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Editorial

पाक विजय बाद तेजी से निरंकुश हुई इंदिरा

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-78

नागरवाला ने बकौल दिल्ली पुलिस अपना अपराध तत्काल ही स्वीकारते हुए बयान दिया कि उसने ही बांग्लादेशी मुक्ति वाहिनी की मदद के उद्देश्य से मल्होत्रा को प्रधानमंत्री की आवाज में फोन कर 60 लाख रुपये लाने का आदेश दिया था। 24 मई, 1971 को यह घटना हुई, 25 मई को पुलिस ने केस सुलझाने का दावा किया, अगले ही दिन 26 मई को इस मामले की सुनवाई अदालत में हुई और मात्र 10 मिनट के भीतर-भीतर जज ने अपना फैसला भी सुना दिया। नागरवाला को चार बरस के कारावास की सजा दी गई। कहानी लेकिन अभी खत्म नहीं हुई, संसद तक में यह मामला गूंजा। विपक्ष ने इंदिरा सरकार पर जमकर हमले किए। जिस देश में सामान्य से मुकदमें की सुनवाई होने और निर्णय आने में सालों लग जाते हों, वहां मात्र एक दिन में 10 मिनट की सुनवाई बाद आए फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए। नागरवाला ने बकौल दिल्ली पुलिस स्वयं अपना अपराध स्वीकारा था लेकिन अदालती फैसले के तुरंत बाद नागरवाला अपने बयान से मुकर गया। उसने दोबारा सुनवाई कराए जाने की अपील की। इस दौरान 20 नवंबर, 1971 को इस मामले के जांच अधिकारी डीके कश्यप जो दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस अधीक्षक थे, रहस्यमयी तरीके से एक कार दुर्घटना में मर जाते हैं। दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद नागरवाला ने अंग्रेजी पत्रिका ‘करेंट’ की एक सन्देश भेज इस मामले से जुड़े कुछ राज बताने की बात कही। फरवरी, 1972 में यकायक ही स्वस्थ नागरवाला की जेल के अस्पताल में मृत्यु हो जाती है। 1977 में हुए आम चुनाव बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया था। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.जगमोहन रेड्डी की अध्यक्षता में बना यह आयोग लेकिन मामले का सच सामने ला पाने में विफल रहा। इस जांच आयोग के गठन से ठीक पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ ने नागरवाला केस की बाबत एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की संसद मार्ग शाखा में प्रधानमंत्री राहत कोष का खुफिया खाता था जिसकी वेद प्रकाश मल्होत्रा ही देखभाल करता था। इस रिपोर्ट के अनुसार मल्होत्रा सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से आदेश लिया करता था और खुफिया एजेंसियों के सीक्रेट कामों के लिए इस खाते से धन निकाला करता था। नागरवाला मामले में भी ऐसा ही हुआ लेकिन मल्होत्रा द्वारा 60 लाख रुपया ले जाने और देर तक वापस न लौटने से चिंतित एक अन्य बैंक अधिकारी ने किसी सम्भावित धोखाधड़ी की आशंका चलते पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी जो तत्काल ही प्रेस के पास तक जा पहुंची। प्रधानमंत्री का नाम खराब न हो इसलिए नागरवाला को बलि का बकरा बना दिया गया। ‘इंडिया टुडे’ की इस सनसनीखेज रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि नागरवाला ने अपनी गिरफ्तारी के तुरंत बाद दिल्ली पुलिस से मांग की थी कि उसकी बात प्रधानमंत्री अथवा सीमा सुरक्षा बल के तत्कालीन प्रमुख रुस्तमजी से कराई जाए। रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया था कि बैंक कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा का प्रधानमंत्री के घर आना-जाना था और वह प्रधानमंत्री को ‘माता जी’ कह पुकारता था। आजाद भारत के इतिहास में यह ऐसा हैरतनाक मामला है जिसके राज का पर्दाफाश आज तक नहीं हो पाया है लेकिन इसका भूत वर्तमान में भी यदा-कदा जागृत हो उठता है। 2008 में इस मामले से जुड़े भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी पद्म रोसा ने रेड्डी आयोग के समक्ष दिए गए अपने बयान की प्रति सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी जिसे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने देने से इंकार कर दिया। पद्म रोसा ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की। तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त ने अपने आदेश में केंद्रीय गृह मंत्रालय को निर्देश दिया कि अपीलकर्ता को मांगी गई सूचना उपलब्ध कराई जाए। यह सूचना दी गई अथवा नहीं यह स्पष्ट नहीं है। पदम् रोसा की 20 जनवरी 2023 में मृत्यु हो गई।

बांग्लादेश गठन के बाद पूरे देश का माहौल पूरी तरह कांग्रेस, विशेषकर इंदिरा गांधी के पक्ष में हो चला था। मई, 1972 में 13 राज्यों के लिए विधानसभा चुनाव हुए। सभी 13 राज्यों में कांग्रेस को जीत मिली। यह चुनाव निष्पक्ष लेकिन नहीं थे। पश्चिमी बंगाल में कांग्रेस ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने पर आमदा थी। नतीजा मतदाताओं को डराने, मतदान केंद्रों में फर्जी मतदान करवाने के रूप में सामने आया। आजाद भारत में मतदाताओं को धन और बाहुबल के सहारे डराने और मत हासिल करने के दौर की नींव इन्हीं चुनावों के दौरान पड़ी जिसने आगे चलकर विकराल रूप धारण किया। इंदिरा गांधी का कद इस कालखण्ड में अपने चरम पर जा पहुंचा था। जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी (बाद में भारत के प्रधानमंत्री) ने चुनाव नतीजों बाद टिप्पणी की थी कि ‘विपक्ष ने 2700 उम्मीदवार खड़े करे, सत्तारूढ़ दल ने लेकिन हर सीट पर एक ही उम्मीदवार खड़ा किया- इंदिरा गांधी।’

