इन संयुक्त विधायक दल की सरकारों का कार्यकाल बेहद संक्षिप्त रहा। दल बदल और धन-बल के सहारे बनी इन सरकारों में भ्रष्टाचार ने नई ऊंचाइयों को छुआ। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के शब्दों में-‘ Not sure how long their tenure would last, the SVD Government had to make everyday count. Or every order, rather. Ministers specified a fee for sanctioning or stopping transfers of officials. Thus orders, particularly transfer orders, were issued and cancelled with bewildering rapidly.’ (इस आशंका के चलते कि उनकी सरकार कब तक चलेगी, संयुक्त विधायक दल के लिए हरेक दिन महत्वपूर्ण था। मंत्रियों ने अधिकारियों को हरेक आदेश, विशेषकर स्थानांतरण अथवा उसे रुकवाने की एवज में फीस वसूली तय कर दी थी। इस कारण विस्मयकारी तेजी के साथ स्थानांतरण आदेश जारी अथवा रद्द किए जाने लगे थे) इस कालखण्ड में एक बार फिर से कौमी दंगे भी भड़कने लगे। राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 1966 में 132, 1967 में 220 तो 1968 में 346 ऐसे कौमी दंगे हुए थे।’ सिंडिकेट संग इस दौर में इंदिरा गांधी के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो चले थे। 1968 में के ़कामराज और मोरारजी देसाई उपचुनावों को जीत संसद में वापसी कर इंदिरा को हटाने की योजना बनाने में जुट गए थे। इंदिरा लेकिन तेजी से सत्ता में बने रहने के गुर सीखने और हर कीमत-हर हाल में अपने विरोधियों को परास्त करने की राह पर आगे बढ़ चुकी थीं। उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब में संयुक्त विधायक दल की सरकारों को बर्खास्त कर ‘गूंगी गुड़िया’ की छवि को ध्वस्त करने का काम किया। सिंडिकेट संग तो वे खुलकर मुकाबला दोबारा प्रधानमंत्री बनने बाद से ही करने लगी थीं। 1967 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राजधाकृष्णन का कार्यकाल समाप्त होने के दौरान सिंडिकेट डॉ. राधाकृष्णन को दोबारा निर्वाचित करना चाहता था। इंदिरा गांधी ने कांग्रेसी नेता डॉ. जाकिर हुसैन का नाम प्रस्तावित कर सिंडिकेट को भारी दुविधा में डाल दिया। डॉ ़जाकिर हुसैन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ-साथ बड़े शिक्षाविद् थे। 1948 में नेहरू ने उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया था। 1957 में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्ति किया गया था। देश भर में फैल रहे धार्मिक दंगों को आधार बना इंदिरा ने एक मुसलमान को राष्ट्रपति बनाए जाने की दमदार पैरवी कांग्रेस कार्य समिति के समक्ष कर डाली। सिंडिकेट को इंदिरा की रणनीति ने पीछे हटने को मजबूर कर दिया। इंदिरा ने सिंडिकेट से पूछा ‘लोग जब यह पूछेंगे कि जाकिर हुसैन साहब का नाम क्यों ठुकराया गया तो आप क्या जवाब देंगे? किसी मुसलमान का राष्ट्रपति बनना बहुत सारे लोगों को रास नहीं आ रहा।’ अतः इंदिरा की रणनीति सफल रही और डॉ. हुसैन भारतीय गणतंत्र के तीसरे राष्ट्रपति चुन लिए गए। मई, 1969 में हृदयगति रुक जाने चलते डॉ. हुसैन की मृत्यु हो गई। सिंडिकेट ने नए राष्ट्रपति के लिए लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ ़नीलम संजीवा रेड्डी का नाम आगे किया। रेड्डी सिंडिकेट के करीबी थे जिस चलते इंदिरा आशंकित थीं कि रेड्डी को राष्ट्रपति बनाने के पीछे सिंडिकेट की मंशा उनको प्रधानमंत्री पद से हटा मोरारजी देसाई को प्रधामंत्री बनाने की है। अपनी स्थिति और सरकार में पकड़ मजबूत रखने के लिए इंदिरा किसी भी हद तक जाने का मन बना चुकी थीं। उन्होंने सिंडिकेट को खुली चुनौती देते हुए