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Editorial

मिश्र के राष्ट्रपति की यात्रा के निहितार्थ

मेरी बात

भारतीय गणतंत्र की 74वीं वर्षगांठ के अवसर पर मिश्र के राष्ट्रपति का मुख्य अतिथि बतौर भारत आना कूटनीतिक दृष्टि से खासा महत्व रखता है। विशेषकर चीन संग लगातार तनावपूर्ण हो रहे रिश्तों के दृष्टिगत मिश्र और भारत के रिश्तों को और प्रगाढ़ करना भविष्य में चीन संग संभावित किसी भी आपात स्थिति में इस प्राचीन संस्कृति और इतिहास वाले इस्लामिक राष्ट्र को भारत के पक्ष में रखने की रणनीति का बेहद जरूरी हिस्सा है। मिश्र के राष्ट्रपति अब्देल फतेह अल सिसी 2014 में देश के राष्ट्रपति बने। इसी वर्ष मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। सितंबर 2015 में दोनों नेताओं की पहली मुलाकात संयुक्त राष्ट्र संघ के महा अधिवेशन दौरान अमेरिका में हुई थी। 2016 में सिसी भारत यात्रा पर आए। तभी से मोदी-सिसी के मध्य परस्पर भरोसे का रिश्ता कायम हो गया था। मिश्र का मुस्लिम राष्ट्रों के मध्य एक विशेष स्थान है। सुन्नी बाहुल्य मिश्र के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ‘अल अजहर’ को सुन्नी इस्लाम समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थान का दर्जा हासिल है। 2009 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यहीं ‘एक नई शुरुआत’ नाम से प्रसिद्ध भाषण दिया था। तब अमेरिका ने इस भाषण को मिश्र में दिए जाने की बाबत कहा था-‘यह वह देश है जो कई अर्थों में अरब संसार का प्रतिनिधित्व करता है।’ अमेरिका के इस कथन से स्पष्ट होता है कि मुस्लिम देशों के मध्य मिश्र का स्थान खासा महत्वपूर्ण है। मिश्र संग भारत के संबंध आजादी बाद से प्रगाढ़ रहे हैं। 1961 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मिश्र के राष्ट्रपति गेमाल अब्देल नासिर हुसैन ने मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी थी। 1967 में मिश्र और अरब देशों की इजरायल संग हुई जंग में भारत ने मिश्र, सीरिया और जॉर्डन का समर्थन किया था। दोनों देशों के बीच तभी से संबंध प्रागढ़ रहते आए हैं। दोनों के मध्य इस दौरान आर्थिक क्षेत्र में भी परस्पर हितों का बखूबी ध्यान रखा जाता रहा है। भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी गेल इंडिया लिमिटेड ने 2004 में मिश्र की गैस वितरण कंपनी में बड़ा पूंजी निवेश कर इन रिश्तों को मजबूती देने का काम किया है। मुस्लिम राष्ट्रों में मिश्र की गिनती उन देशों में की जाती है जो आतंकवाद के सख्त खिलाफ रहते आए हैं। तेल उत्पादक देशों के समूह ‘ओआईसी’ (इस्लामी सहयोग संगठन) में पाकिस्तान समर्थक देश हमेशा से ही भारत को जम्मू-कश्मीर और भारतीय अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर लगातार निशाने पर रखते हैं। मिश्र का रुख लेकिन भारत के प्रति पक्षधरता का रहा है।

 

राष्ट्रपति सिसी का 74वें गणतंत्र में मुख्य अतिथि बतौर भारत आना लेकिन एक अन्य कारण से भी भारतीय हितों की रक्षा के दृष्टिगत खासा महत्वपूर्ण है। मिश्र के संबंध हमारे पड़ोसी राष्ट्र चीन के साथ भी अति घनिष्ठता के रहे हैं। भारत और मिश्र उन राष्ट्रों में शामिल थे जिन्होंने चीन में वामपंथी सत्ता स्थापित होने के बाद बनी माओ चे संग सरकार को सबसे पहले मान्यता देने का काम किया था। ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ का दौर समाप्त होने के बाद से ही चीन का रवैया हमारे प्रति शत्रुता का है। दूसरी तरफ मिश्र के साथ उसके संबंध लगातार प्रगाढ़ होते चले गए। अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मानचित्र में मिश्र का विशेष स्थान है। लाल समुद्र को यूरोप से जोड़ने वाली स्वेड नहर का नियंत्रण मिश्र के हाथों में है। यह नहर फारस की खाड़ी के देशों से खनिज तेल समेत कई वस्तुओं के यूरोपीय देशों और उत्तरी अमेरिका तक भेजे जाने का सबसे महत्वपूर्ण जल मार्ग है। वर्तमान में मिश्र की अर्थव्यवस्था गहरे संकट के दौर से गुजर रही है। कोविड महामारी के चलते यहां का पर्यटन उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ है। रूस-यूक्रेन युद्ध ने भी यहां की अर्थव्यवस्था में भारी असर डाला है। मिश्र लगभग अस्सी प्रतिशत खाद्यान्न इन दो देशों से आयात करता है। युद्ध चलते उसे अन्य देशों से अधिक कीमत पर अपनी खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करना पड़ रहा है जिस कारण उसका विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटने लगा है। राष्ट्रपति सिसी भारत और चीन से पूंजी निवेश का आग्रह कर रहे हैं। वर्तमान में भारतीय कंपनियों का कुल पूंजी निवेश लगभग 3.15 बिलियन डॉलर का है जो चीन की बनिस्पत बेहद कम है। 2017 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 तक चीन अरब देशों में 28.5 बिलियन डॉलर का पूंजी निवेश कर चुका है जिसका सबसे बड़ा हिस्सा मिश्र में निवेश किया गया है। हमारा वर्तमान में मिश्र संग कुल कारोबार 7.26 बिलियन डॉलर का है तो चीन का इससे दोगुना, 15 बिलियन डॉलर है। ऐसे में जाहिर है कि मिश्र का झुकाव हमारी बनिस्पत चीन की तरफ ज्यादा रहना तय है जिसका दुष्प्रभाव भविष्य में चीन संग टकराव की अवस्था में हमारे हितों को प्रभावित कर सकता है। यही कारण है कि केंद्र सरकार पहले से प्रगाढ़ संबंधों को ज्यादा मजबूती देने की दिशा में काम कर रही है। आर्थिक क्षेत्र में मदद के साथ-साथ भारत मिश्र को भारत में तेजस एयर क्राफ्ट, आकाश मिसाइल और ‘डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) द्वारा निर्मित एंटी एयर क्राफ्ट सिस्टम तथा रडार आदि दिए जाने की पेशकश कर चुका है। वैश्विक आतंकवाद को लेकर राष्ट्रपति सिसी का रुख भारत समान ही है इसलिए आतंकी जेहाद के मसले पर भी दोनों देशों के मध्य सहमति है कि इस दिशा में मिश्र राष्ट्रों संग संवाद कर इस्लामी आतंकवादी संगठनों पर रोक लगाई जानी चाहिए।

