मेरी बात
समाजवादी पार्टी के संस्थापक स्व. मुलायम सिंह यादव के साथ उत्तराखण्ड की बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। इनमें से कुछ सुखद तो कुछ बेहद कड़वी हैं, इतनी कड़वी कि उनकी मृत्यु पश्चात् अच्छी यादों को पूरी तरह भुला, कड़वी यादें आक्रोश बन उभरने लगी हैं। आमतौर पर हमारे देश में मृतक के लिए हमेशा अच्छा ही कहे जाने की परंपरा है। मैंने ‘नेताजी’ को याद करते हुए इस परंपरा से हटकर उनके समग्र रूप को सामने रखने का प्रयास किया, जिस पर बहुत से मित्रों ने टिप्पणी करते हुए मुलायम सिंह की उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान रही भूमिका पर लिखने का आग्रह किया है। उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत) से अलग होने की छटपटाहट उत्तराखण्ड भीतर आजादी से पहले ही पैदा हो चुकी थी। 1938 में श्रीनगर (गढ़वाल) में आयोजित कांग्रेस की बैठक में नेहरू ने कहा था कि ‘इस पर्वतीय अंचल के लोगों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।’ आजादी मिलते ही पृथक उत्तराखण्ड प्रांत की मांग उठने लगी थी। 1947 में ही हरगोविंद पंत ने संसद में इस संबंधी प्रस्ताव पेश किया था लेकिन कांग्रेस के दिग्गज नेता गोविंद बल्लभ पंत के दबाव में इसे वापस ले लिया गया। इसके बाद समय-समय पर इस पर्वतीय भू-भाग से ताल्लुक रखने वाले राजनेताओं और आंदोलनकारियों ने लगातार एक अलग पर्वतीय राज्य की मांग को किसी न किसी रूप में जिलाए रखा। यह लंबा इतिहास, लंबा कालखंड है जिसे चंद शब्दों में समेटा जाना संभव नहीं। बात मुलायम सिंह यादव के समय और उत्तराखण्ड को लेकर उनकी भूमिका और मंशा की है इसलिए मैं इस लंबे कालखंड की चर्चा फिर कभी करने के लिए स्थगित करते हुए सीधे अस्सी के दशक में आता हूं जब मुलायम सिंह एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बतौर उत्तर प्रदेश में स्थापित हो चुके थे और पृथक उत्तराखण्ड राज्य के गठन के मूल उद्देश्य लिए 1979 में बनी ‘उत्तराखण्ड क्रांति दल’ भी उत्तर प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में अपनी पकड़ बना चुकी थी। भाजपा राम मंदिर निर्माण को चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास इस दशक के उत्तरार्ध में पूरे जोश- खरोश से करने लगी थी। 1989 में हुए आम चुनाव में उक्रांद ने चार लोकसभा और सभी 19 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन उसे मात्र दो विधानसभा सीटों-रानीखेत और डीडीहाट में ही जीत मिली। रानीखेत से उसके प्रत्याशी जसवंत सिंह बिष्ट और डीडीहाट से काशी सिंह ऐरी चुनाव जीत उत्तर प्रदेश की विधानसभा पहुंच पाने में सफल रहे थे। जनता दल ने इन चुनावों में शानदार प्रदर्शन कर नैनीताल और पौड़ी लोकसभा और 6 विधानसभा सीटें जीत उक्रांद की आंतरिक कमजोरियों को सामने ला खड़ा किया था। उत्तर प्रदेश में पहली बार मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी जिसे उक्रांद ने बगैर शर्त समर्थन दे दिया था।
उक्रांद नेता और विधायक जसवंत सिंह के पूर्व में सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े होने के चलते उनके मुलायम सिंह यादव संग प्रगाढ़ रिश्ते थे। उक्रांद का यह निर्णय पर्वतीय जनता को बेहद अखरा, क्योंकि तब तक मुलायम सिंह अलग पर्वतीय राज्य के प्रबल विरोधियों में गिने जाते थे। नई पीढ़ी अवगत हो इसलिए बताना जरूरी है कि मुलायम सिंह का पहाड़ विरोधी रुख इस कदर उन दिनों था कि जब 13 दिसंबर, 1990 को बतौर मुख्यमंत्री वे जसवंत सिंह बिष्ट की पुत्री के विवाह समारोह में शामिल होने रानीखेत पहुंचे थे तो उन्हें भारी जनाक्रोश का सामना करना पड़ा, स्थिति संभालने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक का सहारा लेना पड़ा जिसमें कई घायल हुए थे।
