पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो का मानना था कि चीन के हाथों मिली पराजय चलते भारतीय सैन्य बलों का मनोबल टूट चुका है और भारत गंभीर आर्थिक संकटों का सामना कर रहा है। भुट्टो की नजरों में लाल बहादुर शास्त्री कमजोर प्रधानमंत्री थे और पाकिस्तानी सेना के पास भारतीय सेना के मुकाबले बेहतर हथियार और अमेरिका से मिले घातक पैटन टैंक थे जिनकी तोड़ भारतीय सेना के पास नहीं थी। अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी अमेरिका और चीन पाकिस्तान के बेहद करीब होने जा रहे थे। पाकिस्तान में सेना का शासन था जिसकी कमान फील्ड मॉर्शल जनरल अयूब के हाथों में थी। भुट्टो की सलाह जनरल अयूब के मनमाफिक थी जिस चलते पाकिस्तान ने गुजरात की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सबसे पहले घुसपैठ करने की योजना को परवान चढ़ाया। गुजरात के साथ लगती पाकिस्तानी सीमा से साथ सटे जिले कच्छ का एक बड़ा इलाका नमकीन दलदल का विरान इलाका है जो कच्छ का रण कहलाता है। कच्छ के रण की पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से मिलती है। पाकिस्तान ने इसी इलाके में जनवरी, 1965 से लगातार घुसपैठ करने का काम शुरू किया। इस घुसपैठ का उद्देश्य भारत की प्रक्रिया और उसकी सैन्य क्षमता का आकलन करना भर था, असल लक्ष्य कश्मीर पर हमला कर उसे हथियाने का था।
लाहौर तक जा पहुंची थी भारतीय सेना

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-63
पाकिस्तानी सेना जनवरी से मार्च, 1965 के मध्य लगातार भारतीय इलाकों पर घुसपैठ करती रही। 9 अप्रैल को यह घुसपैठ सीधे युद्ध में तब्दील हो गई। पाकिस्तानी सेना की एक पूरी ब्रिगेड ने कच्छ के रण क्षेत्र में भारत पर हमला बोल दिया। इस हमले के लिए भारतीय सेना तैयार नहीं थी जिस कारण उसे पीछे हटना पड़ा और काफी बड़े भारतीय इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया। अंतरराष्ट्रीय दबाव में दोनों देशों के मध्य समझौता हुआ जिसके अनुसार कुछ भारतीय इलाके को पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया। भारतीय विपक्षी दलों, विशेषकर जनसंघ एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने इस समझौते के लिए लाल बहादुर शास्त्री सरकार की कड़ी आलोचना भी की थी। जून, 1965 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री की मध्यस्थता चलते एक तीन सदस्य आयोग को कच्छ के रण में दोनां देशों की सीमा तय करने का काम सौंपा गया और यह तय किया गया कि इस रिपोर्ट के आने तक दोनों देशों के मध्य युद्ध विराम रहेगा। 1968 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसके अनुसार भारत के हिस्से वाले इलाके से 350 मील का इलाका पाकिस्तान को सौंप दिया गया था। युद्ध विराम के दौरान इससे कहीं अधिक भारतीय इलाके में पाकिस्तानी सेना का कब्जा रहा जिसने जनरल अयूब के कश्मीर पर हमला करने की मंशा को परवान चढ़ाने का काम किया। कच्छ के रण में मिली सफलता चलते जनरल अयूब को विश्वास हो चला था कि भारतीय सेना को पाकिस्तानी सेना कश्मीर क्षेत्र में हरा पाने में सफल रहेगी। इस विश्वास का नतीजा जल्द ही पाकिस्तानी सेना के ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ (Operation Gibraltar) के रूप में सामने आया। कच्छ के रण में भारत पर किए गए आक्रमण को पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन डेर्जट’ का नाम दिया था जिसमें मिली आंशिक सफलता से उत्साहित जनरल अयूब ने ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के दुस्साहस को अंजाम दे डाला। पाकिस्तान के साथ भारत की 470 मील लंबी सीमा कश्मीर में लगती है। इसे सीज फायर लाइन कहते हैं। इस अंतरराष्ट्रीय सीमा पर 1947 से ही संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि नजर रखने का काम करते थे ताकि दोनों देशों की सेनाएं युद्ध विराम का उल्लंघन न करें। 