मेरी बात
उत्तर प्रदेश के तीन दफा मुख्यमंत्री रहे, देश के रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव 82 वर्ष की आयु में 10 अक्टूबर के दिन दिवंगत हो गए। उनके न रहने पर उनके अनुयायियों से लेकर सभी राजनीतिक दलों ने नेताओं ने शोक जताते हुए उन्हें समाजवादी धारा के एक शिखर पुरुष बतौर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। अंग्र्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ ने 10 अक्टूबर के अपने मुख्य पृष्ठ में लिखा है ‘Samajwadi architect Mulayam is no more’ (समाजवादी आर्किटेक्ट मुलायम नहीं रहे)। हमारे देश की यह परंपरा रही कि किसी के न रहने पर उसका स्तुतिगान किया जाता है। मुलायम सिंह यादव के न रहने पर भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। समाजवादी विचारधारा के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण का जिक्र चौतरफा हो रहा है, समग्र मूल्यांकन लेकिन नदारत है। ‘नेताजी’ के नाम से लोकप्रिय मुलायम सिंह यादव खुद को समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया का शिष्य कहलाया जाना पसंद करते थे और राजनीति में उनके रहते और अब न रहने पर यही उनकी पहचान है। निश्चित ही मुलायम सिंह समाजवादी सोच के थे और ताउम्र उन्होंने अपनी राजनीति को इसी सोच के ईद-गिर्द बनाए रखा। लोहिया के विचारों से गहरे प्रभावित मैनपुरी, उत्तर प्रदेश के इस पहलवान ने सौ में से साठ प्रतिशत की हिस्सेदारी पिछड़ों को दी जानी चाहिए, के लोहिया दर्शन को अपनी राजनीति का मूल आधार बना उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरणों के जरिए कांग्रेस का सफाया कर दिखाया। स्मरण रहे साठ और सत्तर के दशक में जब नेहरू का समाजवादी-पूंजीवाद का दर्शन अपनी चमक खोने लगा था तब लोहिया के समाजवादी मॉडल सहारे हिंदी पट्टी में कई ‘छोटे लोहिया’ और ‘अपने लोहिया’ राजनीति के मैदान में अपनी जड़ें मजबूत करने में जुट गए थे। मुलायम सिंह यादव ऐसों में से एक थे जिन्होंने इस मॉडल सहारे फर्श से अर्श तक पहुंचने का कमाल कर दिखाया। चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर मुलायम सिंह ने किसानों और पिछड़ों के हकों को लेकर खासा काम किया। विशेषकर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए संघर्ष कर अपने को उनका उत्तर प्रदेश में एकछत्र और एकमात्र नेता बनाने में वे सफल रहे। अस्सी के दशक का पूर्वार्ध मुलायम सिंह के लिए सही अर्थों में उदयकाल रहा। मंडल और कमंडल के इस दौर में मुलायम पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के मसीहा बन उभरें और इसके बाद कभी भी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव ने यह सरकार भाजपा के बाहरी समर्थन से बनाई थी। 1991 में भाजपा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने बाद यह सरकार गिर गई। 1992 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व वाले ‘जनता दल’ से नाता तोड़ मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी की नींव रखी। 1993 में हुए विधानसभा चुनाव के लिए कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी संग गठबंधन कर भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में सफल रहे मुलायम सिंह का रिश्ता लेकिन बहुजन समाज पार्टी संग अस्थाई रहा और मुख्यमंत्री पद को लेकर चली खींचतान बाद यह गठबंधन टूट गया। इस तरह दूसरी बार वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मात्र 6 महीने ही रह पाए। जून 1996 में वे एच ़डी ़ देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी जनता दल