भारत का प्रयास है कि विश्व के सबसे बड़े इस्लामी राष्ट्र इंडोनेशिया और मिश्र के जरिए वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम राष्ट्रों को तैयार कर सके। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल इस लक्ष्य को पाने के लिए इंडोनेशिया समेत कई अन्य देशों के संपर्क में हैं। मिश्र भारत के लिए सामरिक दृष्टि से भी अति महत्वपूर्ण हो चला है। कारण है चीन द्वारा पूर्वी अफ्रीका में तेजी से अपनी सैन्य शक्ति का विस्तार करना। 2015 में चीन ने पूर्वी अफ्रीकी देश जिबूती संग एक महत्वपूर्ण सैन्य करार कर वहां अपनी नौसेना का एक ठिकाना बना डाला है। जिबूती में उसके द्वारा 590 मिलियन डॉलर की लागत से एक सैन्य बेस बनाया गया है जिसके जरिए वह खाड़ी के देशों और हिंद महासागर में अपनी सामरिक ताकत को बढ़ाने में सफल रहा है। यह भारतीय हितों के लिए बेहद घातक साबित हो सकता है। चीन अपनी अति महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना की आड़ में अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में भारी पूंजी निवेश कर रहा है।

वर्तमान में अफ्रीका के 54 देशों संग चीन का व्यापार लगभग 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब है जो हमारे से लगभग तीन गुना ज्यादा है। चीन इन देशों को आसान शर्तों में ऋण भी उपलब्ध करा यहां अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटा है। चीन की इस कूटनीति का जवाब 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में आयोजित भारत-अफ्रीका समिट के दौरान अफ्रीकी देशों के लिए 10 बिलियन डॉलर का ऋण स्वीकृत किया था। तब से लेकर लगातार ही भारतीय पूंजी निवेश अफ्रीका में तेजी से बढ़ाया जा रहा है ताकि चीन के प्रभाव को कम किया जा सके। भारतीय तेल कंपनी ओएनजीसी विशेष रूप से यहां अपनी गतिविधियों को विस्तार देने में जुटी हुई है। हालांकि चीन द्वारा अफ्रीकी महाद्वीप में किए जा रहे पूंजी निवेश का प्रतिकूल असर अकेले भारत के लिए चिंता का कारण नहीं है। अमेरिका और ‘नाटो’ के सदस्य देश भी चीन के इरादों से खासे सतर्क और चिंतित हैं। जिबूती में चीनी सेना का ठिकाना अमेरिका की ताकत को चीन की खुली चुनौती समान है। इस क्षेत्र में पहले से अमेरिकी सेना के कई बेस हैं जिसके चलते अर्से से यहां के देशों पर अमेरिका का दबदबा चला आ रहा है। अब लेकिन चीन ने इस अमेरिकी संप्रभुता को चुनौती देनी शुरू कर दी है। यही कारण है कि अमेरिका व अन्य यूरोपीय ताकतों द्वारा अप्रत्यक्ष तौर पर अफ्रीकी महाद्वीप में भारत की बढ़ती सक्रियता को मदद पहुंचाई जा रही है ताकि पश्चिमी देशों के हितों की रक्षा हो सके।

कुल मिलाकर भारत द्वारा मिश्र के राष्ट्रपति को अपने 74वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि बनाया जाना उस विदेश नीति का विस्तार है जिसे नेहरूकाल में शुरू किया गया था और जो वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में न केवल भारत बल्कि समूचे विश्व के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए चीन की साम्राज्यवादी नीति के चलते वैश्विक शांति बनाए रखने और चीन की नकेल थामे रखने के लिए बेहद जरूरी है।

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