5 अगस्त, 1965 में जनरल अयूब के आदेश पर इस सीज फायर रेखा का उल्लंघन करते हुए पाकिस्तानी सेना ने शामिल होते हुए भी इसे आजाद कश्मीर के जेहादियां को आगे कर लड़ा ताकि सीधे तौर पर पाकिस्तान का नाम सामने न आए। पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद मूसा के अनुसार इस आक्रमण को कश्मीरी जनता का विद्रोह बताने की रणनीति तत्कालीन विदेश मंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो ने की थी जिसे जनरल अयूब का पूरा समर्थन प्राप्त था। कश्मीर में कथित विद्रोह की बात कह जनरल अयूब का इरादा भारत पर खुले तौर पर आक्रमण करने का भी था। ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के विफल होने बाद जनरल मूसा ने इसकी पूरी जिम्मेदारी भुट्टो पर डालते हुए कहा था-‘History has proved that the success of guerrilla warfar greatly-depends on the co-operation of the people of the area where it is carried outè Professional assessment in this respect did not appear to have had the desired impact in this case. Historical lessons are ignored.’ (इतिहास ने साबित कर दिया है कि गुरिल्ला लड़ाई की सफलता स्थानीय जनता के सहयोग पर पूरी तरह निर्भर करती है। इस मसले पर लेकिन ठीक तरीके से पेशेवर मूल्यांकन किए बगैर और इतिहास से सबक लिए बगैर कार्य को अंजाम दिया गया। जिस चलते नतीजे अपेक्षानुसार नहीं रहे।)
भारतीय सेना ने पाकिस्तान द्वारा रचित इस कथित कश्मीरी अवाम के कथित विद्रोह का मुंहतोड़ जवाब दे ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ को विफल करने का काम किया। इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना की सबसे बड़ी विफलता और भारत की सबसे उल्लेखनीय जीत पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में स्थित हाजीपीर दर्रे पर भारतीय सेना का कब्जा होना था। 28 अगस्त, 1965 के दिन आजाद भारत के इतिहास में पहली बार भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार कर पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद पाकिस्तानी सेना के ठिकानों पर धावा बोल दिया। उरी क्षेत्र में की गई इस कार्रवाई चलते पाक सेना को नौ महत्वपूर्ण इलाकों से पीछे हटना पड़ा था और हाजीपीर दर्रे पर भारत का कब्जा हो गया था। यह पाकिस्तान की बड़ी हार थी जिससे तिलमिलाए पाक सैन्य प्रशासक जनरल अयूब ने भारत पर हमले की अपनी योजना के तीसरे चरण ‘ऑपरेशन ग्लैंडस्लेम’ को अंजाम देने का निर्णय ले लिया। इस योजना के तहत 1 सितंबर, 1965 के दिन पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर के छंब इलाके में भारी हमला कर दिया। इत्तेफाक से इसी दिन महाराष्ट्र के महत्वपूर्ण शहर पुणे में कौमी दंगे भी शुरू हो गए। दंगों की विकरालता को देखते हुए राज्य सरकार को सेना से मदद की गुहार लगानी पड़ी। शास्त्री के समक्ष पाकिस्तानी हमले के साथ-साथ देश भीतर धार्मिक सौहार्द के बिगड़ने का खतरा आन खड़ा हुआ। छोटे कद के मृदभाषी लाल बहादुर शास्त्री की क्षमताओं को लेकर आशंकित कांग्रेस और विपक्ष के एक बड़े वर्ग को इल्म भी नहीं