सरकार में रक्षा मंत्री बनाए गए और फिर अगस्त 2003 में वे तीसरी और अंतिम बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने में तब सफल रहे जब भाजपा और बसपा के गठबंधन वाली सरकार गिर गई और बड़ी संख्या में बसपा के विधायकों ने दल-बदल कर मुलायम को समर्थन दे उनकी सरकार बना दी। यही वह सरकार थी जिसके मुखिया रहते मुलायम सिंह यादव समाजवादी विचारां को पूरी तरह तिलांजली दे पूंजीपतियों के हमराहगीर हो चले थे। हालांकि अपने आदर्श डॉ राममनोहर लोहिया के बताए मार्ग से तो मुलायम 1977 में पहली बार उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में बनी सरकार में मंत्री बनने के साथ ही भटकने लगे थे लेकिन उनके इस विचलन का उत्कर्ष उनके तीसरे मुख्यमंत्रित्वकाल में सबसे ज्यादा देखने को मिलता है जब उनकी सरकार उनके अभिन्न मित्र बन चुके अमर सिंह चलाने लगे थे। मुलायम सिंह की यह सरकार नाना प्रकार के विवादों और भ्रष्टाचार का केंद्र बन कर रह गई थी। अमर सिंह के ऑडियो टेपर्स में उनके और मुलायम सिंह यादव के मध्य कथित वार्तालाप समाजवादी विचारों से मुलायम सिंह यादव को कहीं दूर ऐसे राजनेता में बदल देता है जिसका उद्देश्य हर कीमत पर सत्ता में बने रहना और उस सत्ता को बनाए रखने के लिए भ्रष्ट तरीकों से धन उपार्जन करना मात्र था। नब्बे के दशक में जब मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में खुद को पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का नेता स्थापित करने की जद्दोजहद कर रहे थे तब उन्होंने जातिवाद का भी जमकर पोषण-दोहन किया और राजनीति के अपराधीकरण में भी अपना ‘योगदान’ अपनी सहुलियत अनुसार दिया। उत्तर प्रदेश के कुख्यात माफिया धर्मपाल यादव उर्फ डीपी यादव को सफेदपोश बनाने वाले मुलायम सिंह ही थे। लोहिया कहा करते थे कि ‘कमजोर हड्डी’ से राजनीति नहीं की जाती। मुलायम सिंह इस दृष्टि से कमजोर हड्डी की राजनीति करते थे। लोहिया कहा करते थे कि‘ …हर स्कूली बच्चे को यह मालूम होना चाहिए कि राताओं की फूट के कारण नहीं बल्कि लोगों की उदासीनता के कारण हमलावरों को कामयाबी मिली। इस उदासीनता का सबसे बड़ा कारण जाति है। जाति से उदासीनता आती है और उदासीनता से हार।’ मुलायम सिंह यादव की पूरी राजनीति अपने आदर्श से ठीक उलट जाति पर आधारित और केंद्रित रही। लोहिया ताउम्र राजनीति में सबसे पिछड़े और गरीब को स्थापित करने में लगे रहे थे। मुलायम सिंह यादव ने भी यही करने का बीड़ा उठाया। वे काफी हद तक इसमें सफल भी हुए। उन्होंने उत्तर प्रदेश में विशेषकर पिछड़ों को मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास सफलतापूर्वक किया लेकिन वे सत्ता में बने रहने की लालसा का इस कदर शिकार हो गए कि उन्होंने लखनऊ में तो अपने गुरु की याद में भव्य ‘लोहिया पथ’ और ‘पार्क’ का निर्माण करा डाला लेकिन स्वयं लोहिया के बताए मार्ग पर चलना छोड़ दिया। समाजवाद की बुनियाद समता के सपने पर आधारित है। समता का सपना ही मनुष्य का और समाजवाद का पहला और अंतिम सपना है। मुलायम सिंह ने अपनी पहचान तो ताउम्र इस सपने को जियाए रखने और बनाए रखने पर केंद्रित रखी लेकिन स्वयं वे तड़क-भड़क की राजनीति के वश में आते चले गए। लोहिया यदि आज पूरी तरह अप्रासांगिक हो चुके हैं तो इसके लिए अगर कोई सबसे ज्यादा दोषी है तो वे लोहियावादी हैं जिन्होंने लोहिया को आगे कर अपनी राजनीति तो गर्म करी लेकिन गुरु के बताए मार्ग पर कभी चले नहीं। मंडल और कमंडल की राजनीति के दौर में उभरे लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने यह आस जगाई थी कि राजनीतिक ताकत उनके हाथों में आने बाद लोहिया दर्शन जगमगाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कह सकते हैं कि श्राद्ध जयंतियों को धूमधाम से मनाने सिवा लोहिया को उनके ही शिष्यों ने कहीं गहरे दफन कर दिया। मुलायम सिंह कांग्रेस के एक दौर में कटु आलोचक थे। उत्तर प्रदेश की राजनीति से कांग्रेस का
