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Editorial

भारत का संतुलित रुख

पश्चिमी मीडिया, पश्चिमी देशों के सरपरस्त और पैरोकार, सभी एक सुर में कहने लगे हैं कि यूक्रेन पर रूसी आक्रमण को लेकर भारत­­­­ का रुख मानवीय सरोकारों वाला नहीं है। अमेरिकी सरकार का भी कुछ ऐसा ही दृष्टिकोण है। सोशल मीडिया में भी कुछ इसी प्रकार की बातें देखने-पढ़ने को मिल रही हैं। इसमें शायद ही किसी को शंका हो कि भारत हमेशा से ही हिंसा के बजाए शांति का समर्थक रहा है। अहिंसा का सिद्धांत हमें न तो पश्चिम से समझने की जरूरत है, न ही पूरब से। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान हो ही नहीं सकती। राजनीतिक शक्ति जरूर बंदूक की नली से प्राप्त की जा सकती है। चीनी क्रांति के नायक माओ का कथन ‘Political power grows out of the barrel of a gun’, चीन, अमेरिका, रूस, जर्मनी आदि देशों के लिए आदर्श सूत्र हो सकता है। हम ‘अहिंसा परमधर्मों’ को हमेशा से ही अपना आदर्श, अपना पथ प्रदर्शक मानते आए हैं। ऐसे में रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए हमलों के हम समर्थक कत्तई नहीं हो सकते हैं। भारत सरकार ने इसका समर्थन किया भी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी राष्ट्रपति संग अपनी दूरभाष वार्ता में इसको स्पष्ट करते हुए कहा भी कि ‘हर कीमत पर हिंसक कार्यवाही रोकी जानी चाहिए।’ प्रधानमंत्री ने नाटो देशों और रूस के मध्य मतभेदों को ईमानदार वार्ता के जरिए हल करने की अपील भी की है। इससे पहले यूक्रेन पर हमले के तुरंत बाद भारत ने अपनी ‘चिंता’ व्यक्त की थी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपात बैठक में भारत ने अपना रुख कड़ा करते हुए रूसी हमले को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ करार दिया। राजनायिक भाषा में इसका अर्थ खासा गहरा है। ‘चिंता’ व्यक्त करना यह स्पष्ट करता है कि भारत हिंसा का हिमायती नहीं तो ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ कहना साफ करता है कि हम रूसी हमले के समर्थक नहीं हैं। इससे ज्यादा कुछ भी कहना हमारे राष्ट्रीय हितों पर चोट करना होगा। यही कारण है कि पश्चिमी देशों के दबाव और अपरोक्ष नाराजगी के बाद भी भारत सरकार ने रूसी हमले की निंदा नहीं की है। मैं समझता हूं ऐसा करना भी कतई नहीं चाहिए। हिंसा के खिलाफ रहने वाले मुल्क के लिए यह विरोधाभाषी जरूर है लेकिन इसी में हमारा राष्ट्रीय हित है। तो चलिए इस मुद्दे को थोड़ा गहराई से समझने का प्रयास करते हैं ताकि समझा जा सके, समझाया जा सके कि क्योंकर रूस संग मैत्री हमारे लिए खास है और क्योंकर हमें इस मैत्री के गठबंधन को कमजोर नहीं करना चाहिए।

रूस द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शुरू हुए शीत युद्धकाल से ही हमारा प्रगाढ़ मित्र रहा है। कई कठिन अवसरों पर हमें इस प्रगाढ़ता चलते भारी लाभ पहुंचा। 1955 में जवाहर लाल नेहरू की बतौर प्रधानमंत्री सोवियत संघ की पहली यात्रा बाद दोनों देशों के मध्य मजबूत दोस्ती की नींव पड़ी जो कालांतर में मजबूत होती चली गई। 1955 में ही सोवियत संघ में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव निकिता खुर्शचेव भी भारत आए थे। उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान कश्मीर और गोवा के मुद्दे पर भारत को समर्थन दिए जाने की घोषणा की थी। कम्युनिस्ट राष्ट्र होने के बावजूद 1959 में चीन संग शुरू हुए सीमा विवाद पर रूस ने चीन का साथ नहीं दिया था। 