1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उक्रांद के एक मात्र प्रत्याशी काशी सिंह ऐरी ही सफल हो सके। मुलायम के नेतृत्व वाली सपा और बसपा गठबंधन की सरकार को उन्होंने बगैर किसी से सलाह-मश्विरा किए अपना समर्थन दे दिया था, जिसके चलते जिसमें पहाड़ में उक्रांद के प्रति नाराजगी ज्यादा तेज हो गई। इस गठबंधन सरकार का मुख्यमंत्री रहते मुलायम सिंह यादव ने 20 दिसंबर, 1993 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का विधेयक पास करा राज्य के सभी शिक्षण संस्थानों में 50 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का आदेश जारी कर दिया। चूंकि उत्तर प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में मात्र 2 प्रतिशत ही ओबीसी जनसंख्या थी इस चलते इस आदेश का यहां जबरदस्त विरोध शुरू हो गया। भारी जन-दबाव में आए ऐरी को मुलायम सरकार से अपना समर्थन वापस लेना पड़ा था। मुलायम सिंह यादव और पहाड़ के मध्य इस विधेयक चलते एक ऐसी विभाजन रेखा खींच गई जो बाद के वर्षों में पृथक राज्य के समर्थक बने मुलायम सिंह यादव कभी मिटा नहीं पाए।
उन्होंने बसपा संग गठबंधन सरकार का नेतृत्व करते हुए 3 जनवरी, 1994 के दिन उत्तराखण्ड संबंधी महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए एक अलग उत्तरांचल विकास विभाग बनाए जाने का निर्णय लिया था। साथ ही पर्वतीय इलाकांे के विकास से जुड़े 31 विभागों में ‘हिल कैडर’ लागू करने की घोषणा भी की। उन्होंने अपने वरिष्ठ मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में एक समिति के गठन का भी फैसला लिया जिसे पृथक पर्वतीय राज्य की बाबत विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई। मुख्यमंत्री यादव ने स्पष्ट घोषणा इस अवसर पर कर डाली कि ‘नए राज्य का निर्माण केंद्र सरकार से सहमति के बाद किया जाएगा और राज्य निर्माण की अन्य सभी औपचारिकताएं राज्य सरकार द्वारा की जाएंगी।’ इस दृष्टि से देखा जाए तो मुलायम सिंह का योगदान राज्य निर्माण में खासा महत्वपूर्ण है। इस समिति की सलाह पर मुख्यमंत्री ने तत्काल ही पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग से एक प्रमुख सचिव की तैनाती भी कर डाली थी। कौशिक समिति ने पृथक राज्य बनाए जाने की प्रबल संस्तुति की जिसे मुलायम सिंह मंत्रिमंडल ने 21 जून, 1994 के दिन स्वीकार भी कर लिया। पृथक राज्य निर्माण की दिशा में बढ़ा यह एक महत्वपूर्ण कदम था। 2 जून, 1994 को मुख्यमंत्री यादव ने उत्तराखण्ड क्षेत्र के लिए एक अतिरिक्त मुख्य सचिव की तैनाती भी कर डाली। लेकिन ओबीसी आरक्षण मुद्दे पर मुलायम सिंह यादव अड़े रहे जिस चलते उनका उत्तर प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में विरोध बढ़ता चला गया था। समूचे इलाके में शिक्षण संस्थाएं बंद पड़ी थीं और सरकारी दफ्तरों, बैंकों इत्यादि में कामकाज सुचारू रूप से नहीं चलने दिया जा रहा था। यह वह दौर था जब समस्त राजनीतिक दल और नागरिक संगठन एक हो धरने प्रदर्शन आयोजित करने में जुटे हुए थे। ऐसे में 17 अगस्त, 1994 को मुलायम सिंह यादव ने एक अजीबो- गरीब बयान देकर पूरे माहौल को हिंसक बनाने का काम कर डाला। उन्होंने कहा ‘मेरी सरकार उत्तराखण्ड के भरोसे नहीं चल रही है यदि मैं मैदानों में अपने लोगों को जरा भी इशारा कर दूं तो उत्तराखण्ड की जनता कहां टिकेगी?’ यह एक शंातिपूर्ण तरीके से चल रहे आंदोलन के खिलाफ बेहद अविवेकपूर्ण बयान था जिसने इस आंदोलन को हिंसा की राह पर डाल दिया। उत्तर प्रदेश की पुलिस ने शांतिपूर्ण तरीकों से अपना विरोध प्रकट कर रहे आंदोलनकारियों पर लाठी बरसानी और हवाई फायरिंग करने का दौर शुरू कर डाला। 28 अगस्त, 1994 को मुलायम सिंह ने एक बार फिर से अपने पहाड़ विरोध का परिचय देते हुए कहा ‘आरक्षण नीति किसी भी कीमत पर नहीं बदली जाएगी। पहाड़ के लोगों ने मुझे मुख्यमंत्री बनाने में कोई भूमिका अदा नहीं की है। उत्तराखण्ड की 19 विधानसभा सीटों में से मेरी पार्टी का केवल एक विधायक चुना गया है।’ इस बयान ने पहले ही उग्र माहौल को और गर्म करने का काम कर डाला। उनके इस बयान बाद पूरे पर्वतीय क्षेत्र में प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई। धारा-144 के बावजूद जन- सैलाब सड़कों पर उतर आया। वर्तमान में भीमताल से विधायक रुराम सिंह कैड़ा जो उन दिनों हल्द्वानी के एम ़बी ़ कॉलेज छात्रसंघ के उपसचिव थे, ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान 29 अगस्त के दिन हल्द्वानी मंे हुए पुलिस लाठीचार्ज में खासे चोटिल हुए थे। 29 अगस्त के दिन एक अद्भुत घटना हुई जिसे अब भुलाया जा चुका है। इस दिन ऋषिकेश के निकट जौलीग्रांट में हजारों युवा प्रदर्शनकारियों ने ओएनजीसी तेल कंपनी के एक विमान को कब्जा लिया और उसमें ‘उत्तराखण्ड एयर लाइंस’ लिख डाला। मुलायम सिंह अपना और अपनी पार्टी के प्रति पहाड़ी इलाकों में बढ़ते विरोध से अब खासे विचलित रहने लगे थे। उन्होंने सपा नेता रुविनोद बर्थवाल को आगे कर छात्रों संग बातचीत का रास्ता निकालने की पहल की। इस बैठक में मौजूद कुछ नेताओं जिनमें रुअनिल बहुगुणा और रुशेखर लखचौरा जैसे युवा नेता शामिल थे, ने 27 प्रतिशत आरक्षण की नीति को उचित ठहरा दिया। 31 अगस्त को हुई इस वार्ता के तुरंत बाद आकाशवाणी और दूदर्शन ने खबर प्रसारित कर डाली कि उत्तराखण्ड के छात्र अपना आंदोलन वापस लेने के लिए तैयार हो गए हैं। इस दुष्प्रचार से आंदोलन और तेज हो गया। मुलायम सिंह यादव साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना इस आंदोलन को समाप्त करने की जिद ठान बैठे थे जिसका नतीजा 1 सितंबर, 1994 को खटीमा कांड के रूप में सामने आया जब छात्रों और पूर्व सैनिकों की एक रैली पर उत्तर प्रदेश पीएसी ने कई राउंड फायरिंग कर डाली। इस बर्बर पुलिस कार्रवाई में कई भूतपूर्व सैनिक घटना स्थल पर ही मारे गए। तीन की मृत्यु की बात तब सरकारी तंत्र ने स्वीकारी थी जबकि सीबीआई जांच में सात आंदोलनकारियों के मारे जाने की पुष्टि बाद में हुई। खटीमा कांड के बाद मुलायम सिंह यादव पहाड़ और पहाड़ियों की दृष्टि में खलनायक बन गए। लेकिन अभी तो यह टेªलर मात्र था। बहुत कुछ ऐसा होना बाकी था जिसके चलते पृथक पहाड़ी राज्य का समर्थन करने, राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पास करने, कौशिक समिति के जरिए पहली बार सरकारी स्तर पर पृथक उत्तराखण्ड की पहल करने वाले मुलायम सिंह यादव के हाथों वह हो गया जिसके कारण आज उनके न रहने पर भी पहाड़ की आम जनता उनके द्वारा पृथक राज्य के लिए उठाए गए सकारात्मक और महत्वपूर्ण कदमों के बरअक्स उनके द्वारा, उनकी सरकार के द्वारा आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचारों को याद करते हुए उन्हें खलनायक बतौर याद कर रही है।
क्रमशः