पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-35
भले ही जिन्ना पाकिस्तान की संविधान सभा की पहली बैठक में आशावादी बातें और साम्प्रदायिक सौहार्द की पैरोकारी कर रहे थे, पूरा अविभाजित इलाका भारी हिंसा का शिकार हो चला था। 13 अगस्त के दिन जब वायसराय अगले दिन होने जा रहे आजादी के जश्न में शामिल होने और नए राष्ट्र पाकिस्तान की घोषणा करने कराची पहुंचे तब तक उन्हें खुफिया पुलिस की चेतावनी मिल चुकी थी कि इस समारोह से पहले ही बंटवारे से नाराज उग्रपंथी सिखों का एक समूह जिन्ना की हत्या का प्रयास कर सकता है। पाकिस्तान की औपचारिक घोषणा और सत्ता हस्तांतरण कार्यक्रम कराची स्थित विधानसभा में होना था। जिन्ना अपने आवास से सभा भवन तक कार्यक्रम के बाद खुली गाड़ी में जाने पर अडिग थे। सत्ता हस्तांतरण के बाद जब जिन्ना खुली गाड़ी में सवार हुए तो लॉर्ड माउंटबेटन पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल के साथ उसी गाड़ी में जा बैठे। उनका मानना था कि सिख उग्रपंथी उन पर हमला करने का दुस्साहस नहीं करेंगे और इस तरह से जिन्ना की हिफाजत हो जाएगी। वोलपर्ट से 1978 में बातचीत के दौरान इस घटना का जिक्र करते हुए माउंटबेटन ने कहा ‘It occured to me that the best way for me to protect him would be to insist on our riding in the same carriage… I knew that no one in that crowd would want to risk shooting me and Luckily it worked beautifully, but such was Jinnah’s vanity, you know, that no sooner did we get inside the gates of the Government House than he tapped me and said ”Thank God I was able to bring you back alive’ (मुझे लगा कि उनको (जिन्ना को) बचाने का सबसे सही तरीका यही हो सकता है कि मैं उनके साथ एक ही गाड़ी में वापस जाने का आग्रह करूं।….मुझे पता था कि इस भीड़ में शामिल कोई भी मुझ पर गोली चलाने का खतरा नहीं उठाएगा और ऐसा ही हुआ भी। लेकिन जिन्ना को घमंड इस कदर था कि जैसे ही हम उनके सरकारी आवास पहुंचे उन्होंने मेरे घुटनों पर हाथ मारकर कहा ‘खुदा का शुक्र है कि मैं आपको जिंदा बचा लाया’)।
इसी शाम माउंटबेटन और उनकी पत्नी नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए जहां 14 अगस्त की रात ठीक 12 बजे जब अंग्रेजी कलैंडर के अनुसार 15 अगस्त की शुरुआत हो चली थी आजादी की औपचारिक घोषणा कर दी गई। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा ‘हमने नियति को मिलने का एक वचन किया था और अब समय आ गया है कि हम अपने वचन को निभाएं। पूरी तरह न सही, लेकिन बहुत हद तक। आज रात बारह बजे जब पूरी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन की स्वतंत्रता की नई सुबह के साथ उठेगा….।
इस तरह दो सौ वर्ष की गुलामी बाद भारत आजाद हो गया। जब पूरा देश इस आजादी का जश्न मनाने में जुटा था तब साबरमती का संत गहरे अवसाद में डूबा, दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर बंगाल में उपवास पर बैठा था। चारों तरफ भड़क उठे दंगों ने गांधी को गहरे सदमे में पहुंचा दिया था। 17 अगस्त को जैसे ही रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट जारी हुई दोनों राष्ट्रों में भारी उत्पात शुरू हो गया। पंजाब में हालात सबसे ज्यादा खराब हो गए जहां अमृतसर में सिखों ने चुन-चुन कर मुसलमानों का कत्ल करना शुरू कर दिया तो लाहौर में मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों का कत्लेआम कर डाला। बंटवारे के साथ ही बड़ी तादात में हिंदुओं और सिखों का पाकिस्तान से भारत और मुसलमानों का भारत छोड़ पाकिस्तान में शरण लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई। बंटवारे से पहले भारत की कुल जनसंख्या 39 करोड़ थी। बंटवारे के बाद भारत की जनसंख्या 33 करोड़ और पाकिस्तान की जनसंख्या 6 करोड़ रह गई। लगभग सात लाख, 22 हजार मुसलमानों ने भारत छोड़ पाकिस्तान बेहतर समझा था। इसी प्रकार लगभग साढ़े सात लाख सिखों और हिंदुओं ने पाकिस्तान छोड़ भारत की शरण ली। इस तरह कुल मिला कर साढ़े चौदह लाख लोग सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस बंटवारे चलते शरणार्थी बनने को मजबूर हुए। इतिहास में अब तक का यह सबसे बड़ा विस्थापन कहा जाता है। इस बंटवारे के चलते शुरू हुए दंगों में मरने वालों की संख्या दो लाख से बीस लाख के मध्य रही। 1951 में दोनों देशों में हुई जनगणना अनुसार ऐसे मुसलमान जिन्होंने भारत के बजाए पाकिस्तान जाना उचित समझा उनमें से 13 लाख कभी वहां पहुंच ही नहीं पाए। इसी प्रकार 8 लाख हिंदू और सिख भी कभी भारत नहीं पहुंचे। कुल मिलाकर गायब हुए नागरिकों की संख्या लगभग 21 लाख रही। यदि इन गायब हुए लोगों को दंगों के दौरान मारे गए लोगों के साथ रखा जाए तो इस बंटवारे चलते 22 लाख से अधिक लोगों की जान चली गई।