1962 में भारत संग अपनी मित्रता को और मजबूत करते हुए रूस ने मिग-21 लड़ाकु विमानों की टेक्नोलॉजी को भारत संग साझा करने का काम किया था। स्मरण रहे इससे कुछ अर्सा पहले ही चीन संग ऐसी टेक्नोलॉजी हस्तांतरण के लिए रूस ने मना कर डाला था। 1971 में रूस और भारत के मध्य मैत्री संधि हुई जिसका बड़ा लाभ पाकिस्तान संग युद्ध के दौरान तब मिला था जब अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद का एलान करते हुए अपने खतरनाक समुंद्री लड़ाकु जहाजों (सातवां बेड़ा) को रवाना कर डाला था। सोवियत संघ का भारत संग खड़ा रहना अंततः बांग्लादेश गठन और अमेरिका के पीछे हटने का महत्वपूर्ण कारण बना। हमारे सशस्त्र बलों के लिए सबसे ज्यादा हथियारों की आपूर्ति रूस से ही होती है। इनमें मिग-21 के अलावा सुखोई फाइटर जेट, टी-90 टैंक इत्यादि शामिल हैं। हाल ही में अमेरिका की घोर आपत्ति के बावजूद भारत ने अत्याधुनिक एस-400 एंटी एयरक्राफट मिसाइल रूस से खरीदी है। रूस के संग हमारे गहरे आर्थिक रिश्ते भी हैं। 2020-21 में हमारा कुल द्विपक्षीय व्यापार 9 ़4 बलियन अमेरिकी डालर रहा।
भारत के समक्ष एक अन्य गंभीर कारण भी है जिसके चलते वह एक सीमा से आगे बढ़कर रूस को नाराज नहीं कर सकता है। यह कारण है हमारा पड़ोसी मुल्क चीन जिसकी विस्तारवादी नीति हमेशा से हमारे लिए खतरा बनी हुई है। चीन इस वक्त रूस के करीब आने में जुटा है। यूक्रेन में रूस के आक्रमण का चीन ने भी विरोध नहीं किया है। चीन का रूस संग व्यापार लगातार बढ़ रहा है। अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए चीन रूस से ऊर्जा खरीदता आया है। अब वह बड़ी मात्रा में खाद्य सामग्री भी रूस से आयात करने लगा है। पश्चिमी देशों के खिलाफ रूस के संग चीन का साथ रहा है। यूक्रेन द्वारा नाटो की सदस्यता लेने के मुद्दे पर भी चीन ने रूस का खुलकर समर्थन किया है। रूस की आशंका रही है कि नाटो के जरिए अमेरिका रूस के खिलाफ बड़ा षड्यंत्र रचने में जुटा हुआ है। ‘क्वाड’ समूह की गतिविधियों को भी रूस एवं चीन संदेह की दृष्टि से देखते आए हैं। रूस भी ताइवान के मसले पर चीन का खुलकर समर्थन करता रहा है। रूस का मानना है कि ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा रहा है और भविष्य में भी वह पूर्ण रूप से चीन में ही समाहित हो जाएगा। भारत इस चलते गंभीर स्थिति का सामना कर रहा है। चीन और रूस के मध्य दोस्ती जितनी प्रगाढ़ होगी, भारत को चीन से उतना ही ज्यादा खतरा बढ़ेगा। इसलिए हर दृष्टि से भारत का रूस-यूक्रेन युद्ध में किसी भी एक पक्ष के साथ खड़ा होना भारतीय हितों के लिए घातक साबित हो सकता है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस मुद्दे पर लगभग तटस्थ रुख अपनाया हुआ है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत सरकार ने रूस संग अपनी ऐतिहासिक मित्रता और चीन की विस्तारवादी नीति को समझते हुए भी यूक्रेन हमले पर पूरी तरह रूस का समर्थन नहीं किया है। भारतीय स्टैंड बहुत स्पष्ट है। भले ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की बैठक में रखे गए रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव का भारत ने बहिष्कार करा हो, प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतांत्रिक परिधि के भीतर रहने और हिंसा के बजाए संवाद के जरिए समस्या का हल निकाले जाने की बात कह यह स्पष्ट कर दिया है कि हम इस आक्रमण का समर्थन नहीं करते हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह स्टैंड अपना खासा महत्व रखता है। यहां तक कि चीन ने भी खुलकर रूसी हमले के समर्थन में कुछ नहीं कहा है। उसका स्टैंड भी लगभग भारत के समान ही है। भारत हर पक्ष के साथ बातचीत के जरिए इस युद्ध को रोकने और आपसी मतभेदों को भुलाने की वकालत कर रहा है। यहां यह भी समझना जरूरी है कि अकेले पुतिन को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। विदेश मंत्री एस ़जयशंकर कह भी चुके हैं कि इस युद्ध के पीछे सोवियत काल का इतिहास और सोवियत संघ की टूट के बाद तेजी से बदलते राजनीतिक हालात भी जिम्मेदार हैं। भारत दरअसल इस मुद्दे पर असमंजस की स्थिति में भी है। असमंजस पुराने और भरोसेमंद मित्र रूस और नए बने मित्र अमेरिका के चलते पैदा हो चुका है। 2007 में जापानी प्रधानमंत्री शिजो एबे की पहल पर अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने ‘क्वाड’ नाम से एक गु्रप बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य हिंद प्रशांत क्षेत्र में शांति बनाए रखना है। चीन इस समूह को अपने खिलाफ एक षड्यंत्र के रूप में देखता आया है। चीनी दबाव में ही ऑस्ट्रेलिया इस समूह से बाहर तक हो गया था। 2010 में लेकिन एक बार फिर ऑस्ट्रेलिया इसका हिस्सा बन गया। दरअसल चीन का मानना है कि अमेरिका और जापान इस समूह के जरिए प्रशांत महासागर में अपनी सैन्य गतिविधियां बढ़ाना चाहते हैं। भारत के लिए इस समूह का हिस्सा बनना रणनीतिक जरूरत है। चीन के आक्रामक रूख से सर्तक भारत इस क्वाड समूह के देशों से आवश्यकता पड़ने पर सैन्य मदद की अपेक्षा करता है। रूस भी ‘क्वाड’ समूह के गठन को लेकर अपनी आशंका व्यक्त करता आया है। रूस का भी मानना है कि इस प्रकार के समूह बना अमेरिका प्रशांत महासागर में अपनी सैन्य गतिविधियों को विस्तार दे रूस पर दबाव बना रहा है। भारत के इस समूह का हिस्सा बनने का रूस खुलकर प्रतिरोध कर चुका है। यहां यह भी समझना जरूरी है कि रूस अब अपने हितों को चीन संग जोड़ कर देखने लगा है। ऐसे में भारत का ‘क्वाड’ का हिस्सा बनना रणनीतिक समझदारी के साथ-साथ रूस को दबाव में लेने की रणनीति भी रही है। कुल मिलाकर पूरा मसला बेहद पेचीदा, बड़ी ताकतों के मध्य घात-प्रतिघात से लेकर आर्थिक कारणों के मकड़जाल से जुड़ता है। ऐसे में यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर मानवीय सरोकारों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा का ध्यान रखा जाना ही समझदारी है। भारत ने ऐसा ही किया है। रूस के आक्रमण को जायज न ठहरा भारत लोकतांत्रिक मूल्यों और अहिंसा के सिद्धांत पर कायम रहने का प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पेश रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव में भागीदारी न कर वह रूस संग अपनी मित्रता को बचाए रखने की जद्दोजहद करता नजर आ रहा है। वर्तमान परिदृश्य में हमारी सरकार का यह स्टैंड मेरी समझ से दूरदर्शी और सही कदम है।

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