28, जून, 1972 से 3, जुलाई, 1972 तक भारत और पाकिस्तान के मध्य शिमला में शांति वार्ता का आयोजन किया गया। इस वार्ता के मुख्य बिंदु पाकिस्तानी सेना के युद्धबंदियों की रिहाई और भारतीय सेनाओं द्वारा कब्जे में लिया गया पाकिस्तानी भूभाग था। भारतीय पक्ष ने इस मौके का लाभ उठाने की नीयत से कश्मीर मुद्दे को भी वार्त्ता का हिस्सा बनाने के लिए पाकिस्तान पर भारी दबाव बनाया। पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व वहां के प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो कर रहे थे जो अपने साथ अपनी बेटी बेनजीर को भी लेकर आए थे। पाकिस्तानी पक्ष कश्मीर को इस शिखर वार्ता का हिस्सा किसी भी सूरत में बनाने के लिए तैयार नहीं था। इस व अन्य मुद्दों पर दोनों पक्षों के मध्य तनातनी होने चलते यह शांति वार्ता लगभग टूटने की कगार पर पहुंचने लगी थी। अंतिम क्षणों में लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो के मध्य हुई एकांत वार्ता के बाद दोनों देशों ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते के अंतर्गत कश्मीर मुद्दे को आपसी बातचीत (बगैर किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्था) से सुलझाने और दिसंबर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा माने जाने पर सहमति बनी थी। पाकिस्तानी पक्ष लेकिन जल्द ही इस समझौते से मुकर गया। पाक सेना के भारी दबाव में आए भुट्टो ने मात्र कुछ ही दिनों के भीतर पाक संसद में यह ऐलान कर डाला कि ‘कश्मीर मुद्दे पर जब कभी भी वहां की जनता आवाज उठाएगी तो पाकिस्तान उनका साथ देगा।’

पाक पर विजय के बाद इंदिरा गांधी तेजी से निरंकुश शासक में बदलने लगीं। उन्होंने सत्ता का केंद्रीकरण कर डाला। जयप्रकाश नारायण इंदिरा के व्यवहार और कार्यशैली से खासे विचलित और चिंतित रहने लगे थे। जुलाई, 1972 में उन्होंने कर्नाटक के तिप्पगोंडनहल्ली गांव में आयोजित एक बैठक में कहा कि ‘एक ही व्यक्ति के हाथ में सत्ता का केंद्रीकरण चिंता की बात है। सारे तंत्र को इस प्रकार कसा जा रहा है कि कोई किसी तरह की चू-चपड़ न कर सके… ़मुख्यमंत्रियों को बिल्कुल पटवारी बना दिया गया है।’ जेपी ने 1972 में इंदिरा गांधी के निरकुंश हो सत्ता का दुरुपयोग की बाबत जो आशंका व्यक्त की थी, आज केंद्र में भाजपा की सरकार के विषय में ठीक ऐसी ही बातें उभर कर सामने आ रही है। कांग्रेस नरेंद्र मोदी सरकार पर केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए लोकतंत्र का गला घोटने के आरोप इन दिनों लगा रही है। 2017 में तो सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों ने अप्रत्याशित कदम उठाते हुए एक प्रेसवार्ता कर ‘लोकतंत्र खतरे में है’ तक कह डाला था। यह सब इतिहास की पुनरावृत्ति है जो आरोप वर्तमान में भाजपा पर लग रहे हैं। सत्तर के पूर्वार्ध में ठीक ऐसे ही आरोप भाजपा के पैतृक संगठन भारतीय जनसंघ द्वारा कांग्रेस पर लगाए जाते थे। अतीत और वर्तमान के यह संबंध ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए’ कहावत को चरितार्थ करते हैं।

इंदिरा स्वयं क्या सोच रही थीं और उनकी मनः स्थिति इस दौर में कैसी थी? उनकी करीबी मित्र पुपुल जयकर ने अपनी पुस्तक में इस बाबत प्रकाश डाला है। पुपुल मार्च, 1972 में जब एक दिन प्रधानमंत्री से मिली तो उन्होंने महसूस किया कि इंदिरा संवेदनशीलता और भावनाओं से परे हो चुकी थीं। जयप्रकाश नारायण की बाबत उन्होंने पुपुल जयकर से कहा- ‘Jaya Prakash has never taken me seriously. He doesnot understand that, for action to be potent, time is of the essence. In a way it is not possible to cacillate or to be weak or to play the role of  Hamlet. One has to be really ruthless if the need arises. I am ruthless for what I think right. The difficulty is I move. These people remain static and so relationships drop away. Circumstanes, experiences, challenge me and change me. I am no longer the same person.’  (जयप्रकाश ने कभी भी मुझे गंभीरता से नहीं लिया। वह यह नहीं समझते कि कठोर निर्णय के लिए वक्त की बड़ी अहमियत होती है। युद्ध में डगमगाना, कमजोर होना यह हेमलेट (शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ में मुख्य पात्र का नाम) की भूमिका निभाना सम्भव नहीं। आवश्यकतानुसार निर्मम भी होना पड़ता है। मुझे जो सही प्रतीत होता है उसके लिए मैं निर्मम हो जाती हूं। संकट यह कि मैं आगे बढ़ जाती हूं लेकिन ये लोग स्थिर रह जाते हैं जिस चलते रिश्ते टूट जाते हैं। परिस्थितियां और अनुभव मुझे चुनौती देते हैं और मुझे बदलते हैं। अब मैं पहले वाली नहीं रही हूं।)

क्रमशः

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