आज जब आजादी के पिचहत्तर वर्ष पूरे हो चले हैं और एक नए किस्म के राष्ट्रवाद का भूत आमजन के दिलों- दिमाग में काबिज कराया जा चुका है, आजादी के नायकों, विशेषकर गांधी की विभाजन में भूमिका को लेकर नाना प्रकार के भ्रम स्थापित किए जा रहे हैं। ऐसे में इतिहास की यात्रा कर यह समझना और समझाया जाना जरूरी है कि क्या वाकई वे जिनके लंबे संघर्ष बाद हम गुलामी की जंजीर तोड़ आजाद हो पाए, इस विभाजन के गुनहगार हैं? क्या महात्मा गांधी इस विभाजन के लिए सहमत थे? क्या गांधी ने वाकई 1944 में ही चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा प्रस्तावित विभाजन योजना के लिए अपनी सहमति दे दी थी? नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, गोविंद बल्लभ पंत सरीखे कांग्रेसी दिग्गजों की इस पूरे काल में क्या भूमिका रही? और सबसे महत्वपूर्ण ब्रिटिश हुकूमत की इस पूरे प्रकरण में भूमिका क्या थी? ऐसे कई प्रश्न हैं जिनका उत्तर इतिहास के पन्नों में गहरे दफन हैं। इतिहासकार इन प्रश्नों का उत्तर अपनी विचारधारा और अपनी सोच के बोझ तले दबकर तलाशने का आधा-अधूरा प्रयास समय-समय पर करते रहे हैं लेकिन सत्य कभी संपूर्ण रूप से सामने नहीं आ पाया है। हरेक ने इतिहास का पोस्टमार्टम करते समय समग्र रूप से समय, काल और परिस्थितियों को समझने के बजाए व्यक्ति विशेष के आचरण और निर्णयों के जरिए अपना नजरिया पेश कर कभी जिन्ना तो कभी गांधी को इस त्रासदी के लिए जिम्मेवार ठहरा सत्य को कहीं गहरे दफन करने में अपना योगदान देने का काम किया है। 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘गिल्टी मैन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ में समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने इस विभाजन के आठ कारणों पर प्रकाश डाला। लोहिया के अनुसार ये आठ कारण हैं : 1. ब्रिटिश सरकार की कपटपूर्ण नीतियां, 2.़कांग्रेस नेतृत्व में कमजोरी, 3. हिंदू- मुस्लिम दंगे, 4.आम जनता की नासमझी, 5.गांधी जी की अहिंसा, 6.मुस्लिम लीग की फूट नीति, 7. ़अवसरों का लाभ न उठा पाने की कमजोरी और 8.हिंदू अहंकार। डॉ. लोहिया इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं-‘मैं नहीं समझता कि जो कारण मैंने गिनाए हैं इनके अलावा भी देश विभाजन के अन्य कोई मौलिक कारण रहे हैं। बीते आठ सौ वर्षों के दौरान हिंदू और मुस्लिम के मध्य रिश्ते अलगाव और समीपता की लुका-छुपी का खेल खेलते रहे हैं जिस चलते एक अखण्ड राष्ट्र के प्रति उनकी भावना खंडित रही है। इतना ही नहीं भारतीय जन का यह स्वभाव हालातों के साथ इस कदर समझौता परस्त हो चला है कि विश्वभर में कहीं भी गुलामी को विश्व बंधुत्व अथवा गद्दारी का पर्याय मानने का कोई अन्य उदाहरण नजर नहीं आता है। मुख्य रूप से इन्हीं दो कारणों के चलते हिंदू-मुस्लिम समस्या बनी रही जिसका नतीजा रहा ब्रिटिश कुटिलता और बूढ़े हो चले कांग्रेसी नेताओं की गलतियों का नतीजा आज इस कड़वे फल के रूप में सामने है।’
नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा की हत्या को जायज मानने वालों की नजर में गांधी इस विभाजन के असल गुनहागार हैं। इतिहास की ईमानदार यात्रा यह प्रमाणित करती है कि गांधी अंतिम समय तक विभाजन रोकने का प्रयास करते रहे थे। वे इस विभाजन को रोकने के लिए संपूर्ण सत्ता जिन्ना को दिए जाने तक के लिए तैयार थे लेकिन कांग्रेस भीतर ही वे 1945 के बाद पूरी तरह हाशिए में डाले जा चुके थे। उनके सबसे करीबी अनुयायी नेहरू और पटेल तक ने उनकी बातों को महत्व देना कम कर दिया था। सरदार पटेल का मानना था कि ‘यदि भारत को एक रखना है तो उसका विभाजन जरूरी है।’ एक तरफ गांधी लॉर्ड माउंटबेटन को विभाजन रोकने के लिए जिन्ना के हाथों आजाद भारत की कमान सौंपने का प्रस्ताव दे रहे थे तो दूसरी तरफ 15 जून, 1947 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में मौजूद सदस्य एक मत से इस विभाजन योजना को स्वीकृति दे रहे थे। इस बैठक में मौजूद खान अब्दुल गफ्फार खान, जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया को छोड़ लगभग सभी ने विभाजन के लिए अपनी सहमति दी थी। लोहिया ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन’ में लिखते हैं कि ‘गांधी जी ने इस बैठक में अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए कहा था कि नेहरू और पटेल ने विभाजन के बारे में उनसे कोई बात तक नहीं की। नेहरू ने महात्मा की बात काटते हुए कहा कि उनको वे पूरी जानकारी देते रहे हैं। गांधी ने जब दोबारा कहा कि उन्हें विभाजन की योजना के बारे में नहीं बताया गया था तो नेहरू का जवाब था कि नोआखाली इतनी दूर हैं कि वे उन्हें विस्तार से इस योजना की बाबत नहीं बता सके होंगे लेकिन मोटे तौर पर उन्होंने गांधी को सूचित किया था।’