था कि वे किस मिट्टी के बने हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों देशों पर युद्ध विराम का दबाव बनाने लगा था। पाकिस्तानी सेना ने 5 सितंबर के दिन जम्मू के निकटवर्त्ती शहर जौड़िया को अपने कब्जे में ले लिया। पाकिस्तानियों का इरादा सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अखनूर को अपने कब्जे में लेना था। पाकिस्तानी सीमा से सटा चिनाव नदी के किनारे बसा अखनूर शहर और 1802 में बनाया गया अखनूर किला सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। जौड़िया में कब्जे की खबर आते ही पाकिस्तान में जश्न का माहौल पैदा हो गया। अब पाक सेना का अगला टारगेट चिनाव नदी पर बना पुल था जिस पर यदि उसका कब्जा हो जाता तो कश्मीर घाटी का शेष भारत से संपर्क पूरी तरह टूट जाता। जनरल अयूब और पाक सेना के प्रमुख जनरल मूसा ने अपनी सेना को बधाई देते हुए जौड़िया की जीत को भारत की बड़ी हार करार दे डाला। जनरल मूसा ने अपने सैन्य कमांडर को भेजे संदेश में कहा ‘you have got your teeth in him. Bite deeper till you destroy him, and destroy you will, god willing.’ (तुमने उनके भीतर अपने दांत गड़ा दिए हैं। उन्हें गहरा और गहरा काटो, तब तक जब तक वह खत्म न हो जाएं। तुम उन्हें खत्म कर सकते हो, इंशा अल्लाह।) अपनी जीत से उत्साहित पाकिस्तान ने 5 सितंबर के दिन ही अमृतसर स्थित भारतीय वायु सेना के ठिकाने पर अपने F.86 फाइटर जहाजों से भारी गोलाबारी कर डाली। इन हवाई हमलों के दौरान ही एक पाक बम वर्षक ने जौड़िया में एक मस्जिद पर हमला बोला। इस हमले में मस्जिद में नमाज अदा कर रहे 50 लोगों की मौत हो गई। पाकिस्तानी वायुसेना की इस कायरतापूर्ण कार्रवाई ने पूरे देश को आक्रोशित करने का काम किया। भारतीय मुसलमानों ने विशेषकर पाकिस्तान की निंदा करते हुए लाल बहादुर शास्त्री को अपना पूर्ण समर्थन देने का एलान कर दिया। शास्त्री ने पाकिस्तान को उसके दुस्साहस का कड़ा जवाब देने का मन तब तक बना लिया था। तमाम अंतरराष्ट्रीय दबाव को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने तत्कालीन थल सेना प्रमुख जनरल जेएन चौधरी और वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मॉर्शल अर्जन सिंह को पाकिस्तान पर हमले का आदेश दे डाला। 5-6 सितंबर, 1965 को भारतीय सेना पाकिस्तान के शहर लाहौर के निकट जा पहुंची। पाकिस्तानी सैन्य प्रशासक जनरल अयूब के लिए शास्त्री का निर्णय भारी अचंभित और भयभीत करने वाला रहा। लाहौर को बचाने के लिए अयूब को अखनूर में युद्धरत अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा। भारतीय फौजें तेजी से पूर्वी पाकिस्तान के भीतर प्रवेश करने लगी थीं और लाहौर को उसने पूरी तरह से घेर लिया था। शास्त्री सरकार के इस कदम ने विश्व भर को सकते में डालने का काम करा था। ब्रिटेन, अमेरिका और रूस समेत विश्व की महा ताकतों को तृतीय विश्व युद्ध की आशंका सताने लगी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैराल्ड विल्सन ने शास्त्री और अयूब से तत्काल युद्ध विराम की अपील करते हुए अप्रत्यक्ष तौर पर भारत को इसका जिम्मेवार ठहराने के संकेत अपने संदेश में दिए। शास्त्री ने हैराल्ड विल्सन को कड़ा प्रतिउत्तर भेजा। उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को कहा कि वे अपने सैन्य सलाहकारों से सलाह लें जिससे उन्हें पता चल सके कि पाकिस्तान द्वारा 1 सितंबर को छंब इलाके में हमला किए जाने चलते भारत के समक्ष स्थितियां कितनी खराब हो गई थीं।
क्रमशः