सबसे पहले मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री पद से हटाने का काम किया हालांकि मोरारजी देसाई को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से नहीं हटाया गया था लेकिन वित्त मंत्रालय वापस लिए जाने से नाराज देसाई ने सरकार से अपना इस्तीफा दे डाला। सिंडिकेट अभी इंदिरा के पहले वार से उबर भी नहीं पाया था कि आमजन के समक्ष अपनी छवि चमकाने की नीयत से नेहरू की बेटी ने चौदह बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कार्यवाहक राष्ट्रपति के एक अध्यादेश द्वारा कर दिया। इंदिरा हर कीमत पर सिंडिकेट को सबक सिखाने का मन बना चुकी थीं। 12 जुलाई, 1969 को कांग्रेस संसदीय दल ने इंदिरा गांधी की इच्छा के विरुद्ध नीलम संजीवा रेड्डी का नाम बतौर राष्ट्रपति पद प्रत्याशी घोषित करा था। इसके जवाब में 16 जुलाई के दिन इंदिरा ने देसाई से वित्त मंत्रालय छीन लिया और 21 जुलाई को बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर डाला। प्रधानमंत्री अब खुलकर साम्यवादी-समाजवादी राह पर चल पड़ी थीं। आम जनता ने प्रधानमंत्री की जय-जयकार कर उनके मनोबल को बढ़ाने का काम किया। इंदिरा की साम्यवादी- समाजवादी नीति के पीछे उनके प्रति समर्पित ऐसे नौकरशाहों और सलाहकारों का समूह था जिनमें से अधिकांश कश्मीरी मूल के थे। इन्हें उन दिनों सत्ता के गलियारों में ‘कश्मीरी माफिया’ कह पुकारा जाता था। ऐसे सलाहकारों में एक का भारी असर इंदिरा गांधी की नीतियों और निर्णयों में देखने को मिलता है। ये व्यक्ति थे प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव परमेश्वर नारायण हक्सर। हक्सर को इंदिरा गांधी ने एस.के. झा (शास्त्री के प्रमुख सचिव) के स्थान पर अपना सचिव नियुक्त किया था। वामपंथी विचारों वाले हक्सर ने ही 1967 में दस सूत्रीय सुधारवादी कार्यक्रमों की सूची तैयार की थी जिसमें बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजे-रजवाड़ों को दी जाने वाली आर्थिक मदद ‘प्रीवी पर्स’ को समाप्त किए जाने का उल्लेख था। हक्सर के आने बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के ज्यादा शक्तिशाली होने एवं मंत्री मंडल और मंत्री मंडलीय सचिव की शक्तियों का क्षरण होने के प्रमाण मिलते हैं। हक्सर द्वारा खुफियातंत्र जिसमें आईबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) एवं राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) समेत कई महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसियों का नियंत्रण सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन किया जाना तथा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय का दखल केंद्र सरकार के हर महत्वपूर्ण मंत्रालय में रहने की जो शुरुआत इस दौर में प्रारंभ की गई, आज वह अपने चरम पर जा पहुंची है। हक्सर पर इंदिरा गांधी बेहद भरोसा करती थीं और उनके कहे अनुसार ही विश्वसनीय नौकरशाहों की नियुक्ति की जाने लगी थी। ‘भरोसेमंद नौकरशाही’ का चयन हक्सर की ही देन रहा है। ऐसे नौकरशाह जो संविधान के बजाए शासक के प्रति प्रतिबद्धता रखते हों तथा उचित-अनुचित का परिक्षण किए बगैर ही शासक के हर फैसले को सही मान उसे क्रियान्वित करने के लिए समर्पित हों। बकौल कैथरीन फ्रैंक-‘Haksar initiated the controversial and unprecedented reality of a ‘committed bureaucracy’-a civil service that was idelogically oriented rather than politically neutral. At the time and later in speech and in print, Haksar insisted that the notion of an uncommitted bereaucracy was a myth. But he