नामोनिशान मिटाने की कवायद उन्होंने ही शुरू की थी। 1999 में जब सोनिया गांधी ने सरकार बनाने का प्रयास किया था तो उनकी विफलता का एक बड़ा कारण मुलायम सिंह थे जिन्होंने सोनिया के नेतृत्व में बनने वाली सरकार को समर्थन देने से इंकार कर दिया था। सोनिया के विदेशी मूल का होने को भी मुलायम सिंह ने मुद्दा बनाने में अपना सक्रिय योगदान दिया था लेकिन अपनी राजनीतिक सुविधानुसार वे अपना स्टैंड बदलने में भी देर नहीं लगाया करते थे। 2008 में जब वामपंथी दलों के कड़े विरोध चलते कांग्रेस नेतृव वाली यूपीए सरकार द्वारा अमेरिका संग होने जा रहा परमाणु करार खतरे में पड़ा तो मुलायम सिंह ने ही आगे बढ़कर कांग्रेस को सहारा दिया जिस चलते यह करार हो पाया था। मुलायम सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी होने के साथ-साथ जमीनी नेता भी थे। अंतिम समय तक उनका संपर्क आमजन के साथ सीधे बना रहा। मैं एक ऐसी ही घटना का चश्मदीद हूं जिसमें समझा जा सकता है कि मुलायम सिंह कम से कम इस एक मायने में तो अंत तक समाजवादी गुण अपनाए रहे। बात शायद सन् 2011 अंत की है। मैं नेताजी से मिलने उनके दिल्ली स्थित आवास गया था। उत्तर प्रदेश में कुछ अर्सा बाद ही विधानसभा चुनाव होने वाले थे जिस चलते उनके आवास पर टिकट मांगने वालों की भीड़ जमा थी। हरेक अपनी बात उन तक रखना चाहता था। नेताजी ऐसे सभी को समझाने का प्रयास कर रहे थे कि टिकट का बंटवारा अखिलेश यादव करेंगे इसलिए जो भी बात कहनी है उसे अखिलेश से कहो। लेकिन कोई भी ऐसा करने को राजी नहीं था। सबको नेताजी से ही बतियाना था। मुलायम सिंह ने मुझे अंदर बैठने को कहा और स्वयं भी मेरे साथ भीतर जाने के लिए उठ खड़े हुए। ऐसे में यकायक ही एक ठेठ देसी परिधान पहने व्यक्ति ने नेताजी की धोती पकड़ कहा ‘हम आपको कहीं जाने नहीं देंगे।’ एक बारगी तो ऐसा लगा कि कहीं नेताजी की धोती ही न खुल जाए। मुलायम सिंह अपने इस समर्थक पर पहले तो नाराज हुए फिर उसी के पास बैठ आत्ममियता से बोले ‘कहो क्या कहना चाहते हो?। बस समर्थक खुश, माहौल शांत। मेरे लिए यह अनुठा अनुभव था मुलायम सिंह के इस मुलायम पक्ष को समझने का। उनका एक और अनुभव भी आज उनके न रहने पर साझा करने का जी चाह रहा है। जब वे तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब हमारा यह अखबार उत्तर प्रदेश में खासा लोकप्रिय हुआ करता था। एक दिन मुझे लखनऊ से एक वरिष्ठ पत्रकार ने फोन कर जब यह कहा कि ‘भाई कुछ तो दम है तुम्हारे अखबार में कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का मुख्यमंत्री उसे पढ़ता है।’ यह सुन मैं दंग रह गया। पूछने पर उन्होंने बताया कि इन दिनों अपनी सरकार पर, विशेषकर अपने भाई और मंत्री शिवपाल यादव पर जो कुछ ‘दि संडे पोस्ट’ में प्रकाशित हो रहा है उस पर मुलायम सिंह लगातार नजर रख रहे हैं। बहुत बरस बाद जब 2011 में मैं मुलायम सिंह जी से मिला तो उन्होंने इस बात की पुष्टि करते हुए मुझसे जानना चाहा था कि मैं क्योंकर उनकी सरकार और शिवपाल यादव के खिलाफ लिखता था। मेरी बात उन्होंने बहुत देर तक धैर्यपूर्वक सुनी, न तो अपनी सरकार की कटु आलोचना से वे नाराज हुए और न ही उन्होंने कोई स्पष्टीकरण दिया। यह उनका बड़प्पन था कि वे मुझे छोड़ने बाहर तक आए और मुस्कुरा कर बोले ‘इस बार सरकार बनेगी तो आपके कहे को याद रखूंगा।’