ पहली वामपंथी सरकार के पतन में उनकी विवादास्पद भूमिका के लिए उन्हें याद किया जाता है और उन्हें निशाने पर आज तक लिया जाता है।