must also have realized that with the sacrifice of political neutrality, a democratic institution would inevitable be sacrificed in order to achieve certain, ideological ends. And once damage was done, it could not be contained. The whole balance of power in government was irreparably compromised. The Prime Minister’s secretariate become ‘an all powerfull body which eclipsed not only the cabinet secretariat but also the cabinet and the individual ministries and departments.'(हक्सर ने विवादित एवं अप्रत्याक्षित ‘भरोसेमंद नौकरशाही’ की नींव रखी। ऐसी नौकरशाही जो राजनीतिक निरपेक्षता के बजाए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध थी। उस दौरान एवं बाद में कई बार हक्सर ने इसे सही प्रमाणित करने का प्रयास करते हुए जोर दिया कि ‘अप्रतिबद्ध’ नौकरशाही एक भ्रम मात्र है। लेकिन इतना तो हक्सर भी समझते होंगे कि राजनीतिक रूप से निरपेक्ष नौकरशाही की बलि चढ़ाए जाने से लोकतांत्रिक संस्थाओं की बलि चढ़ाए जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। और एक बार जब इसकी शुरुआत हुई तो फिर इसे रोका न जा सका। सरकार में सत्ता का सन्तुलन पूरी तरह डगमगा गया और प्रधानमंत्री सचिवालय सर्वशक्तिशाली हो उभरने लगा)।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी का आत्मविश्वास चरम पर जा पहुंचा था। उन्होंने हर कीमत पर सिंडिकेट द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी नीलम संजीवा रेड्डी को परास्त कर अपने भरोसेमंद व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की ठान ली थी। संजीवा रेड्डी नेहरू सरकार में मंत्री और 1960 से 1963 तक कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे थे। उनके संबंध इंदिरा संग हमेशा से ही तनावपूर्ण रहते आए थे। बकौल कुलदीप नैयर शास्त्री मंत्रिमंडल के सदस्य रहते संजीवा रेड्डी ने शिकायत भरे अंदाज में कहा था कि ‘उसने (इंदिरा गांधी) हमेशा मुझे पायदान की तरह इस्तेमाल किया।’ इंदिरा ने कांग्रेस कार्यसमिति के समक्ष दलित नेता जगजीवन राम को राष्ट्रपति बनाए जाने की पुरजोर वकालत की लेकिन उन्हें सिंडिकेट के समक्ष हारना पड़ा और संजीवा रेड्डी का नाम कार्य समिति द्वारा राष्ट्रपति पद के लिए अनुमोदित कर दिया गया। संजीवा रेड्डी ने बतौर कांग्रेस प्रत्याशी जब नामांकन पत्र भरा तो कांग्रेस संसदीय दल की नेता होने के चलते इंदिरा ने बकायदा उस पर अपने हस्ताक्षर किए थे। सिंडिकेट ने इसे इंदिरा द्वारा हार मान लिए जाने का संकेत माना लेकिन नेहरू की बेटी ने अपनी एक शातिर चाल से पूरा खेल ही पलट डाला। उनके कहने पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरी (कार्यवाहक राष्ट्रपति) ने भी अपना नामांकन घोषित कर दिया। कांग्रेस अध्यक्ष एस ़ निजलिंगप्पा जो सिंडिकेट का हिस्सा थे, ने प्रधानमंत्री को निर्देश दिया कि बतौर संसदीय दल के नेता पार्टी के सांसदों को ‘व्हिप’ जारी कर रेड्डी के पक्ष में मतदान करने को कहंे। इंदिरा ने लेकिन पार्टी अध्यक्ष के आदेश को दरकिनार कर ‘अंतरआत्मा’ की आवाज पर वोट देने की अपील कर दी। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी सरीखे दक्षिणपंथी दलों से समर्थन लिए जाने को बड़ा मुद्दा बना डाला। आमजन इस दौरान इंदिरा का दिवाना हो चला था। बैंकों के राष्ट्रीयकरण कर वे ‘गरीबों की मसीहा’ का दर्जा पा चुकी थीं। उन्होंने निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण को गरीबी हटाने की दिशा में उठाया जरूरी कदम करार दे आम जनता का दिल जीत लिया था।